पर्वत क्षेत्र की पोशाकों में झलकती है  पर्वतीय लोक संस्कृति बानगी!

पर्वत क्षेत्र की पोशाकों में झलकती है  पर्वतीय लोक संस्कृति बानगी!

(मनोज इष्टवाल)

अपनी लोक संस्कृति एवं लोक समाज के प्रति इतनी संजीदगी के साथ अपने को प्रस्तुत करने वाले समाज की गिनती इसीलिए शीर्ष पर होती है क्योंकि वे आज भी अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के लिए जिन्दा हैं और ऐसे सामाजिक जनमानस को हम जहाँ एक ओर जनजातीय नाम से जानते हैं वहीँ दूसरी ओर उनके बिशेष पहनावे, खान-खान, गायन, नृत्य व आभूषणों के मध्यनजर बेहद उत्सुकता के साथ देखते व मिलते हैं. शायद इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हम अपनी जड़ें खो चुके हैं और पुन: उन्हीं जड़ों को ढूंढते हुए अपनी मृग-तृष्णा मिटा रहे हैं!

विगत कई सालों से मेरे द्वारा पिथौरागढ़ के विभिन्न क्षेत्रों, चमोली के नीति-माणा, पौड़ी जनपद के राठ क्षेत्र, टिहरी के जौनपुर, देहरादून के जौनसार बावर व उत्तरकाशी के रवाई क्षेत्र की लोक संस्कृति में आये रहे विभिन्न बदलाव को महसूस किया है जो तेजी के साथ भौतिकतावादी रुख अपनाते हुए हम उन लोगों में शामिल होने को छटपटा रहा है जिन्होंने बिगत ४० दशक पूर्व अपनी लोक संस्कृति का ह्रास कर खुद को वहां खडा कर दिया है जहाँ हमारे नौनिहालों के पास संस्कृति के नाम के न लगडे-पतुड़े हैं न पहनावे के त्युन्खा सुलार इत्यादि!

जौनसार बावर सहित जोहार घाटी, नीति-माणा, रवाई, जौनपुर, रुद्रप्रयाग चमोली के कुछ क्षेत्रों में एक ओर जहाँ ग्रामीण व पढ़ी लिखी महिलायें आज भी अपने अतीत की लोक संस्कृति के पारंपरिक आभूषण पोशाक इत्यादि पहनकर अपने समाज का प्रतिनिधित्व करती दीखती हैं वहीँ हमारे पढ़े लिखे समाज के पुरुषों ने तो जैसे इस सब से तिलांजलि दे दी हो. जहाँ हम कैमरा निकाल कर लोक उत्सवों में उन माँ बहनों के फोटो लेने को बेसब्री से खड़े रहते हैं जो अपने पारम्परिक परिधानों आभूषणों में सज संवरकर आती हैं वहीँ पुरुष बर्ग की लापरवाही को देखकर यही सोचते हैं कि काश…इन माँ बहनों के साथ गीतों नृत्यों में शामिल होने वाला यह पुरुष समाज न होता तो कितना अच्छा होता.

विगत दिनों पंचगाई पट्टी जनपद उत्तरकाशी के पर्वत क्षेत्र के दूरस्थ गाँव जखोल में सोमेश्वर की डोली जात्रा में शामिल होकर दिल गदगद हो गया क्योंकि आज भी यहाँ का लोक समाज अपने सांस्कृतिक मूल्यों की उतनी ही कद्र करता है जितनी मैंने १० बर्ष पूर्व पर्वत क्षेत्र के बडासु पट्टी के ओसला,पवाणी, गंगाड, डाटमीर इत्यादि में सखी थी. यह सचमुच बेहद सुखद लगा!

मेरा अनुमान था कि शायद इस क्षेत्र में गरीबी के कारण हो सकता है कि यहाँ का जनमानस शहरों की चकाचौंध से दूर हो लेकिन जब गाँव के हर परिवार से युवाओं को शहरों में पढ़ते देखा! कारें सड़कों के किनारे खडी देखी तब अनुमान लग गया कि यह क्षेत्र न सिर्फ धर्म संस्कृति या लोक संस्कृति के रूप में सभ्रांत है बल्कि यह भौतिक रूप में भी धनबल से पूर्ण रूप से साधन सम्पन्न क्षेत्र है. इस गाँव की खासियत यह रही कि यहाँ जो जितना पढ़ा लिखा या प्रतिष्ठित व्यक्ति दिखा वह उतना हि अपने लोक समाज के सांस्कृतिक मूल्यों से जुडा हुआ दिखाई दिया.

यहाँ पुरुष व महिलाओं के अलावा युवा बर्ग भी अपनी लोक संस्कृति के लिए उतना ही जागरूक लगा. क्योंकि पुरुष भी बढ़-चढ़कर अपनी पारंपरिक पोशाकों में सोमेश्वर देवता की डोली जात्रा में शामिल होते दिखे जोकि लोक संस्कृति हि नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए बेहद सुखद है!

यहाँ की महिलायें कानों में कुंडल या गोखुरू, गले में तिमोणी, नाक में नथ व बुलाक, गले में चंद्राहार, कमर में पेटी, हाथ में पौंछी, सिर में झालर, बालों पर झूटी, कानों में मुर्कियाँ व हाथ में कड़े-धागुले व चूड़ियाँ तथा पुरुष समाज में गहनों के रूप में चांदी के पौराणिक देव मालाएं, ज्कानों में मुर्खुली, हाथों में धागुले इत्यादि पहनते हैं. वहीँ महिलायें परिधान के रूप में मर्दानी, फरजी, सदरी, ढांटूली, ढांटू, पछुडी इत्यादि पहनती हैं जबकि पुरुष टोपी, फरजी,ऊन की काली सूतन, लौखटा (कमरबंद) व कोट इत्यादि पहनते हैं. कमर में बंधने वाली रस्सी जिसे लौखटा कहते हैं उसकी लम्बाई कम से कम 12 मीटर होती है वहीँ महलाओं के कमर में बंधने वाली पटका की लम्बाई अपेक्षाकृत कम होती है.
 

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