पत्रकारिता दिवस पर बिशेष -बढती चुनौतियों के साथ घटता पत्रकारिता का स्तर!

पत्रकारिता दिवस पर बिशेष -बढती चुनौतियों के साथ घटता पत्रकारिता का स्तर!

सम्पादकीय
पत्रकारिता को शुरू हुए हिन्दुस्तान में यह तीसरी सदी है और इन तीन सदियों में मीडिया की यह हालत हुई है कि इन्हें त्रिकालदर्शी समझा जाने लगा है. इस सदी के प्रारम्भ से ही पत्रकारिता का जो ह्रास हुआ है जो उसका ग्राफ़ गिरा है वह बेहद सोचनीय है. यहाँ लोक समाज विभिन्न मुद्दों से गायब हो गया है सिर्फ चारण की भूमिका निभाते देश के लगभग 80 प्रतिशत मीडिया हाउस ऐसी मंडी बन गए हैं जो धड़ी के हिसाब से ख़बरों की बोली चिल्ला-चिल्लाकर लगाते सुनाई देंगे.
वो तो शुक्र है कि सोशल मीडिया ने वक्त रहते कदम ताल शुरू कर दिया है और जो पत्रकार इन बणिया हाउस की नौकरी बजाकर अपने परिवार का जीवन यापन उन्हीं के आधार पर पर रहे हैं वे सोशल मीडिया में अपनी खुन्नस मिटाकर पत्रकारिता का दम ख़म बचाए रखने के लिए तत्पर व तैयार दिख रहे हैं.
पत्रकारिता में जब से टीवी चैनल्स की पत्रकारिता शामिल हुई तब से पत्रकारिता मर ही गयी. मीडिया हाउस अपने क्षेत्रीय पत्रकारों के रूप में ऐसे दलाल ढूंढती है जिन्हें सिर्फ और सिर्फ सेटिंग गेटिंग की महारथ होती है उन्हें पत्रकारिता से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता. खुली लूट और खुली छूट में ये मीडिया हाउस कहते हैं –फूंकनी (माइक आईडी) ले जाओ बदले में कुछ दे जाओ. वेतन की कोई बात नहीं जितना कमाओ हमको भी खिलाओ. फिर चाहिए क्या ..! जो कल तक विभिन्न दलालियों में लिप्त थे अब इसी पत्रकारिता में कोई ठेकेदारी चमका रहा है कोई टेंडर दिलवा रहा है कोई नौकरी, ट्रांसफर व कोई किसी की नब्ज टटोलकर उसे ब्लैकमेल कर अपना चरखा चला रहा है.
पत्रकारिता की इन दुकानों से जन मानस इतना उकता एवं घबरा गया है कि वे अपनी बात भले ही पुलिस के आगे रख दें लेकिन पत्रकारों तक पहुंचाने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही है. क्योंकि आज के युग का वह 80 प्रतिशत पत्रकार पहले तो पत्रकारिता की “प” नहीं जानता उपर से ऐसा लुटेरा है कि लोगों में इस नाम की दहशत सी बन गयी है. मीडिया की ऐसी बेपनाह मंडियों ने इस चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले शब्द के ऐसे बाजे बजा दिए हैं कि हम वह सब आदर आम जनता के बीच खो चुके हैं जिसे देखने के लिए आम जन फलक फावड़े बिछाए रहता था.
इसीलिए पत्रकारिता के एक ऐसे युग जिसे स्वर्णिम कहा जा सकता है का अंत दिखाई देने लगा है. अखबारों व टीवी चैनलों की गिरती साख ने पत्रकारिता को अब ई युग से जोड़ दिया है. लोग स्वयं अपने ब्लॉग लिखकर पत्रकारिता की उस शून्यता को मिटा रहे हैं जिसे आज भी मीडिया हाउस आँखों पर पट्टी बांधे देख नहीं पा रहे हैं. वह दिन दूर नहीं जब पत्रकारिता के सारे फ़ॉर्मेट “ई’ में ही सिमटकर रह जायेगें शायद तब ऐसी दलाली की दुकाने बंद हों और लेखन में सामजिक राजनैतिक भौतिक व लोक से जुड़े मुद्दों पर तठस्थ पत्रकारिता होनी शुरू हो जाय.
भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ताबंबई और मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का “कलकत्ता गज़ट” कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इसके बाद बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा समाचार (1872)।
यूँ तो हिन्दू धर्मग्रन्थों की अगर विवेचना की जाय तो पूरे संसार की पत्रकारिता के आधारभूत स्तम्भ हिन्दू धर्मावलम्बी ही रहे हैं क्योंकि ऋषि नारद को विश्व का पहला पत्रकार माना जाता है. ऐसे में पत्रकारिता के हम युगों को बर्णित करने का जो साहस करते हैं उसमें 1823 से 1873 को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं इसी दौर में भारतेंदु ने हिंदी पत्रिका “हरिशचन्द्र चंद्रिका” का सम्पादन किया
पत्रकारिता का दूसरा युग भारतेंदु युग कहलाया जिसे 1873 से 1900 माना गया. भारतेंदु के बाद 25 वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। फिर पत्रकारिता का तीसरा चरण विकसित हुआ जिसे बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस बर्ष के रूप में देखा गया और इसे आधुनिक युग की परिभाषा भी दी गयी. 1990 के बाद पत्रकारिता ने कई आयाम प्रस्तुत किये कई दैनिक अखबार बाजार में उतरे तो वहीँ टीवी चैनल्स भी एक के बाद एक होड़ में बढ़ते गए जिन्हें लाइसेंस देने वाला सरकारी उपक्रम अपने आप तो धराशायी हो गया लेकिन मीडिया को एक बिग बाजार के रूप में हम सबके सामने ले आया.
आज भले ही कई मीडिया घराने दिशाहीन खबरों के चलते जितनी तेजी से आगे बढे उतनी ही तेजी से बंद भी हो गए लेकिन यह सत्य है कि मीडिया मंडी के वे घराने खूब फल फूल रहे हैं जहाँ दलाली का राज कायम है. पत्रकारिता में गिरावट इस लिए भी आई है कि इसके कोई मानक तय नहीं हैं. जर्नलिज्म किये पढ़े लिखे युवाओं को हांकने वाले ऐसे हाथ हैं जो आठवीं पास भी नहीं हैं. ऐसे क्षुब्ध दौर से गुजरने वाली वर्तमान पत्रकारिता का क्या चौथा नया दौर प्रारम्भ होने वाला है जो अति से हटकर होगा. इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता हैं वेट एंड वाच..!

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