पलायनवादी मानसिकता को सबक देती उत्तरकाशी जनपद की गड्डूगाड़ पट्टी! जहाँ स्वच्छ पर्यावरण और सुख समृधि के सुनाई देते हैं गीत!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 17 जून 2019)

कभी-कभी समय बड़ा बलबती होता है और उस समय को देखकर आप जब अतीत को याद करते हैं तब एक बिषाक्त आपके मन मस्तिष्क में उत्पन्न होता है जिससे आप दुःख महसूस करते हैं या फिर साथ ही जलन भी! ऐसा ही कुछ आज भी महसूस हो रहा था जब हमने केदारकांठा की गोद में बसे गाँव देवजानी की ओर रुख किया!
सुबह करीब सवा नौ बजे हम देहरादून से निकले थे! हम यानि मैं, पलायन एक चिन्तक के संयोजक ठाकुर रतन सिंह असवाल व देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल ..! लगभग ढाई बजे हम ऐसे स्थान पर रुके जो उत्तरकाशी जिले की यमुना घाटी व तमसा घाटी का शीर्ष क्षेत्र कहा जाता है या फिर इस दोनों घाटियों को बांटने वाली चोटी जिसे जरमोलाधार कहते हैं!
यहाँ अभी हम चाय पीकर निबटे ही थे कि एक कार रुकी जिससे कुकरेड़ा ग्राम सभा के प्रधान चतर सिंह रावत, नानई के अमर सिंह चौहान, महासू देवता के बजीर, खेमडी के समाजसेवी अनिल पंवार उतरे! जानकारी मिली कि इन्हीं लोगों के साथ हमें आगे का सफर तय करना था! सच मानिए मुझे यह भी पता नहीं था कि हमारी मंजिल आखिर है कहाँ..! खैर इसके बाद दोनों गाड़ियां जरमोला का ढाल उतरती हुई खरसाड़ी से आगे भदरासू पहुंची जहाँ से दांया मोड़ काटती हमारी कार एक कच्ची सडक की और लपक चली! जबकि सीधी सडक मोरी के लिए आगे बढ़ जाती है! भदरासू के पास गडूगाड़ नदी के ऊपर पुल बना है जिसे पार करते ही दिल खुश हो गया क्योंकि अब हमारे बाएं हाथ पर चीड के शानदार जंगल थे व दांयें हाथ पर खेतों में अभी अभी रोपी गयी लहलहाती हुई धान को शीशे में उतारते पानी से भरे लबालब खेत!

गडूगाड़ नदी किनारे बसा भदरासू होते ही जब हम आगे बढे तो रास्ती गाँव के गदेरे के पास पुलम, आडू, सेब से लबालब भरा एक बागीचा दिखाई दिया! क्योंकि अब कुकरेड़ा के ग्राम प्रधान हमारे साथ थे तब उन्हीं से जानकारी मिली की इस बागीचे के पास जो मकान है वह कोई हिमाचली व्यक्ति है जिसने अथक मेहनत से चीड जंगल के पास यह उद्यान खडा किया है और वर्तमान में इसी उद्यान से अपनी आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत कर ली है क्योंकि अब वह हर बर्ष लाखों का फल व्यवसाय करते हैं!

रास्ती से डोभालगाँव, रमाल गाँव, कुमणाई, कियां, सतरा होते हुए हम इस बेहद खतरनाक सड़क से अंत में सड़क के उस छोर तक पहुँच चुके थे जहाँ से आगे सडक ही नहीं थी! घड़ी पर निगाह डाली तो पाया अभी शांय के 5:43 बजे हैं! और सामने दिख रहे दो गाँव एक जीवाणु व दूसरा देवजानी है! इस दौरान मेरे द्वारा रास्ते भर जो चीज दिखाई दी वह गडूगाड़ की गोद में बसे इन गाँवों के सेरों में हो रही धान रुपाई थी जो दिल को बेहद अप्रितम लग रही थी! मैं जहाँ इस सब को देखकर मंत्रमुग्ध था वहीँ जब अतीत में गया और अपने बचपन में पढ़ाई के दौर में अपने गाँव व आस पास के गाँवों जिनमें धारकोट, जमकंडी, पाली व खरगढ़ नदी पार नैल, धमेली के पानी से नहाते वही खेत याद आ गए जिनमें घुटनों तक के पानी में रेंगते बैलों के जोड़े, लाट की उंचाई तक डूबे हल के फल, आधे भीगे पजामे, बैलों के गले में सुशोभित खांकर, घंटियां व बैजन्तीमाला,सींगों पर लगा सरसों का तेल व काला झ्वाले की पोलिश और हाथों में धान प्याज की रोपाई के हरे पौधे लिए माँ बहनें, चाची ताईयों के कोहनी व घुटनों तक चिकनी मिटटी में सने हाथ व चेहरे पर मेकअप करती मिट्टी के बीच हंसी ठिठोली फिर थकान मिटाने के बाद कहीं पेड़ की छाँव में बैठकर खाना खाना और फिर शांयकाल तक यूँहीं खेतों की मिट्टी व पानी में शुकून के बीज रोपना ..! अहा मन कितना आल्हाहित होता था जब मिट्टी व पानी का आपस में आलिंघन होता था! तब सचमुच क्या खुशबु फूटती थी उस से ..!
मैं ठाकुर रतन असवाल के बगल की ड्राइविंग सीट के पास बैठा था जबकि दिनेश कंडवाल जी व चतर सिंह रावत पिछली सीट पर थे! ठाकुर रतन असवाल बोल पड़े- क्या बात पंडा जी, आपके चेहरे पर पूरे रास्ते भर मैं तरह तरह के भाव देखता आ रहा हूँ! जब से हमने गडूगाड़ पार की? दिनेश कंडवाल जी बोल पड़े- किसी की खुद में होंगे बेचारे! ठहाका गूंजा और वह गूंजना स्वाभाविक भी है क्योंकि अगर मैं साथ हूँ तो समझ लीजिये इनका मैं मन बहलाने का खिलौना हुआ! मैं बोला- नहीं ये बात नहीं है दरअसल मैं अतीत के अपने उन खेतों तक पहुँच गया था जो कभी ऐसे ही लहलहाते थे! रतन असवाल बोले- अरे छोड़िये पंडा जी..! इतना क्या सोचना! हम आप सब बर्षों से सोच ही तो रहे हैं! हकीकत में उसे अंजाम देने में कंजूसी करते आ रहे हैं! आप क्या सोच रहे हैं कि हमारे पौड़ी के खेत खलिहान और गाँव ही बंजर पड़ रहे हैं! यहाँ भी वह हवा शुरू हो गयी है क्योंकि राज्य निर्माण के बाद भी इन 18-19 बर्षों में हम अपने पहाड़ के लिए स्वास्थ्य शिक्षा व पेयजल की समुचित व्यवस्था नहीं कर पाए! यहाँ भी पौड़ी जैसा प्रचलन शुरू हो गया है क्योंकि यहाँ भी जिसके पास जरा पैंसा हो रहा है वह विकास नगर या पुरोला में जा बस रहा है! आखिर ऐसा करे भी तो क्यों न करे! सभी को अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने जो देखने हैं! हमारी सरकारें इन बर्षों में इन मूलभूत सुविधाओं को गाँव तक पहुंचाने में नाकामयाब रही हैं ! ऐसे में लोग पलायन न करें तो क्या करें! खेतों के आगे खड़े पेड़ों की टहनियां भी हम चारपत्ती के लिए नहीं काट सकते! कुकाट कहे जाने वाले पेड़ों को भी हम लकड़ी जलाने के काम में नहीं ला सकते! इमारती लकड़ी जंगल में पड़ी पड़ी सड जाय लेकिन हम उसे अपने मकान बनाने में प्रयोग नहीं ला सकते तब पलायन के अलावा हमारे पास चारा ही क्या है!
बिषय गम्भीर था इसलिए सब खामोश हो गए ! उन्होंने गाड़ी बंद की व उतरते हुए बोले- छोड़िये भी बहस करके कोई फायदा नहीं लेकिन प्रयास तो हमें करना ही होगा कि जो गाँव अभी जीवित हैं उनका जीवन ज़िंदा रहे यहाँ हर रोज वही आंगनों के गीत व प्यार प्रेम के अट्टाहास गूंजे! अब तक हम सब देवजानी की सरहद पहुँच चुके थे…! (इस से आगे अगले अंक में)
किस तरह प्रारम्भ हुए यह यात्रा आप भी जानिये –
यह यात्रा भी एक अजब संजोग कही जा सकती है क्योंकि इसमें मेरे शामिल होने की जरा गुंजाइश कम थी क्योंकि मेरा लक्ष्य उत्तरकाशी जिले की यमुना घाटी में आयोजित होने वाले पालीगाड़ के भेड़-बकरियों के मेले में पहुंचना था लेकिन ऐन 15 जून को पूर्व कांग्रेसी प्रवक्ता व समाजसेवी विजय पाल रावत का फोन आता है- “भैजी, जिस मेले की आप बात कर रहे हो वह तो आज कल में है आपको किसने बताया कि वह 19-20 जून को है? आप ऐसा करो कल या परसों निकल पड़ो और सीधे डांडा देवराड़ा आ जाओ यहाँ यमुना घाटी का बिशाल मेला 18 जून को आयोजित है! बर्निगाड से मेरी ससुराल आ जाना यहीं से साथ चलेंगे!”
विजयपाल रावतजी के इस फोन ने उस सारे कार्यक्रम का मटियामेट कर दिया जिसके आधार पर देहरादून की एक कॉफ़ी शॉप में बैठकर आज ही सुबह दुगड्डा से आये अध्यापक व कार्टूनिष्ट मित्र जागेश्वर जोशी जी व पलायन एक चिंतन के संयोजक ठाकुर रतन सिंह असवालजी के साथ यह तय हुआ था कि ठाकुर रतन सिंह असवालजी हम दोनों को बडकोट या नौगाँव में 19 जून को मिलेंगे और हम सब साथ पालीगाड़ के इस मेले में शिरकत करेंगे! क्योंकि ठाकुर रतन असवाल को 17 जून को ही कर्मनाशा यानि टोंस घाटी के कई गाँवों का भ्रमण करना था जिसमें उनका अपना व्यक्तिगत बिजिनेश टूर शामिल था! सच कहूँ तो मैं दोराहे पर खड़ा था कि क्या करूँ? क्योंकि अगर 18 को डांडा देवराडा जातर मेले में शामिल होता हूँ तो फिर 22 तक यहीं रुकना पडेगा क्योंकि 23 को नौगाँव में पांचजन्य के शाशिमोहन रवांल्टाजी के घर “रवाई महोत्सव” की रूप रेखा पर एक बैठक के लिए आमंत्रण था साथ ही इसी दिन इस घाटी के सुप्रसिद्ध लेखक महावीर सिंह रवांल्टा की पुस्तक का भी लोकार्पण था!
अभी इसी जद्दोजहद से बाहर निकलने की सोच ही रहा था कि 16 जून शांयकाल को देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल जी का फोन आता है कि क्या आप हमारे साथ दो तीन दिन के यमुना-तमसा घाटी भ्रमण पर चल रहे हैं! मैं ठाकुर रतन सिंह असवाल जी के साथ जा रहा हूँ! मैंने उन्हें जबाब दिया कि मेरा और जागेश्वर जोशी की योजना तो उनसे 19 जून को मिलने की थी वे अपने पर्सनल बिजनेश टूर पर जा रहे हैं इसलिए पहले उनसे पूछ लीजिये कि उनकी इच्छा मुझे साथ ले जाने की भी है या नहीं क्योंकि मुझे अनुशासन के साथ काम करना नहीं आता और आपको पता है ही कि जब मैं किसी टूर पर निकलता हूँ तब कोशिश करता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा उस क्षेत्र पर शोधपूर्ण लेख लिखूँ ! वे हंसते हुए बोले- हाँ, मैं समझ गया कि आप कहना क्या चाहते हैं! मैं ठाकुर साहब से पूछता हूँ! थोड़ी देर बाद उनका फोन आता है कि आप नौ बजे हमें राजपुर रोड स्थित होटल के बाहर मिलिए ! इस तरह यह यात्रा शुरू हुई..!
पलायन को रोकने का बेह्तर तरीका यह है कि शहरों में जमीन की खरीद प्रोख्त बन्द कर दी जाए सरकार को इसको कुछ समय के लिए बंद कर देना चाहिए । लेखक के आने विचार हैं।