नेपाल आपदा- मई 2015 की वो डरावनी रात, जब भूकम्प से डरे सहमें हम सब तम्बू छोड़कर ट्रक में सोये..!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग नेपाल 10-11 मई 2015)

नेपाल भूकम्प की त्रासदी के साल भर बाद भी वह सिहरन अभी भी नहीं जाती जब उरखेत में तम्बू गाड़े हमारी थकी मांदी टीम के सदस्य चार दिन का सफ़र कर महेंद्र नगर- कंचनपुर- कपिलवस्तु- मुंग्लिंग-गोरखा होते हुए आपदा प्रभावित क्षेत्रों में राहत बांटते हुए यहाँ पहुंचकर आपदा में मरने वालों को श्रधांजलि स्वरुप पंडित बसंत राज के साथ भजन समाप्त करने के बाद अन्ताक्षरी में अपना मनोरंजन कर रही थी!

देहरादून से उरखेत नेपाल पहुंची आपदा राहत टीम (सबकी सहेली) जब खुद आपदा में फंसी !

समय रात्री पहर लगभग 10:30 बजे चारों ओर घुप्प अँधेरा और दिये व कैंडल की टिमटिमाहट में अन्ताक्षरी का कार्यक्रम चरम पर था. टीम लीड कर रही पूजा सुब्बा का आदेश था कि हम यहाँ जोर जोर से चिल्लाकर खुशियाँ नहीं मनाने आये हैं हमें ख़याल रखना होगा कि हम मृतकों के परिवारों को सांत्वना देने व आपदा राहत बांटने आये हैं . हम बेहद सब्र से उनकी बात ध्यान में रखते हुए अन्ताक्षरी खेल रहे थे. पंडित बसंतराज व दो चार टीम के सदस्य पास के ही तम्बुओं में सोने के लिए चल दिए थे.

टेंट में घुसते पानी को रास्ते दिखाने की नाकाम कोशिश!

अचानक तम्बू के ऊपर बारिश की बूंदे गिरने की आवाज़ आई! बूढ़ी गण्डकी नदी के किनारे बसे उरखेत की गर्मी में ये बूंदे बड़ी शुकून देने वाली लग रही थी ! अचानक बिजली कौंधी और बारिश इतनी मोटी हो गयी मानो टेंट फाड़ने के लिए ही आई हो. मुश्किल से दो मिनट की मुसलाधार बारिश और लगभग हर बीस सेकेण्ड में एक बिजली की कड़क ! हृदय कंपकपा देने वाली थी. अभी टीम की महिलाएं टेंट के अंदर सामान को संभालकर व्यवस्थित ही कर रही थी कि तेज का जलजला आया और सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम? सिर्फ मैं ही था जिसका कैमरा चमक रहा था. अन्ताक्षरी के आखर भूलकर सब प्राण रक्षा की प्रार्थना करते नजर आये.

बर्बादी का वह मंजर जो सचमुच पीड़ा देता रहा!

अरे…. ये क्या तम्बू के पीछे से जैसे पानी का सोता (स्रोत) फूटा हो. पूजा व उमा ने फटाफट सदस्यों को अपनी खाद सामग्री संभालने की हिदायत दी. जिसे हम बारिश में सुरक्षित लेकर जाएँ तो जाएँ कहाँ ! तब तक छाता व बड़ी टोर्च लेकर उरखेत गॉव का ही वह सज्जन प्रकट हुआ जिसके गौदाम में हमने लाखों रूपये की दो ट्रक राशन भरी हुई थी. फिर क्या था राशन वहां रखने की व्यवस्था हुई. अब पानी तम्बू में घुसने को बेताब था कि बिजली की कौंध के साथ जलजला फिर आया इस बार सचमुच मैं भी डर गया था क्योंकि उस कौंध की चमक में मैं अपने से लगभग 30 मीटर दूरी पर जमीन को फटते देखा. मैंने आव देखा न ताव और तम्बू छोड़कर बाहर निकल पड़ा टीम की महिलाएं मुझे आवाज़ देती रही लेकिन मेरे अन्दर मानों कोई दैवीय शक्ति आ गयी हो मैं तम्बू के बाहर अपने हाथ के नाखूनों से खुदाई करके नाली बनाने लगा. कब कौन मेरी फोटो खींच रहा है इसकी प्रवाह किये बिना मैं अपने कार्य पर लगा रहा अचानक एक खाली बियर की बोतल मेरे हाथ लगी जिसने मेरा काम आसान कर दिया. कुछ देर बाद ही तम्बू के आर-पार नालियां बन गयी और हमने चैन की सांस ली . मेरे तन के कपडे टार-ब-तर हो गए थे. फिर हल्का सा झटका और आया और बारिश और तेज हुई.

तबाही को देखकर ठगे से रह गए पंडित बसंतराज!

मैंने किसी को नहीं बताया कि हमसे लगभग 30 मीटर दूरी पर जमीन बह रही है बल्कि शीघ्र निर्णय लेते हुए सबको आदेश दिया कि अपना बोरिया बिस्तर संभालो और ट्रक के पीछे बिस्तर लगाओ क्योंकि न अब तम्बू ही सुरक्षित हैं और न कोई घर ! क्योंकि घरों की हालत हम देख चुके थे उनमें 6 अंगुल तक की दरारें आई थी. सभी ने मशीन की तरह संचालित होकर काम किया हम ट्रक ड्राईवर को जागने का प्रयास करते रहे लेकिन इतनी लम्बी ड्राइव के बाद भला कौन व्यक्ति होगा जिसे अपनी सुद होगी. मैंने चढ़कर ट्रक का डाला खोला और आधे गीले बिस्तर ट्रक में लगने शुरू हो गए. थकान अपार थी ट्रक में घुसते ही टीम के सभी लोग बेसुध से सो पड़े. मेरी कमर के नीचे ट्रक की पट्टी थी जो बार बार चुभ रही थी. जब पीड़ा असहनीय हुई तो मैं उठकर बैठ गया हाँ इतना जरुर शुकून हुआ कि मेरे साथी अब सुरक्षित हैं. फिर सोचने लगा कि यहाँ के लोग रोज इन झंझावातों से लड रहे हैं इन पर क्या गुजर रही होगी. ऐसे में कोई किसी को याद करे न करे माँ सबको याद आती है, मुझे भी मेरी माँ मेरी आँखों में नजर आई जो मेरे बालों पर अंगुली फेरती हुई गा रही थी – “हे लठयाला मनु, कैकी बौराण छ, कांठी म सी जून कैकी बौराण छ, चांदू माकि चाँद कैकी बौराण छ….बांदू माकि बांद, कैकी बौराण छ…! ये शब्द माँ तब गाया करती थी जब वह 4 बजे उठकर जन्दरी (हाथ चक्की) में मंडुवा या गेंहूँ पीसती और मैं माँ के साथ-साथ जगकर थिन-थिन की आवाज करता उसकी जाँघों में आकर लेट जाता! शायद तब मेरी उम्र चार या बर्ष रही होगी! माँ याद आये तो भला दुनिया के कौन से सुख फिर आपको नजर आयेंगे! मैं कल्पनाओं के भंवर में उलझता हुआ अपने ठेठ बचपन में जा पहुंचा जहाँ माँ यह गाना गाते हुए मेरे दो ढाई हाथ लम्बे बालों को भी सहला रही थी जिनकी जड़ों में जूँ होने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता! लेकिन फिर याद आता कि माँ कहती तेरी जूं हो ही नहीं सकती! तेरा खून कडुवा है इसीलिए जूं तेरा खून चूसने नहीं आ सकती!

माँ अक्सर यही गाना गुनगुनाया करती जो घूमती जन्दरी के सुर के साथ और मिठास का आनन्द दिलाता था! स्वाभाविक सी बात है कि आपदाओं के बबंडर में हों और भगवान के साथ माँ का स्मरण न हो भला ऐसा कैसे हो सकता है! मैं मन ही मन हंसा व बुदबुदाया कि जब दुःख निकट हों तब ही माँ को हम क्यों ज्यादा याद करते हैं ? कितने स्वार्थी हैं हम..! माँ मानो मेरे सामने आकर बनावटी गुस्से में कह रही हो- चुप करके सो जा! रात गहरा रही है! और फिर लोरी के साथ उसके हाथों की थपथपाहट अंतस को शुकून देने लगी! स्वाभाविक सी बात थी कि आँखें भर ही आई! अब आसमान मुझे रोता देख थोड़ा शांत हुआ! माँ की लोरी कानों में गूंजती हुई मुझे कब निन्द्रालोक में ले गयी पता तक न चला!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *