पलायन के ये नीलकंठी के फूल…! जब पलायन की पीड़ा से होना होता है दो चार….!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 5 मार्च 2016)
लगभग 5 साल बाद ऐसा मौका दुबारा मिला, जब मैं गॉव से लगभग 2किमी. दूर फैले अपने उन बंजर खेतों की सुध लेने पहुंचा जिनमें कभी ताऊजी-पिताजी, माँ-ताईजी, चाची, बड़े भाइयों और बहनों की पसीने से सिंची फसल उगा करती थी। जिनमें ऊखड जमीन पर बंकुली, ख्वीड नामक दो वैरायटी के चावल, मंडूवे, झंगोरे की फसल, तिलहन, उड़द, गैइत (कुल्थी), मसूर, भट सोयाबीन, काले हरे इत्यादि भरपूर मात्रा में उगा करते थे वहीँ कौउणी व मर्से (चोलाई) के बड़े-बड़े बलूड़े (बाल) ऐसे लगते थे जैसे डराने आ रहे हों।

आज सचमुच वह खुद वह पीड़ा मिटाने का समय था जिस धूल माटी में लथपथ हल के फल से जमीन का सीना चीरती माटी हंसती खिलखिलाती अपने ज़िंदा होने का वजूद प्रस्तुत करती थी। ताऊजी के ऊँचे भाबरी बैलों के उन्नत कंधो पर सांधन का ज्यू (जुवा) और उन पर बंधी सेलु (भेमल के रेशे से निर्मित रस्सी) की डोरियों से निकलती चर्र चर्र की आवाज, बैलों के गले में लटके खांकर (छोटी-छोटी घंटियाँ), सींगों व गले में कौड़ी, नाक में कसे स्यून्ते (नथनिया) और सींगो में लगे सरसों के तेल में मिला काला म्वासा (कालिख), कमर की कसावट, पीछे से घोड़े की तरह उठी पूँछ, और पैरों में गजब की चपलता से ऐसे लगता था जैसे धरती माँ इन बेजुबान पशुओं की इस अल्हड़ता अखडता पर मन्त्र-मुग्ध होकर अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो।
वहीँ हाथ में हर स्यूं के डाळऐ (हल के फल से निकलते मिटटी के ढेले) फोड़ने के लिए बाँज की जड़ों की निर्मित कुदालों को फोडती माँ बहनें, ताईजी, चाची जी व बाद-बाद में भाभियाँ हंसी ठिठोली करती अपने परिश्रम की गाथा मिटटी में लिखा करती थी जो गाथा बीज से अंकुर बन जब लहलहाती थी तब मन आल्हाहित होकर कह उठता था -अहो भाग्य मेरे, जो मेरी जननी ने मुझे इतना सुखद परिवार दिया। स्यूं के डाळए फोडती मुझे मेरी अपनी ताईजी जब स्मृत हो उठी तो आँखें सजल होनी स्वाभाविक है। बेहद हंसमुख, हंसी ठिठोली वाली ताई भले ही बर्षों पूर्व इस लोक से उस अंनत लोक की यात्रा में निकल चुकी हैं लेकिन आज भी लगता है जैसे कल की बात हो। वह इतनी कुशल कृषक अर्धांग्नी थी कि स्यूं के डाळऐ फोड़ते हुए जब कुटळई (कुदाल) और मिटटी के ढेलों का संपर्क होता था तब उससे उत्पन्न रिदम को वह लयवद कर गुनगुनाने लगती थी। हमारे भाबरी बैलों को भी शायद इन शब्दों की आदत सी पड़ गयी थी। मैं कई बार ताऊजी के साथ तब जोळ (हल से मिटटी समतल करते समय) में बैठा करता था जब ताऊजी खुद बुलाते थे।
लिखूंगा तो बात दूर तक जायेगी लेकिन आज सचमुच उन्हीं बंजर पड़े खेतों में उगे बड़े बड़े डरावने से आड़-बुज्याड (बेमतलब के पेड़ पौधे) को खड़ा देखता हूँ तो सोचता हूँ, सचमुच एक विधवा की सूनी मांग के साथ उसका चार्म क्यों ख़तम हो जाता है। हमारे कई नाली के ये खेत भी उसी विधवा की भाँति थे क्योंकि उन्हें संजोने वाले मेरे चाचा-ताऊ पिताजी आज इस दुनिया में नहीं हैं। भौतिकवादी इस युग ने हमें ऐसे मोड़ पर ला दिया है जहाँ हम शहरों के छोटे से जमीनी टुकड़े पर अपनी आलिशान कोठी की शान बघारते हुए यह भूल जाते हैं कि पुरखों की कई एकड़ जमीन बड़े-बड़े मकान सब चेतनाशून्य हो गए हैं।
काश….कि ऐसी शादी हर महीने आती और हमारे सबसे बड़े दरोगा भाई साहब (योगम्बर प्रसाद इष्टवाल) मुझे यूँही उन बंजर खेतों की ओर ले जाते जहाँ वे मुझे इस बार ले गए और एक एक खेत के बारे में भेकल्या तोक की सरहद बताते। वे अंगुली उठाकर कहते-ये देख ये है बाड़ी जहाँ काले मुंड (काले सिरे) की बंकुली (लाल चावल) हुआ करती थी। आज देख खनन माफियाओं ने पूरे खेतों की तस्वीर बदल डाली। इसके सीने से इतने पत्थर निकाल लिए कि बाड़ी का डंगडया (बाडी वाले खेतों का पत्थरीला क्षेत्र) अब बदसूरत बन गया है। वो रहा चौसर्या..! इन खेतों में गजब की फसल हुआ करती थी। ये खितडया है, नीचे वाला बड़ा खेत देख रहा है इसके पास अंयार उगा करता था जिससे जानवर बीमार होते थे। हम उसकी पूजा में इसी के दूसरे क्षेत्र में खिचड़ी बनाया करते थे, और वो रहे कूली मूडी के खेत…। चलो शुक्र है हमारे कोई भी पेड़ नहीं कटे वरना मैं बताता कि पेड़ कटवाने का नतीजा क्या होता है। भाई साहब अपनी ही रौ में मुझे जता रहे थे, उन्हें पीड़ा इस बात की थी कि खनन माफिया अब सिर्फ नदी तक नहीं बल्कि खेतों तक पहुँच गया है। लकड़ी माफिया जंगल छोड़कर अब गॉव तक पहुँच गया है। मैं फीकी हंसी हंसा कि अब तो भैजी देहरादून के हो गए फिर भी उन सब खेतों की खुद मिटाने यहां तक पैदल-पैदल चल पड़े जिन्हें उन्होंने कभी अपने पसीने से सींचा होगा।
फिर स्याळआ ओड्यार, डुंगरैकी ढंडी, पिनापिनी इत्यादि का पूरा ब्यौरा देते हुए भाई साहब मुझे एक एक अपनी यादों का चिट्ठा खोल-खोलकर बता रहे थे। उनके चेहरे का विषाक्त साफ़ बता रहा था कि वे कितने मजबूर हैं अपने खेत खलिहानों से दूर होकर….! जिनका तन-मन गॉव में रमा हो भला उन्हें शहर की चकाचौंध से क्या वास्ता…. लेकिन जमाने के साथ कदम तो मिलाना ही पडेगा! वरना हमारी औलाद पिछड जायेगी और शायद यही सोचकर हम गॉव त्यागकर शहरों की ओर आ गए। लेकिन उस खून की आखिरी बूँद का क्या जिसकी रूह आज भी इन्हीं हसीं वादियों की दीवानी है।
मैं इस समय बेहद अकुलाया शायद इसलिए कि यह पहला इत्तेफाक था जब बड़े भाई साहब मुझे लेकर इस तरह इतनी दूर खेतों की दास्ताँ सुनाते हुए निकले थे।
खितडया खेतों की मुंडेरों पर उगे खिलखिलाते इन फूलों को मैंने पहले तोडना चाहा लेकिन भाई साहब ने यह कहकर रोक दिया – मत तोड़, देख खेत बंजर हैं यह अहसास ये मुंडेरों के फूल हमें दिला रहे हैं। जैसे खिलखिलाकर हंसी में अपनी कडुवाहट का अश्रकल्प हमें पिला रहे हों, और हमें सन्देश दे रहे हों कि कहीं भी रहो हम औषधि पादप बन आज भी आपको जीवन रक्षक बनकर अपनाने को तैयार हैं। जब जरुरत पड़े चले आना…..!
मैं भाई साहब के दुअर्थी शब्दों पर चकरा गया और उन्हें एकटक देखकर निहारने लगा वे हँसे और बोले- अरे बेवकूफ ये कम्ळया के फूल हैं, इन्हें नीलकंठी भी कहा जाता है। इसके पत्ते ऊपर से हरे तो नीचे से बैंगनी होते हैं इसकी जड़ बेहद कडुवी होती है, लेकिन वह जीवन रक्षा के लिए अचूक औषधि है। इससे सुगर, ब्लड सुगर सहित कई ह्रदय सम्बन्धी विकार समाप्त हो जाते हैं। मैं आवाक् रह गया मैंने सचमुच उन सभी अपने खेतों को नमस्कार किया और बुझे कदम वापस घर की तरफ लौट चला। शायद 15 मिनट तक मैं व भाई साहब निशब्द चलते रहे…!
देहरादून पहुंचकर माँ से सारी बातें जब शेयर की तो स्वाथ्य लाभ कर रही माँ जैसे एकदम निरोग हो गयी हो फिर वह हर छोटी बड़ी यादों से दो चार हुयी तो कब रात के दस बज गए पता तक नहीं चला। माँ का अपने बंजर खेतों के प्रति इस तरह लाड़ देखकर मेरे आंसू तब निकल पड़े जब वह बोली- म्यारा, जरा मि ठीक व्हे जांदू न त कु रैणु छायू यख। मी भी देख्यान्दू अपणी वल्या-पल्या सारी…! ब्यटा, मी लोली कु मौत भि हरच। वखि मुरदु अपणा गौं-गुठयार म त म्यारा पितर भी खुश हूंदा कि हमारी मान मर्यादा अपण घार म ही म्वार। झणी कतगा भोगणी लीखिंच धौं तकदीर म (मेरेे, जरा मैं भी ठीक हो जाती तो कौन रह रहा था यहां। मैं भी देख आती अपनी इधर उधर की खेती..! बेे
टे, मेरे लिए मौत भी नहीं है। वहीं मरती अपने घर आंगन में तो मेरे पित्र देवता भी खुश होते कि हमारी मान मर्यादा अपने घर में ही मरी। जाने कितना भोगना लिखा है इस तकदीर में) ये शब्द सचमुच मेरे लिए शूल समान थे लेकिन विवश व लाचार मैं कर भी क्या सकता था। बीमार माँ को भला कैसे बोलता-चल माँ गांव लौट चलें।