नीति घाटी से फिर उठी गौरा के स्वाभिमान की आवाज…गौरा के नाम पर हो हरित क्रान्ति से जुड़ा पर्यावरणीय पुरस्कार!

नीति घाटी से फिर उठी गौरा के स्वाभिमान की आवाज…गौरा के नाम पर हो हरित क्रान्ति से जुड़ा पर्यावरणीय पुरस्कार!

(मनोज इष्टवाल)
रीणी, रैनी या फिर रैणी गॉव एक हैं और शब्दार्थ भी! इसी की माटी की एक ऐसी पर्यावरणविद्ध महिला हुई जिसने 27 महिलाओं को संगठित कर एक ऐसे समाज की नींव डाली जिसने विश्व भर में अपनी जय-जयकार का उद्घोष करवा दिया. पहाड़ी कंदराओं के दुर्गम क्षेत्र में निवास करने वाली इस महिला को मिलने उस समय जब यहाँ सडकें भी नहीं थी बीबीसी के पत्रकार आ पहुंचे. जिन्होंने दुरूह पहाड़ी सफ़र तय कर आखिर रेडियो के माध्यम से प्रसारण कर बता ही दिया कि यह महिला और कोई नहीं बल्कि हिमालयी पुत्री गौरा के अवतार की गौरा देवी है. जिसने अपनी सखियों के साथ मिलकर पेड़ों पर चिपककर उन्हें ठेकेदारों के आरे कुल्हाड़ियों से अपने बच्चों की तरह बचाया. और उद्घोष किया –

gaura devi

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।

मिट्टी , पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।”

 ‘पेड़ों पर हथियार उठेंगे, हम भी उनके साथ मरेंगे ’,

‘लाठी-गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे ’


Kalyan Singh mati(maiti andolan), Smt. Basanti Bisht (jagar Gayika), R.S.rawat (ex coservator forest),  Mahendra Bhatt(MLA Badrinath)
नीति-घाटी कल्याण समिति द्वारा हाल ही के दिनों में गौरा देवी को याद करते हुए “गौरा देवी स्मृति चिपको उत्सव-2017” का आगाज राजधानी देहरादून में किया गया था जिसमें चकबंदी, वन एवं वन्य प्राणी मुख्य तरह से शामिल थे. गौरा देवी पर केन्द्रित इस कार्यक्रम का मकसद था कि चिपको आन्दोअल्न से जुड़े ब्यक्तित्व वो चाहे चंडी प्रसाद भट्ट हो या सुंदर लाल बहुगुणा! सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुके हैं लेकिन नीति-घाटी की यह बहु या बेटी व उसकी सहेलियाँ आखिर क्यों गुमनामी के अँधेरे में धकेल दी गयी हैं. माना कि चिपको से जुड़ा नाम गौरा देवी का है तो फिर उस पर राज्य सरकार द्वारा आजतक कोई पुरस्कार क्यों घोषित नहीं किया. आईये जानते हैं गौरा देवी के संघर्षों का चिपको आन्दोलन से जुड़ाव-

member neeti ghaati NGO
1962 के चीन आक्रमण के बाद जब भारत सरकार को लगा कि हमें भी अपना सड़क विस्तार सीमा के अंतिम छोर तक करना चाहिए तब सडक खुदनी शुरू हुई. सडक क्या खुदी की लकड़ी माफिया की पौ-बारह हो गयी. एक पेड़ के स्थान पर वे 50 पेड़ काटने लगे. ऐसे में प्रकृति का नुक्सान होते देख गौरा देवी ने इन माफियाओं के विरुद्ध मुट्ठियाँ भींच ली.

70 के दशक में जब सरकार पर्वतीय वनों को काटकर मोटा मुनाफा कमाना चाहती थी, उस वक्त मंडल-फाटा के जंगलों को बचाने से शुरू हुई मुहिम पैनखंडा ब्लाक के नीती घाटी के रैंणी के जंगलों तक फैल गई। गौरा देवी के साथ ऊमा देवी, अखा देवी, बारी देवी, मूसी देवी, रूपसा देवी पुसुली देवी, नोरती देवी नागी देवी जैसी सैकड़ों औरतों ने जैसे चंडी का रूप धारण कर लिया। उन्होंने समेट लिया उन पेड़ों का अपने आंचल में, जिन्हें वह अपने बच्चों की तरह प्यार करती थीं।

Kusum joshi with MLA Mahendra Bhatt
विद्यालय का पठन पाठन क्या होता है यह जाने बगैर भी गौरा यह जरुर जानती थी कि पेड़ प्रकृति का अनमोल उपहार है. 1925 में जोशीमठ से करीब 24 किलोमीटर नीती घाटी के लाता गांव के एक जनजातीय परिवार में जन्मी गौरा देवी का अपना जीवन खुद एक संघर्ष की गाथा है। 12 साल की उम्र में विवाह, 19 साल की उम्र में एक पुत्र को जन्म और 22 साल की उम्र में पति का स्वर्गवास। दुखों का पहाड़ झेलते हुए अशिक्षित होने के बावजूद इस महिला ने कभी हार नहीं मानी और अपने जीवन को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज उसे पूरा विश्व सम्मान की नजर से देखता है। गौरा देवी और साथियों के संघर्ष का ही परिणाम था जो 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना और केंद्र सरकार को पर्यावरण मंत्रालय का गठन करना पड़ा।

writer manoj istwal with neeti ghati NGO ladies
गौरा व उनकी सखियों की आवाज इतनी बुलंद हुई कि फिर श्रीगणेश हुआ विश्वविख्यात ‘चिपको आंदोलन ’ की। ‘पहले हमें काटो, फिर जंगल ’ के नारे के साथ 26 मार्च, 1974 को शुरू हुआ यह आंदोलन उस वक्त जनमानस की आवाज बन गया था। आंदोलन की सफलता अपनी परिणति पर पहुंची और सैकड़ों-हजारों पेड़ कटने से बच गए। धीरे-धीरे यह मुहिम पूरे गढ़वाल से लेकर कुमाऊं मंडल तक फैलने लगी। लोग जुड़ते गए और कारवां बनता चला गया। ‘पेड़ों पर हथियार उठेंगे, हम भी उनके साथ मरेंगे ’, ‘लाठी-गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे ’ जैसे नारे पूरे पहाड़ की फिजा में गूंजने लगे। 1977 में जंगलों के कटान से उपजे जनाक्रोश का ही परिणाम नैनीताल क्लब को झेलना पड़ा।

NEO vision team with neeti ghati NGO ladies
चिपको की मुहिम के साथ और भी कई ऐसे नाम जुड़े हैं, जो विश्व पटल में इस आंदोलन से विख्यात हुए। पर्यावरणविद्ï सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ïट, धूम सिंह नेगी, विजय जड़धारी, कुंवर प्रसून, बचना देवी और कई लोग जो आज भी चाहते हैं कि फिर से एक चिपको आंदोलन शुरू किए जाने की जरूरत है। इन्हीं लोगों ने पेड़ों पर ‘रक्षा सूत्र ’ बांधकर एक नए आंदोलन को जन्म दिया था।
इसी चिपको आन्दोलन के प्रेणताओं ने अक्टूबर, 1976 में उसने यह सिफारिश की कि 1,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में व्यावसायिक वन-कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी जाए। साथ ही समिति ने यह सुझाव भी दिया कि इस क्षेत्र के महट्टवपूर्ण हिस्सों में वनरोपन का कार्य युद्धस्तर पर शुरू किया जाए। उत्तरप्रदेश सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। इस रोक के लागु होने के कारण 13,371 हेक्टेयर की वन कटाई योजना वापस ले ली गई। चिपको आदोलन की यह बहुत बड़ी विजय थी।

Kapil dobhal from chakbandi

1 फरवरी, 1978 को अदवाणी गांव के जंगलों में सशस्त्र पुलिस के 50 जवानों की एक टुकड़ी वनाधिकारियों और ठेकेदारों द्वारा भाड़े के कुल्हाड़ी वालों के संरक्षण के लिए पहुँची। वहाँ स्त्रियाँ यह कहते हुए पेड़ों पर चिपक गयीं, ‘‘पेड़ नहीं, हम कटेंगी’’। इस अहिंसक प्रतिरोध का किसी के पास उत्तर नहीं था। इन्हीं महिलाओं ने पुन: सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे में 9 फरवरी, 1978 को नरेन्द्र नगर में होने वाली वनों की नीलामी का विरोध किया। वे गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दी गईं।

25 दिसम्बर, 1978 को मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन आरंभ हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लेकर पेड़ कटवाने के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। इस जंगल में 9 जनवरी, 1978 को सुदूरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई तत्काल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के प्रश्न पर उन्हें बातचीत करने का न्योता दिया। इस संबंध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायूं मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी, कटाई और छपान बंद करने की घोषणा कर दी गई।

(नीति-माणा घाटी कल्याण समिति)

इसी क्षेत्र की महिलाओं ने जिनमें फरकिया, मलारी, द्रोणागिरी, गमशाली, नीति, घ्र्सारी, लाता, रीणी, देवली बगंड, रंग्या-गरपक,  भीम तला, बौंला, दम्फुधार, नीति-पास, ग्वाल, ढुंग, गिग्मुल, अलंगतारा, छो-मिसर, चोक्योसेर इत्यादि की जनसमस्याओं को ध्यान में रखते हुए यहाँ के नीति-माणा घाटी कल्याण समिति नामक  स्वयंसेवी संस्था ने गौरा देवी स्मृति चिपको उत्सव कार्यक्रम का आगाज देहरादून में किया ! जिसमे चकबंदी का बन एवं वन्य प्राणियों पर प्रभाव नामक बिषय पर चर्चा की गयी जिसमें बद्री नाथ क्षेत्र के विधायक महेंद्र भट्ट, पदमश्री बसंती बिष्ट, पूर्व वन संरक्षक आर.एस.रावत, मैती संस्था के संस्थापक कल्याण सिंह मैती,  बद्री केदार मंदिर समिति के व्यवस्थापक बी.डी. सिंह , निओ विजन फाउन्डेशन के संस्थापक/अध्यक्ष गजेन्द्र रमोला, चकबंदी के कपिल डोभाल प्रधानाचार्य हुकुम सिंह उनियाल (रा.पूर्व माध्यमिक आवसीय विद्यालय देहरा)  तथा   नीति-माणा घाटी कल्याण समिति के अध्यक्ष डॉ. मान सिंह राणा,  भूपेन्द्र सिंह राणा संस्कृति सचिव,संस्कृति सचिव रजनी राणा, श्रीमती उर्मिला राणा, श्रीमती भवानी कुंवर, श्रीमती रेखा राणा, श्रीमती रावत, श्रीमती तुलसी रावत इत्यादि ने शिरकत की.

photo- Agas..

कार्यक्रम को चकबंदी और वनों के महत्व से जोड़कर देखते हुए नीति-घाटी कल्याण समिति ने चिंता जताई कि हम ऐसी महिला को बिसरा चुके हैं जिसने एक आन्दोलन की नींव रखी. जाने कितनी जिल्लत झेली लेकिन आन्दोलन टूटने नहीं दिया. सरकार द्वारा अभी तक हरित क्रान्ति के रूप में गौरा देवी के नाम से ऐसा कोई पुरस्कार तय नहीं कर पाई जिसे पाने के बाद ब्यक्ति समाज के मध्य अपना वजूद समझ सके. समिति का कहना था कि चिपको आन्दोलन से जुड़े अन्य नामों ने तो कई पुरस्कार प्राप्त कर लिए लेकिन गौरा हमारे बीच कहाँ हैं और कहाँ उनके साथ चिपको आन्दोलन में साथ देने वाली उनकी सहेलियां?

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