पद्मश्री …..। यूँही हर कोई प्रीतम भरतवाण नहीं बन जाता।
(मनोज इष्टवाल)
अभी दो या तीन दिन पहले की ही तो बात है जब मुझे सोशल साइट फेसबुक में जागर सम्राट पद्मश्री प्रीतम भरतवाण का एक वीडियो वायरल दिखा जिसमें बॉलीवुड अभिनेत्री दिया मिर्जा उनका साक्षात्कार गढवाळी खानपान से जोड़कर लेती दिखाई दी। मुझे लगा कि देखिए पद्मश्री होने के बाद हमारी संस्कृति की जड़ें न सिर्फ मुम्बई तक बल्कि देश दुनिया तक पहुंच गई हैं। सबसे खूबसूरती जो इस साक्षात्कार की लगी वह भादो मास में जौनपुर टिहरी गढ़वाल की दुबड़ी से जुड़ा प्रीतम भरतवाण का गीत है। फौरन फोन उठाया व प्रीतम भरतवाण जी को शुभकामनाएं देने लगा। सहृदयी प्रीतम जी बोले- भैजी ये तो 2015 का साक्षात्कार है। मेरे मुंह से निकल पड़ा- अरे मैं तो सोचा पदमश्री बनने के बाद….!

बात यहीं समाप्त हो जाती तो अलग बात थी। बात तो यह है कि पद्मश्री से लगभग 4-5 बर्ष पूर्व ही जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण ने अपने आप को इतना स्थापित कर दिया था कि बॉलीवुड के सितारे तक पूछ बैठे कि आपकी रजा क्या है।
मास्टर सैफ अरविंद नेगी के गढवाळी व्यंजनों के प्रमोशन में जिस तरह अभिनेत्री दिया मिर्जा ने प्रीतम भरतवाण की लोकगायिकी को चुनौती देते हुए प्रश्न किया था कि गढवाळी खान-पान पर कोई गीत सुनाइये तो उसका जबाब भी दिया मिर्जा को उसी खूबसूरती से मिला।
जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण जिस तरह अपने लोक के गुणगान में अपने कंठ के अंदर की कण-क्षण-मुर्कियों का इस्तेमाल करते हैं वह सचमुच अद्भुत व अप्रितम है। उन्होंने मुम्बई में भी सदा नीरा यमुना के आंचल में बसे अपने जौनपुर की दुबड़ी को मशहूर बना दिया।
आम पाठक या लेखक के लिए दुबड़ी क्या है यह जानना जरा मुश्किल कार्य है लेकिन मेरे लिए इसलिए नहीं क्योंकि मैंने भी प्रीतम भरतवाण की तरह उत्तराखंड की लोकसंस्कृति को सिर्फ जिया नहीं है बल्कि अंगीकार किया है। यह वह दौर था जब मैं इस सदी के प्रथम दशक में जौनसार की लोकसंस्कृति पर कार्य कर रहा था उसी दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि कोरु खत्त के ग्राम मुंदान में दुबड़ी का त्यौहार है। यह दुबड़ी जौनसार बावर के इकलौते गांव मुंदान में मनाई जाती है अन्य किसी जगह नहीं। उत्सुकता शांत करने जब इस गांव पहुँचा था तब पाया था कि इस गांव के जोशी बन्धु पंचायती आंगन भवन देवता के मंदिर के पास अपने खेतों में पक रही अन्न की बालियां, कखडी, सब्जियां फल इत्यादि एक झाड़ी नुमा देवता को समर्पित कर रहे हैं। पूछने पर पता चला कि इस गांव के बाशिंदे पूर्व में यमुना पार जौनपुर से आकर यहां बसे तो साथ ही अपनी रीति-रिवाज व धार्मिक परम्पराएं लेकर यहां आए हैं।
जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण ने मेरे इस कथ्य को फिल्टर करवाते हुए कहा कि यह त्यौहार मात्र जौनपुर का नहीं बल्कि सम्पूर्ण उत्तराखंड में विभिन्न नामों से मनाया जाता है क्योंकि कहीं इसे दुबड़ी कहते हैं तो कहीं इसे दुर्वाष्टमी के नाम से जाना जाता है। कुमाऊँ में ऐसा ही त्यौहार भेटुली होता है। जो बेटियों के मायके आने या फिर उन्हें मायके की याद सौगात दिलाने के रूप में प्रचलन में हैं। हमें अपनी जड़ों से कोई जोड़े न जोड़े लेकिन गांव की दिशा-ध्याण पूरे विश्व में कहीं भी हों अपनी जन्मभूमि के प्रति सबसे अधिम अगाध प्रेम करती हैं। यही कारण भी है कि इन्हें माँ दुर्गा, माँ नन्दा स्वरूपा कहा व समझा जाता है और जब तक इन माँ बहनों में अपनी थाती-माटी का अगाध प्रेम प्यार है तब तक हमारी पुरातन लोकसंस्कृति हमारे आगे पीछे हमारे साथ बढ़ती ही रहेगी।
जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण के गीत इस गीत ने जहां भादो मास की दुबड़ी को गढवाळी खान-पान से जोड़ते हुए उसका अद्भुत लोकव्याख्यान किया वहीं दुबड़ी जिस चीज की बनती है उसका बहुत खूबसूरती से उल्लेख भी कर दिया। यह दुबड़ी भंगेला अर्थात भांग पेड़ के तनों से तैयार की जाती है जिसका मकसद सभी प्रकार के खेतों से प्राप्त विभिन्न अन्न को मुंह में रखने से पहले उसकी पूजा की जाती है जिसे स्थानीय भाषा में भिरसु कहा जाता है। तदोपरान्त स्थानीय देवता की धुंयाल के बाद घर में पके पकवान देवता को चढ़ाए जाते हैं व फिर नए अन्न को ग्रहण करने की यहां एक लोक परम्पररा है।
इतना विस्तृत इस सम्वन्ध मेंअभिनेत्री दिया मिर्जा समझ पाई होंगी या नहीं लेकिन प्रीतम भरतवाण जैसे विलक्षण व्यक्तित्व ने देश दुनिया को अपनी पुरातन सभ्यता को गीत में ढालकर साफ कर दिया कि अन्न ग्रहण से पूर्व उत्तराखण्डी समाज की एक स्वस्थ्य परम्परा यह रही है कि वह अन्न की पूजा करें।
जौनपुर में इसे दुबड़ी के नाम से भले ही बड़ा प्लेटफॉर्म एक त्यौहार के रूप में मिला हो लेकिन पूरे गढ़वाल मंडल में भी एक चलन यह सदियों से था कि गेंहूँ की बाल पकने के बाद या सरसों की बाल पकने के बाद गेंहूँ के आटे का पहला भोग स्थानीय देवता को चढ़ता था साथ ही सरसों का पहला तेल भी स्थानीय देवता के दीपक जलाने के रूप में प्रयुक्त होता था। अब सामाजिक बिसंगतियों के चलते हम अपनी धरोहरों को संजोने रखने में बहुत पिछड़ गए हैं क्योंकि हमने इनका दस्तावेजीकरण नहीं किया और ना ही आने वाली पीढ़ी के लिए अपनी लोकपरम्पराओं को सजग बनाये रखने का यत्न किया ताकि वर्तमान पीढ़ी अन्न पूजा जैसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान से जुड़ सकती लेकिन पदमश्री प्रीतम भरतवाण ने जिस तरह यमुना घाटी के जौनपुर की दुबड़ी को गढवाळी खानपान से जोड़कर एक साथ अभिनेत्री दिया मिर्जा के आगे परोसा वह अतुलनीय है क्योंकि उन्होंने गढवाळी खानपान को सिर्फ एक खानपान से जोड़कर नहीं बल्कि उसकी उत्पत्ति को अंगीकार करने के अनुष्ठान से जोड़कर उस भोजन मंत्र की कड़ी जिसमें कहा गया है “अन्नो वतां मामिक्ष्म वतां…!” की मजबूती से पैरोकारी कर यह बताने की कोशिश की है कि हिन्दू सनातन परम्पराएं कितनी मजबूत हैं।
पद्मश्री प्रीतम भरतवाण बताते हैं कि अभिनेत्री दिया मिर्जा ने यह साक्षात्कार उनका नवम्बर 2015 के आस-पास लिया है जिसे कुछ दिन पहले उन्होंने यूँही सोशल साइट पर अपलोड कर दिया था। यह विस्तृत तो लगभग आधे घण्टे के आस पास है लेकिन उसकी एक क्लिप मात्र ही मैंने अपलोड की है। उन्हें इस बात की ज्यादा खुशी है कि अभिनेत्री दिया मिर्जा ने न सिर्फ़ हमारे गढवाळी पकवानों के मास्टर सैफ अरविंद नेगी के पकवानों को देखा है बल्कि उन्होंने स्वाले, झंगोरे की खीर, पत्यूड़ इत्यादि खाये व उनकी प्रशंसा भी की है। प्रीतम भरतवाण को लगता है कि हम अपने पकवानों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं दे पा रहे हैं। उनकी टीस है कि हमारे पकवान दक्षिण भारतीय पकवान इडली, डोसा, सांभर बड़ा या पंजाबी खाना मकई की रोटी सरसों के साग से आगे पहुंचे। उन्हें इस बात का ऐतराज नहीं कि लोग चाइनीज फ़ूड पसन्द कर रहे हैं बल्कि इस बात का मलाल है कि इन भोजनों में सबसे ज्यादा पौष्टिक गढवाळी व्यंजन हैं फिर भी प्रस्तिष्पर्दा के बाजार में हम बहुत पीछे हैं।
उन्होंंने भाद्रपद मास को अन्न व कृष्ण जन्म से जोड़कर देश दुनिया के समक्ष रखकर यह साबित तो कर ही दिया है कि यूँहीं हमारी जन्मभूमि को देवभूमि नहीं कहा जाता क्योंकि यहां जन्म से मरण तक सृष्टि के तृण-कण से लेकर हर उपादान की पूजा विधि है जिसके रक्षक 33 कोटि देवता हैं। इसीलिए तो कहता हूं कि यूँहीं कोई प्रीतम भरतवाण नहीं बन जाता या यूँहीं कोई पद्मश्री नहीं कहलाता।