नौला रंगा बल थौलाs प्यारा…! बेहद तेजी से गायब होती गढ़वाली शब्द सम्पदा व लोकोक्तियाँ व मुहावरे बोली/भाषा के लिए चिंताजनक!

(मनोज इष्टवाल)

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम तेजी से एक ऐसे लोक समाज को खोने जा रहे हैं जो अपनी बेमिशाल शब्द सम्पदा के आवरण में लिपटी गंगा जमुना संस्कृति का परचम लहराती अनवरत बढती ही गयी और उसके भाषाई शब्दों को कई अंग्रेज लेखकों ने भी अपनी किताबों में तबज्जो दी है! लेकिन यह क्या हम शायद एक ऐसे लोक की अब कल्पना ही कर सकते हैं जो आज से 30 से 40 बर्ष पूर्व तक बेहद वैभवपूर्ण गढ़वाली शब्दों को परिभाषित कर लोकोक्तियों व मुहावरों में पहाड़ी शब्द सम्पदा व गढ़वाली लोक समाज की जीवन दायिनी के रूप में प्रचलित थी! गढ़वाली आणा-पखाणा जिन्हें लोकोक्ति भी कहा जा सकता है में हमारे गढ़वाली समाज का का एक दर्पण होता था!

सर्दियों के दिनों में तो क्या खाजा-बुखणा, क्या भट्ट या ढून्गला, और क्या च्युड़ा-मूडा सबकी जेब भरी रहती थी! परिवार के परिवार आग के घेरे में बैठ शाम की थकान मिटाने में अक्सर लोकोक्तियों का प्रयोग कर प्रश्न पूछा करते थे व उन्हीं में उसका जवाब भी मिलता था! जैसे – “सफ़ेद बखरी बल पाणी पेणु जांदी, लाल बकरी पाणी पकी आंद!” (पूड़ी), “अबी यखम छाई अबी ओ दूर पौंची ग्या?(नजर)”, “तू चल मी आन्दु छऊँ(सुई तागा)?, “गैर उबर बल बाघ घुन्नु (पर्या जिसमें दही से मक्खन व छान्छ बनाई जाती है)”!, बौण जान्द दां घौर मुख, आर घार आंद दां बौण मुख(कुल्हाड़ी)”! “उदाड़ द्यूं सुलार-फूंकी द्यूं जूंखा-बुखै द्यूं दाणा(मुंगरी/टेंटे/ भुट्टा)!, छुटी छोरिकू लम्बू फून्दा (सुई-तागा)!” इसके अलावा सिर्फ यहीं इनका समाज समाप्त नहीं था बल्कि हमारी स्कूली पढ़ाई में भी यह बहुत तरीके से इस्तेमाल होते थे और बालपन के सब छात्र बेहद रूचि के साथ ऐसी लोकोक्तियों के जवाब देने में उत्सुक रहते थे! तब मास्टरजी पूछते थे! तो बताओ बच्चों- कैs नम्मा मुखामुखि (७x९=६३), कैs छका पुठा-पुट्ठी (६x६=३६) अर कै नम्मा कुखडिम कौवा (११x९=९९)!

या फिर मासाब रटा लगवाते थे! एक बच्चा खड़ा होकर प्रश्न करता था- दो इकम दो दो दूनी! सब एक साथ जवाब देते और उस से उसी जवाब में प्रश्न भी पूछते- दो दूनी चार दो तिय्याँ? वो फिर जवाब देता – दो तिय्याँ छ: दो चौका?……अब गणित यहीं आकर नहीं रूकती बल्कि यूँ अनवरत हमारे काल से पहले यानि 50 बर्ष पूर्व यों छात्रों से प्रश्न पूछे जाते थे – “बारा बीसी बखरा अर चार बीसी चकर्या! अगर सभी बखरा मरे जाला त एक का बांठा म कतगा-कतगा गौणी ऐली?”यहीं फिर शुरू होता है मुहावरों में बात करने का सिलसिला! अक्सर गाँव समाज की महिलायें ज्यादात्तर अनपढ़ों में यह शब्द सम्पदा कूट कूट भरी होती थी! बुजुर्ग महिलायें आज ही अक्सर मुहावरों की भाषा में बात करती हुई मिलती हैं! मेरी माँ, ताई जी व प्रधानाचार्य भाई गिरीश चन्द्र इष्टवाल, व अब मेरी दीदी के मुंह से ऐसे मुहावरे लोकोक्तियों को सुनना ऐसा लगता है मानों हमने अपनी तिजोरी में संभाले अमूल्यवान शब्द समाज को अर्पित कर दिए हों लेकिन समाज ने उन्हें खर्च करने की तरह खोटे सिक्के जाली कलदार समझकर संग्रहित की जगह यूँ पड़े रहने देना ही उचित समझा जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारी वर्तमान पीढ़ी में इन शब्दों का मोह संसार तो रहा दूर..! गढ़वाली शब्द या बोली भी अंतिम ऑक्सीजन पर चल रही है! यह शब्द हल्के में लेकर हम बहुत बड़ा गुनाह तो नहीं कर रहे हैं ! कहीं ऐसा तो नहीं कि इनकी अवेहलना आने वाले दस सालों के बाद हमारी संस्कृति, लोक सभ्यता व लोक समाज के ताने-बाने से हमें सदा सदा के लिए दूर कर दे! आज जब मैं सुबह तैयार होकर निकल रहा था तो दीदी मुस्कराकर बोली- हे लोळआ मनोजा त्वे याद च कि जब तू जुल्फ्युं पर कंगुलू करदू छयो अर शीसा हिर्दु छयो त माँ कन बोदी छई- “द बल, भटक भारी कीसा खाली?” आज त मीभि बोदू – “नौला रंगा बल थौलाs प्यारा!” ये शब्द तब आते जाते मजाक में उड़ गए लेकिन जब मैंने गम्भीरता से इस बिषय पर सोचा तो पाया कि यह सब हमसे लोप होते जा रहे शब्द संसार की अक्षुण धरोहर है! सचमुच यह तो हमारी बोली भाषा पर बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है जिसे हम गंभीरता से नहीं ले रहे हैं! उम्मीद है इस छोटे से बिषय की ब्यापकता को समझते हुए आप इस बात पर अवश्य अमल करेंगे! ऐसे ही उच्च मुहावरे आपके पास यह जिज्ञासा शांत करने के लिए लिख रहा हूँ कि क्या आप भी मेरी तरह इन शब्दों के लिए सजग हैं! अभी तक गढ़वाली शब्द सम्पदा में लोकोक्तियों व मुहावरों पर मात्र दो या तीन किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनका खरीददार शायद ही वर्तमान समाज में कोई हो? आइये इस शब्द संसार को ब्यापकता देने के लिए हम क्यों न इन पहेलियों, लोकोक्तियों, मुहावरों के सवाल जबाब से अपना ज्ञान बाधाएं! उम्मीद हैं आप इनके जवाब ही नहीं देंगे बल्कि प्रश्न भी करते फिरेंगे! जैसे- “खम बुढया खाडू, उठी ना बाडू!”, उकाळ काटी सर्बट, अळगिसेर कज्यणीकु बल खिंचडू, जखम बसण बल तखम घिसण!

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