पद्मश्री प्रीतम भरतवाण ….पदम से लेकर पद्मश्री तक का सफर!
(मनोज इष्टवाल)

क्या आम मान सकते हैं कि रंगकर्मियों, साहित्यकारों व लोककलाकारों का एक हुजूम लगभग सवा चार घंटे तक किसी का इन्तजार करता रह सकता है! सच पूछिए तो यह वह विरादरी है जो इतनी देर बिना स्वार्थ किसी का भी इन्तजार न करे! लेकिन यहाँ सिर्फ इन्तजार ही नहीं हुआ बल्कि इस ब्यक्तित्व के इन्तजार में महफ़िल ही जम गयी और गीतों की सिलसिलेवार जो शुरुआत हुई उसका पता तक न चला कि कब सवा चार घंटे गुजर गए! यह व्यक्ति या व्यक्तित्व कोई और नहीं बल्कि जागर सम्राट के नाम से सुप्रसिद्ध डॉ. प्रीतम भरतवाण हुए!
उफतारा के अध्यक्ष चन्द्रवीर गायत्री द्वारा बताया गया कि पद्मश्री प्राप्त करने के पश्चात डॉ. प्रीतम भरतवाण रंगकर्मी गंभीर सिंह ज्याड़ा के घर आ रहे हैं अत: जितने भी हम इस विरादरी से जुड़े लोग थे उनके स्वागत के लिए गंभीर जयाड़ा के घर जा पहुंचे! कलाकार भला कहाँ अपने को रोकने वाले हुए ! एक तो कलाकार उपर से होली का शरूर..! चंद पलों में तबला हारमोनियम आ गयी और शुरू हो गयी महफ़िल! तब भला किसको चिंता थी कि डॉ. प्रीतम भरतवाण अभी आयेंगे या तभी आयेंगे!

लोक गायिकाओं की श्रेणी में शामिल माने जाने वाली श्रीमती मंजू सुंदरियाल ने गणेश वन्दना से शुरू किया और गीतों की यह रमछोल उनसे गुजरती हुई सुप्रसिद्ध गायक जितेन्द्र पंवार, नवोदित गायक अमन, सुप्रसिद्ध कलाकार महितोश मैठाणी, एम एस पठोई से गुजरती हुई चन्द्रवीर गायत्री के कंठों तक जा पहुंची! इस दौरान चाय पकोड़ों से महफ़िल सुसज्जित रही और कलाकार, रंगकर्मी, आस-पडोसी सब महफ़िल में अलमस्त!
मेरी घड़ी पर नजर पड़ी तो पाया साढ़े चार होने को हैं! समाजसेवी व जौनसार बावर क्षेत्र के क्षेत्र पंचायत सदस्य इंद्र सिंह नेगी बोले- अरे भाई, जरा पता तो करो कहाँ रह गए! मुझे लगा सचमुच हमने सवा चार घंटे डॉ. प्रीतम भरतवाण के इन्तजार में गुजार दिए! अंदर का पत्रकार जाग गया और मैंने फोन मिलाया तो पता चला भरतवाणजी तो कब से जीतू पंवार के घर विराजमान हैं व बैठकर वहां महफ़िल सजाये हैं! जब उन्हें इस बात का ज्ञान हुआ कि हम सब जयाड़ा जी के घर उनका इन्तजार कर रहे हैं तब वे फ़ौरन बोल पड़े- इष्टवाल जी, मैं तो बेटी की शादी के कार्ड बाँट रहा हूँ ! अरे मुझे नहीं पता था कि मेरा जयाड़ा भाई के घर इन्तजार हो रहा है! बस फ़ौरन पहुँच रहे हैं!

उनका यह कहना क्या था कि अब सबके हाथों में फूल मालाएं आ गई, फूलों के गुलदस्ते हाथों में उठाये माँ बहनें व लोक कलाकार सब सडक पर आ गए! थोड़ी देर में ही सुप्रसिद्ध संगीतकार संजय कुमोला के साथ डॉ. प्रीतम भरतवाण प्रकट हुए और ये सब तैयारियां देख हतप्रभ रह गए! वे बेहद सज्जनता के साथ बोले- माफ़ी चाहूँगा मुझे जरा भी इल्म नहीं था कि मेरा यहाँ ऐसा इन्तजार हो रहा है! मैं तो बेटी की शादी के कार्ड बांटने को निकला था! ऐसे में भला कौन उनके कंठों से निकले शब्दों को सुनता! यहाँ तो उनके कंठों के उन सुरों को सजाने के लिए मालाओं में प्रतियोगिता चल रही थी कि कौन लपककर उनके गले का हार बने! गुलदस्तों में प्रस्तिस्पर्दा थी कि कौन उन जादुई अँगुलियों में पहले पहुंचे जिनमें जब गजाबल प्रकट होता है और ढोल काँधे में हो तब दांयी पूड़ा (गद्दी) पर गजाबल और बायीं पूड़ा पार्वती पर घूर से उभरने वाले ॐ के मिश्रण से उत्पन्न ध्वनि ओंकार बनकर नभ को छू लेती है! शायद इसीलिए फूलों में भी ऐसी प्रस्तिस्प्रदा थी कि पहले मैं उन हाथों तक पहुंचूं या पहले मैं उस गले तक पहुंचूं जिसमें चैत्र मास की फुलारी, फूलदेई के सजे मुखार बिंदु चैती या सैदेई के कण फूटकर छटा में बिखरते हैं! जिन हाथों में गजाबल आते ही गले में टंगे ब्रह्मनाद ढोल से उत्पन्न पैसारा ऋतु बसंत के आगमन का स्वागत करता है!

फूलों से लकदक डॉ. प्रीतम भरतवाण जब स्वागत कक्ष में दाखिल हुए तब उन्होंने उसी अनुनय से सबका हाथ जोड़कर स्वागत किया जिस अनुनय से वह माँ राज राजेश्वरी, चन्द्रबनी, या अन्य देवी देवताओं का स्मरण करते हैं! यही तो उनका गुण है जो उन्हें महान बनाए रखता है! डॉ. प्रीतम भरतवाण के स्वभाव में कभी कोई घमंड फूटा हो ऐसा मैंने कभी नहीं देखा ! सोच रहा था कि जातिगत छोटे कुल में जन्मे इस व्यक्ति को अब पद्मश्री सम्मान से नवाजा जा चुका है, अब कहीं तो वह घमंड स्फुटित होगा जो अब तक कभी इस चेहरे पर नहीं दिखा था लेकिन यह व्यक्ति वह सागर है जहाँ जाने कितने रत्न उसके गर्भी में छुपे हैं! प्रीतम में लेशमात्र भी कहीं अंतर नहीं दिखाई दिया ! यह ऐसे पेड़ दिखे जो फलों से लर्र-तर्र बस श्रृष्टि के नियमों के साथ आपके समक्ष झुकते ही चले गए और इस झुकाव ने उन्हें इतना महान बना दिया कि वे जागर सम्राट नहीं बल्कि हम सबके हृदय सम्राट बन गए!
मुझे आभास है कि ऊपर लिखे एक शब्द पर कई पाठकों को आपत्ति हो सकती है क्योंकि मैंने एक जगह डॉ. प्रीतम के संबोधन पर “कुल” शब्द को परिभाषित करने का दुस्साहस किया है! दरअसल यह शब्द शब्द गरिमा के आधार पर भले ही बेहद निर्लज लगे लेकिन समाज के लिए एक आइना है और यह आइना हम सबके लिए है जो धर्म जाति कुल के आधार पर अपने व्यवहारिक जीवन को परिभाषित करने की चेष्टा करते हैं! मेरा मानना है कि आदमी गुणों से ऊँचा बनता है न कि ऊँचे कुल में जन्म लेने मात्र से..! डॉ. प्रीतम कई मंचों से जब यह कहते हैं कि ” हम त माँ सुरकंडा का दास /औजी छाँ” तब उनका कद घटता नहीं है बल्कि सबकी नजर में और ऊँचा हो उठता है, क्योंकि वे समाजिक आईने का मोल बखूबी जानते हैं और यह भी जानते हैं कि जिस कला में उनके पुरखों ने उन्हें पारंगता दी है उसके साथ बेहद न्यायप्रिय होकर काम करने से ही वे अन्धकार से ओंकार की ओर वैसे ही बढे हैं जैसे श्रृष्टि संरचना में ढोल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है! यही वह ढोल है जो उस संक्रमणकाल में उन्होंने अपने गले में ढोया जिस काल में उनकी वृत्ति विरादरी के लोग उसे काँधे से उतार फैंके थे! फिर्त्ति विरादरी के लोग लोप हो गए थे!
प्रीतम के इस अतुलनीय साहस से वृत्ति विरादरी के लोगों के कंधों पर ही पुनः ढोल नहीं सजा बल्कि इसकी गमक देवभूमि उत्तराखंड से साथ समुद्र पार अंग्रेजों के कानों तक जा पहुंची जिसकी कुंडलिकाओं की तनी के कसाव ने यह ढोल हर जाति के काँधे पर स्वाभिमान के साथ विराजमान कर दिया जबकि फिर्त्ति समाज बहुत पीछे पिछड़ गया! हो सकता है भविष्य में उस समाज में भी कोई प्रीतम भरतवाण जैसा सल्ली पैदा हो जो फिर से ढोलक व घुन्घुरुओं के बीच फाल्गुन चैत्र में बसंत के स्वागत को तत्पर होकर राधाखंडी में सैदेई गाये- ” हांजी रंचणा त रंचे हांजी रंचणा त रंचेयाले हरी गोबिन्दा हे रामा कैन रंचे सकल संसार भै हो हाँ हो सकल संसार भै हो…!” या फिर चैती गीत “धौली का किनरा क्या फूल च, अन्मानी भाँती कु क्या फूल च!”
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि उत्तराखंड में देव कार्यों में पदम् वृक्ष (पंय्या) का सबसे बड़ा महत्व है ! अक्सर देवताओं के थान में भी पदम वृक्ष पाए जाते हैं! ज्योत जलाने के लिए भी जौ तिल व पंय्यासुर पाथी की आवश्यकता होती है जिसकी शुरुआत बावन गढ़ के एक छत्र राजा अजयपाल ने पंद्रहवीं सदी में की थी और जिसे नाम दिया गया था “अजयपाल को धर्मपाथो” ! उसी पद्म की जाने डॉ. प्रीतम भरतवाण व उनके पुरखों ने कितने देवकार्यों में जोत जलाई होगी! इसी पदम् ने जाने कितनी होलिकाओं के ध्वज का काम किया होगा! जाने कितने भक्तप्रह्लादों की अग्नि परीक्षा ली होगी! इसी पंय्यासुर पाथी में जाने कितनो ने अपने शत की परीक्षा दी होगी! और इसी पदम ने पदम की जड़ में जन्में ढोल के मर्मज्ञ प्रीतम भरतवाण के अतुलनीय योगदान के लिए पद्मविभूषित किया जिसकी जोत में जाने उन्होंने कितनी बार ढोल, हुडका, डोंर से देवभूमि हिमालय के देवों को जागृत कर धर्मधाद लगाई है!
बहरहाल गम्भीर सिंह जयाडा के घर पर स्वागत के लिए जमे संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी, लोक कलाकार, फिल्म विधा से जुड़े लोग, साहित्कार, समाजसेवियों जो स्वागत आदर इस व्यक्तित्व को उनके अतुलनीय योगदान के लिए दिया वह हृदय से निकला वह सम्मान है जिसमें स्वार्थ का कहीं कोई भाव नहीं था! सबकी आँखों में वह आत्मसम्मान था मानों डॉ. प्रीतम भरतवाण नहीं बल्कि वे पद्म विभूषित होकर लौटे हों!