परीलोक के तिलिस्म का वह अद्भुत सौन्दर्य व गाथा! जहाँ आज भी वजूद में हैं एड़ी आंछरियाँ मात्रियाँ!
परीलोक के तिलिस्म का वह अद्भुत सौन्दर्य व गाथा! जहाँ आज भी वजूद में हैं एड़ी आंछरियाँ मात्रियाँ!
मनोज इष्टवाल
बात तब समझ आई जब मैंने स्वयम अपनी आँखों से कई देवियों पर अवतरित एड़ी/आछरी/ मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी नामक परियों को नाचते हुए जानवरों की भांति केदार पाती चबाते देखा. तब भ्रम टूटा जब इन्हीं देवियों में से कई को जानवरों की भांति प्रसाद खाते हुए देखा. तब विचलित हुआ जब सरूका की आछरियों के आँख कान बड़े होते देखा और तब होश फाख्ता हुए जब बडकंडा की परियों के अवतरण के समय माँ बहनों (जिन पर ये अवतरित होती हैं) के हाथ पैर व मुंह में फोफले होते देखा.
लेकिन तब विस्मित हुआ जब ये परियां/मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी/एड़ी इत्यादि नामों से संबोधित शांत हुई और सब कुछ सामान्य दिखा. न किसी पर फोफले न किसी के नाक-कान बड़े और न कोई केदार पाती खाता दिखा!
(जखोल गाँव)
यकीनन सोमेश्वर देवता की जखोल से देवक्यार जाने वाली इस जातर (डोली यात्रा) ने वह वहम तोड़ दिया जिसे आज का बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक या फिर स्वयम्भू पुरुष मानने को कतई तैयार नहीं हैं! अगर आपको यह सब देखना ही है तो एक बार वीणासु की देवियाँ/मात्रियाँ, उर्कंडी की मात्रियाँ/देवियाँ, बड कंडा की मात्रियाँ/देवियाँ, रूंगा की मात्रियाँ/ देवियाँ, डोडा की मात्रियाँ/ देवियाँ, लेखा डांडा की मात्रियाँ/देवियाँ, ओबरे की मात्रियाँ देविया, कंडारा की मात्रियाँ/देवियाँ, कातका की मात्रियाँ देविया, बाकरी मार्क मात्रियाँ/देविया (जखोल), नराल्टी की देवियाँ जखोल, बेउरे की मात्रियाँ/देवियाँ जखोल, थारसिंगा की मात्रियाँ/देवियाँ धारा गाँव, घोडेका की मात्रियाँ/देवियाँ पाँव मल्ला व सरू ताल की मात्रियाँ देवियों के साक्षात दर्शन करने 22 गाँव पर्वत क्षेत्र होकर आईये. यकीनन आपका वहम समाप्त हो जाएगा.
जैसे ही आप उत्तराखंड के जनपद उत्तरकाशी की रवाई घाटी में मोरी से आगे नैटवाड़ क्षेत्र में दाखिल होते हैं जहाँ से रुपिन सुपिन का संगम शुरू होता है तब आप खुद ही महसूस करेंगे कि आप एक अलग लोक की घाटी में पहुँच गए हैं. बस यहीं से हिमाचल प्रदेश से सीमाएं बांटता वह पर्वत क्षेत्र है जिसके 22 गाँव परवत कहे जाते हैं जबकि इसी में सम्मिलित बडासू पट्टी व पट्टी पंचगईं भी सम्मिलित मानी जाती है. सांकरी से लगभग एक किमी. पहले एक सड़क पाँव जखोल होती हुई फिताड़ी निकलती है जबकि दूसरी सड़क सांकरी से तालुका में समाप्त हो जाती है. तालिका से बडासू पट्टी के डाटमीर, धारकोट, गंगाड, पवाणी, ओसला होकर एक ट्रेक रूट हर की दून निकलता है जो लगभग 35 से 40 किमी. का ट्रेक रूट माना जाता है जबकि दूसरी ओर जखोल गाँव से विणासू, भराड़सर, देवक्यार, लिवाड़ी, सरू ताल सहित अनेकों ट्रेक रूट हैं जो आपको सौन्दर्य से लवरेज मखमली बुग्यालों की सैर कराते हैं.
(देबक्यार बुग्याल का नजदीकी हिमालयी श्रृंखला)
12 बर्ष बाद विगत 7 जून से 12 जून तक जखोल से देवक्यार तक 37 किमी. की सोमेश्वर देवता डोली यात्रा जोकि इस हिमालयी क्षेत्र के कई बुग्यालों को पार कर पैदल निकलती है में सम्मिलित होना मेरे लिए बेहद अनूठा अनुभव रहा जिसका वर्णन मेरे द्वारा अपने यात्रा वृत्त के माध्यम से लगातार मिलता रहेगा लेकिन एड़ी/आछरी/ मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी नाम से प्रसिद्ध इन देवियों की गाथा वास्तव में आप में रोमांच पैदा करने के साथ आपके रोंगटे भी खड़े कर देती है.
जखोल क्षेत्र की क्षेत्र पंचायत सदस्य श्रीमती मीना रावत से जब इस बारे में मेरे द्वारा जानकारी ली गयी तब कई रोमांचक बातें सामने आई हैं. उन्होंने बताया कि वीणासू की मात्रियाँ जोकि सटूडी गाँव में हैं व जखोल से रुपिन नदी पार 7 किमी की दूरी पर हैं सबसे ज्यादा दयावान व इच्छापूर्ती करने वाली मात्रियाँ मानी जाती हैं बशर्ते उनकी पूजा पाठ नियमित समय पर हो ये मात्रियाँ जिसके लिए फलदायी होती हैं तो छप्पर फाड़ कर देने वाली हैं लेकिन रुष्ट होने पर दंड भी उसी तरीके से देती हैं. जबकि जखोल की सरहद में ही जखोल गाँव से लगभग तीन किमी की दूरी पर स्थित सरूताल की मात्रियाँ जिन्हें स्थानीय भाषा में सरुका की मात्रियाँ कहा जाता है. जिस पर अपनी छाया डालती हैं उसकी आँखें बड़ी व विकराल हो जाती हैं कान बड़े हो जाते हैं एवं दोनों से पीप बहना शुरू हो जाता है तब समझ आता है कि ये सरुका कीमात्रियाँ हैं. भले ही ये मात्रियाँ मदमास नहीं खाती लेकिन इनके वीरों के लिए फिर भी बकरे या मेंडे की बलि दी जाती है.
(सरू ताल जखोल गाँव)
उत्तरकाशी जिले में यह तीसरा सरू ताल है जिसका मैं भ्रमण कर चूका हूँ. मुख्यत: इस से पूर्व सर बडियार (8 गाँव बडियार) के ऊपर पहला सरू ताल है जिसमें प्रत्येक बर्ष सरनौल क्षेत्र व सरू बडियार से भाद्रपद मॉस में पदयात्रा निकलती है व क्षेत्रीय ग्रामीण सरुताल तक ट्रेक कर वहां के जल से स्नान करते हैं. अब उत्तराखंड सरकार ने सरनौल वन प्रभाग के निकट से लगभग डेढ़ करोड़ की धनराशी से इस पैदल मार्ग को बनाया है.
दूसरा सरू ताल बंगाण क्षेत्र के बलावट मौन्डा से लगभग 24 किमी. पैदल मार्ग पर हिमाचल सीमा से लगा हुआ है जिसे चाईशिल बुग्याल का दिल समझा जाता है व उत्तराखंड सरकार ने ट्रेक ऑफ़ द इयर 2017 घोषित किया है. और तीसरा ताल अब पर्वत क्षेत्र के जखोल गाँव की सीमा में जखोल के फारेस्ट बंगले से लगभग 3 किमी. दूरी पर स्थित है. गजब तो ये है कि तीनों ही ताल एड़ी/आछरी/ मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी के मिथक से जुड़े हैं.
उर्कंडी बुग्याल जहाँ भेडालों (भेड़- बकरी चुगाने वालों) का स्वर्ग माना जाता है वहीँ यहाँ की मात्रियाँ लाटी/ गूंगी मानी जाती हैं. भेडाल इन्हें ही पूजते हैं व ये मात्रियाँ उनकी व उनके भेड़ बकरियों की पूरे 6माह हिमालयी बुग्यालों में रक्षा करते हैं.
जखोल क्षेत्र के बडकंडा की मात्रियाँ शुद्ध शाकाहारी एड़ी/आछरी/ मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी मानी जाती हैं. ये रथ पर चलती हैं व हीरा/कस्तूरा अपने पास रखती हैं! जिस पर ये मात्रियाँ अवतरित होती हैं उसके पूरे बदन में बड़े बड़े फोफले पैदा करती हैं और अगर समय रहते पूजा नहीं दी गयी तो कुष्ठ रोग पैदा कर देती हैं. इन्हें ज्यादातर शिकारी लोग प्रसन्न करते हैं ताकि उन्हें कस्तूरा मिल जाय बिना इन्हें प्रसन्न किये कोई शिकारी इस बुग्याल क्षेत्र में कदम भी नहीं रख सकता.
जखोल क्षेत्र में ही पड़ने वाले रूंगा बुग्याल में भी मात्रियाँ हैं जिनकी पूजा हल्दी आते व सोने चांदी के टीके उड़ाकर भी की जाती है. ये मात्रियाँ बहुदा शांत चित्त होती हैं और जब अवतरित होती हैं तब या तो हंसती ही रहती हैं या फिर रोती रहती हैं.
डोडा की मात्रियाँ कहलाने वाली ये मात्रियाँ डोडाक्वार बुग्याल या उसके आस-पास के क्षेत्र में पाई जाती हैं. इन्हें प्यासी मात्रियाँ माना गया है जो प्यास बुझाने के लिए बस केदार पाती ही चबाती रहती हैं. क्षेत्रीय लोग इनके ऊपर जल या दूध छिडककर इन्हें शांत करते हैं.
इसके अलावा ओबरे बुग्याल व लेखा डांडा की मात्रियों के बारे में कहा गया है कि इन्हें पूजा मिलने पर ऐ अक्सर शांत हो जाती हैं. ये जखोल क्षेत्र की ही मात्रियाँ गिनी जाती हैं. जबकि ओसला के कंडारा की मात्रियाँ बेहद प्रसिद्ध हैं कंडारा का मंदिर जोकि ओसला से हर की दून जाते आपको दिखाई देगा की मात्रियाँ इस क्षेत्र की बहुत प्रसिद्ध देवियाँ मानी गयी हैं. कंडारा की परियों को हर की दून के काले पर्वत पर रहने वाली एड़ी/आछरी से जोड़कर देखा जाता है जो ओसला के हरपु बाजगी को ढोल सहित उठाकर काले पर्वत पर ले गयी थी जिसे आज भी हरपु शिखर के नाम से पुकारा जाता है.
(जखोल के सोमेश्वर मंदिर प्रांगण में अवतरित मातृकाएं)
सबसे ज्यादा खतरनाक कातका की मात्रियाँ मानी गयी हैं जो लिवाड़ी क्षेत्र के वन प्रदेश के बुग्यालों में विचरण करती हैं. इनके बारे में जानकारी मिली है कि ये पुजारी को ही अपने साथ उड़ा ले गयी और इन्हें रक्त पिचाशिनी के नाम से भी जाना जाता है ये हमेशा खून की प्यासी मानी जाती हैं. इनका क्षेत्र बिशेषत: लिवाड़ी, फिताड़ी, कासला, राला व रेक्सा गाँवों का पर्वतीय क्षेत्र माना गया है.
(जखोल के सोमेश्वर मंदिर प्रांगण में अवतरित मातृकाएं)
एड़ी/आछरी/ मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी सहित दर्जनों नाम से जानी जाने वाली इन देवी स्वरुपा परियों की पूजा इस क्षेत्र के लोग अक्सर सावन, बैशाख व मंगशीर माह में होती है. यहाँ के लोगों का मत है कि अगर ये देवियाँ किसी पर प्रसन्न हो जाती हैं तो उसके घर का भंडार भर देती हैं और रुष्ठ होने पर ये ठीक इसका उलटा करती हैं इसलिए इन्हें सब खुश रखकर इस क्षेत्र में देवियों के सामान पूजते हैं जबकि गढ़वाल के अन्य क्षेत्रों में इन्हें डोली गुड्डी पूजा करके शरीर मुक्त किया जाता है. सरू का ताल में परियों को चढ़ाया गया श्रृंगार यत्र तत्र मिल जाएगा साथ ही उनके खान बनाने के वर्तन भी!
(जखोल के सोमेश्वर मंदिर प्रांगण में अवतरित मातृकाएं)
इन बुग्यालों व तालों में आज भी आपको दिखने को मिलेंगी निम्नवत वस्तुवें! ध्यान रखिये इन्हें छूने या खाने से पहले इन आछरी/ मातरि या परियों की इजाजत लेनी जरुरी है. और यदि आपके पास कोई खाने पीने की वस्तु है तो उसका एक छोटा सा हिस्सा खाने से पहले इन्हें समर्पित करें. उच्च हिमालयी क्षेत्र में बदन पर परफ्यूम का छिडकाव न करें!
1-यहाँ दिखेंगी आपको दीवारों ऊँची चट्टानों पर उल्टी ओखल,
2- यहाँ मिलेगी लहसुन की खेती.
3- अखरोट के बागान (पीड़ी पर्वत)
4- गर्भ जोन गुफायें जिनका आदि न अंत.
5- चौखुडू चौन्तुरु (जहाँ आंछरियाँ नृत्य कला का प्रदर्शन करती हैं व खेल खेलती हैं.
6- भूलभुलैय्या गुफा जहाँ नाग आकृतियाँ उकेरी हुई हैं.
7- नैर-थुनैर नामक दो वृक्ष जिसके पत्तों से महकती है अजीबोगरीब खुशबु.
कहीं ये वही ऐडि-आंछरी/ योगिनियाँ/रणपिचासनियाँ तो नहीं जो जिन्होंने अंधकासुर दैन्त्य बिनाश में महादेव कैलाशपति का साथ दिया था और कुछ कैलाश जाने की जगह यहीं छूट गयी थी. कहीं ये वही कृत्या सुकेश्वरी नामक योग्निया/परियां तो नहीं जिन्होंने दैन्त्यों के रक्त से अपनी भूख मिटाई थी.लेकिन ध्यान रहे इन बुग्यालों में चिल्लाना, चटक कपडे पहनना, बेवजह वाद यंत्र बजाना, प्रकृति विपरीत कार्य करना पूर्णत: प्रतिबंधित है. इसलिए वही चले जो तीन दिन तक नियम संयम व बिना शराब कबाब शबाब के रह सके.