धाद…..फुलदे से फूलदेई तक! यानि माँ पार्वती से लेकर राजकुमारी!

धाद…..फुलदे से फूलदेई तक! यानि माँ पार्वती से लेकर राजकुमारी!

(मनोज इष्टवाल)
सन 1980 के दौर में जब धाद पैदा हुई थी तब उसकी फुलवारी की फुलदे ने उसी ऊर्जा के साथ पहाड़ की उस हर देहरी में धाद लगाकर “धाद” पत्रिका की पोटली में चैत्र मास के बसंत की तरह हर दिन नया फूल चुनकर मानों चैत्र संक्राति के दिन रिंगाल, व नळओ (गेंहूँ के सूखे डंठल)  की छोटी छोटी टोकरियाँ लेकर खेतों की मुंडेरों  पर खिले बासंती फूलों जैसे फ्योंली, बुरांस, साकिनी,  लाई, कुंज, पद्म, सुतराज, बनसका, बुरांस, आडू, खुमानी, बसिंग, दूब, मेलु, घिन्घोरा, कविलास, ग्वीराल, सेब, सकिनी, धौला, मालू, चुपल्या, घट, भेकल, किलमोडी, कंवल, जयाणी सहित सैकड़ों प्रजाति के पुष्पों की तरह अपने लोक समाज के ताने बाने में ब्याप्त उन सतरंगी रंगों को घोल दिया हो जिसे गढ़वाल की संस्कृति का कविलास कहा जा सकता है! तब सचमुच यह सरस्वती माँ पार्वती के रूप में फुलदे बनकर जगदीश/लोकेश के हाथों से होती हुई जाने हम जैसे कितने हाथों में “धाद” की टोकरी के इन कीमती पुष्पों को थमा मानो हर गाँव गाँव शहर-शहर देहरी-देहरी कह रही हो:-

फुलदे फूल देई संगरांद……..!
सुफल करो नयो साल, तुमकु श्री भगवान
रंगीला सजीला फूल ऐगीं , डाळा बोटा हर्यां व्हेगीं
पौन पंछि  दौड़ी गैन, डाळयूँ फूल हंसदा ऐन,
तुमारा भण्डार भर्यान, अन्न धन्न कि बरकत ह्वेन
औंद रओ ऋतु मास . होंद रओ सबकू संगरांद .
बच्यां रौला तुम हम त , फिर होली फूल संगरांद!

धाद की इस धाद (पुकार) ने सचमुच उस दौर में कईयों की नींद उड़ा दी थी! साहित्यचित्त और लोक समाज लोक संस्कृति पर अपना एकछत्र राज समझने वाले कई मगरमच्छ पहले तो इसको छोटी सी गवनीगाड़ की मछली समझकर चल रही थी लेकिन जब यह देखते देखते पूर्वी पश्चिमी नयार की मछली बन गयी तो सबके पेट में दर्द होना शुरू हो गया!  फिर वही हुआ जिसका अंदेशा था ! लोकेश नवानी की व्यस्तता और जगदीश बडोला की निजता ने ऐसा मुकाम ला दिया कि एक खूबसूरत पत्रिका अलोप हो गयी ! एक ऐसा दस्तावेज जो नैनीताल के पहाड़ की तरह पौड़ी की “धाद” के रूप में गारे मिटटी से छानकर गंगा जी की पवित्रता सा जन्म ले चुकी थी! गढ़वाल के बारे में किसी रेफरेंस की जरुर होती तो “धाद” के अंकों की ढूंढ होती! लेकिन ऐसा नहीं कि धाद ने एकदम दम तोड़ दिया हो इसकी पंखुरियां सांस्कृतिक एकांश की खुशबु कहीं न कहीं कभी न कभी बिखेरती नजर आती थी!

लगभग 7 साल तक हिमालयी शिव की तपस्या भंग करने का जब कोई उपचार नहीं हुआ तब तन्मय ने मन से इसके हर एकांश पर काम का बीड़ा उठाया! वह दौर मुझे आज भी याद है जब कई बार लोकेश नवानी जी मुझे कहते थे- मनोज धाद का सांस्कृतिक स्वरूप सम्भाल ! मुझे समय नहीं है और तुझ में बहुत कुछ है! थोड़ा गम्भीर हो जाओ! मैं अपनी कमियाँ जानता था इसलिए उन्हें टालता रहा! क्योंकि मैंने लोकेश नवानीजी को धाद की मीटिंग आयोजित करने के लिए टाट पट्टी से लेकर बैनर पोस्टर खुद लगाते देखा था! यह सब काम मेरे वश में होते हुए भी एकाग्रता की कमी के कारण मैंने हाथ झटक दिए! तन्मय ममगाई बड़ी मेहनत के साथ इस कार्य में जुटे! उन्होंने अपने संसाधनों को जोड़ना शुरू किया! यहाँ डॉ. जयंत नवानी ने लोकेश नवानी के कहने पर वह हर सम्भव प्रयास किये चाहे जिस से “धाद” फिर जीवित हो सके!

(फुलदेई कांसेप्ट को लेकर आये धाद के सचिव तन्मय ममगाई व अन्य)
फिर कड़ी दर कड़ी जुडती चली गयी और “धाद” फिर नळओ, रिंगाळ की छोटी छोटी टोकरियों में फूल सजाने लगी! इसका साहित्य एकांश, सांस्कृतिक एकांश, सामाजिक एकांश सहित अनेक लताएँ स्पुटित होनी शुरू हो गयी और देखिये इस बैशाखी पर फूलदे जवान होकर फूलदेई हो गयी! यानि फुलदे मतलब गढ़वाल की घाटियों में खुशबु बिखेरने वाले फूल और फूलदेई मतलब उन फूलों में शामिल हुई हिंदी के शब्दों की खुशबु! यकीनन “धाद” शुद्ध गढ़वाली से शुरू हुई और पलावित होकर मैदानी भू-भाग के रंगों में भी रंग गयी! आज सचमुच यह लगभग 37 साल के सफर के बाद फिर से उतनी ही चपल-चंचल दिखाई देने लगी जितने अपने शुरूआती दौर में थी! आज स्कूली नौनिहालों की प्रस्तुतियां व उनकी फुलदेई पोस्टर प्रदर्शनी मानों फिर से देहरी-देहरी, घर-घर जा जा कर कह रही हो-

फुलदे फूल देई संगरांद
फूलदेई फूलदे,
छम्मा दे, छम्मा दे,
देणि द्वार, भर भकार,
तैं देळई  बारम्बार नमस्कार।

यकीनन धाद की यह अनूठी पहल दिल छूने वाली थी! मंच से धाद के उपाध्यक्ष दिनेश नौटियाल अपने सम्बोधन में जहाँ सरकारी स्कूलों के छात्रों अध्यापकों का मनोबल बढाने का काम कर रहे थे वहीँ जब मंच पर ये बच्चे प्रस्तुती दे रहे थे तब टाउनहाल तालियों से गूँजता रहा! यह अजब गजब था! लेकिन कमी कहीं दिख रही थी तो वे चेहरे जो कभी धाद की आवाज सुनकर दौड़े चले आये थे! इस मुहीम में कहीं न कहीं कई सूरमा हम लोगों से बिछुड़ गए जिसका आभास सभी को है! धाद के संरक्षक ब्यास जी बाहर आकर लोकेश नवानी जी से चुहल करते हुए यह कहते नजर आये कि यह आपकी सक्रियता न होने से हो रहा है वहीँ लोकेश नवानी यह सफाई देते नजर आये कि मैंने धाद जिम्मेदार कन्धों पर सौंपी हुई है! इतना सब चलता रहा लेकिन एक बार भी “धाद” जहाँ से शुरू हुई थी उसकी चर्चा तक नहीं हुई! यह आश्चर्य की बात है! दरअसल “धाद” शुरूआती दौर में पत्रिका के रूप में पैदा हुई थी! आज यह पत्रिका धाद के ही एक साथी गणेश खुगशाल “गणी” के सम्पादन में प्रकाशित हो भी रही है लेकिन जाने क्यों उसे अलग-थलग रख दिया गया! काश…एक बार मिल बैठकर धाद के इस स्वरूप को भी सब साथिया हाथ बंटाने की तर्ज पर आगे बढाने के लिए जुटते!  आपसी कमियाँ हमें ही ढूंढनी होती हैं! कमियाँ न हों तो इंसान भगवान न बन जाए!

(फुलदेई गीत गायन करते स्कूली छात्र)
बहरहाल उन सभी स्कूलों व उनके नौनिहालों का हृदय से शुक्रिया जिन्होंने फूलदे को फूलदेई बनाने में धाद संस्था के कंधे से कंधा मिलाकर इसे नया मुकाम दिया! दहाड़ ने भी इस मुहीम में पौधे भेंट करते हुए इस यादगार पल को फुलवारी के रूप में हर उस विद्यालय को सौंपा जिसके नौनिहालों ने इसे चार चाँद लगाये!
फुलदे से फूलदेई बने इस त्यौहार के पीछे का मिथक या कथा कहानी किंवदन्ती क्या है यह जानना भी हम सबके लिए आवश्यक है! शायद ही हम में से ज्यादात्तर लोग यह जानते हों कि पूरे संसार का यह पहला ऐसा बाल पर्व है जिसकी शुरुआत तो नौनिहाल करते हैं लेकिन एक माह चले इस त्यौहार का समापन बुजुर्ग उनसे आशीर्वाद देकर व उन्हें दुर्वा देकर उन्हें स्वाली-पकोड़ी, गंद-अक्षत, गुड चावल व भेंट देकर विदा करते हैं और इसी दिन से गढ़-कुमाऊं के मेलों की शुरुआत होती है! जितने भी ऊँची थातों में शिव स्थान हैं या फिर देवी स्थल उन में मेले बैशाखी से शुरू होते हैं और साल भर तक इसी दिन के बाद त्यौहार शादी विवाह व शुभकार्य शुरू होते हैं!

आइये आपको फुलदे या फूलदेई नामक इस लोक त्यौहार की जानकारी दे दूँ!  फुलफुलमाई, घोघा या फूलदे/फूलदेई के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश का यह पहला बाल पर्व व संसार का एकमात्र ऐसा उत्सव है जिसकी शुरुआत तो नौनिहाल करते हैं लेकिन समापन बड़े बुजुर्ग के हाथों से होता है.

(फुलदेई में शिरकत करने पहुंची अध्यापिकाएं श्रीमती मुन्नी पाठक, श्रीमती पूनम भटनागर)
चैत्र मास के आगमन का स्वागत करने के लिए पहाड़ों में नौनिहाल चैत्र संक्राति के दिन रिंगाल, व नळओ (गेंहूँ के सूखे डंठल)  की छोटी छोटी टोकरियाँ लेकर खेतों की मुंडेरों पर खिले बासंती फूलों जैसे फ्योंली, लाई, कुंज, पद्म, सुतराज, बनसका, बुरांस, आडू, खुमानी, बसिंग, दूब, मेलु, घिन्घोरा, कविलास, ग्वीराल, सेब, सकिनी, धौला, मालू, चुपल्या, घट, भेकल,किलमोडी,कंवल, जयाणी सहित सैकड़ों प्रजाति के पुष्प इस चैत्र मास खिलते हैं उन्हें सुबह सबेरे टोकरियों में भरकर लाते हैं और सर्वप्रथम गॉव के मंदिर में चढाने के बाद फुलदेई की प्रार्थना करते हैं! इसके पश्चात गॉव के नौनिहाल धूप निकलने से पूर्व घर घर की देहरी चौखट पर पुष्प डालते हुए कहते हैं –
फुलदे फूल देई संगरांद
फूलदेई फूलदे,
छम्मा दे, छम्मा दे,
देणि द्वार, भर भकार,
तैं देळई  बारम्बार नमस्कार।
जब हम आदमयुग के शून्य काल से गुजरकर अविष्कारिक काल में प्रवेश कर रहे थे और स्वाद ब्यजनों की प्रयोग धर्मिता को मनुष्य जीवन में अपना रहे थे तब पुष्प ही एकमात्र ऐसा प्रकृति प्रदत्त पादप था जिसका इस्तेमाल कहाँ हो कैसे हो यह बिडम्बना बनी रहती थी. 

(धाद की महिला सदस्य)
कहा जाता है कि त्रेता युग में द्रोणागिरी पर्वत पर खिलने वाली जिस दिव्य औषधि की बात सुशेनवैद ने बताई थी और जिस से लक्षमण के प्राण बचाए गए वह भी एक पुष्प ही था जिसकी महत्तता का अनुमान किसी को नहीं था!

(राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित अध्यापक मनोधार नैनवाल को फुलदेई सौगात)
 यह यक्ष प्रश्न वैज्ञानिकों शास्त्रविदों और अविष्कारकों के लिए दुनिया भर में चुनौती बना रहा. आज वर्तमान में पुष्पों से कई किस्म की औषधि,इत्र और जाने क्या क्या बन रहा है लेकिन इसका महत्व सर्व प्रथम किसने जाना यह सबसे दिलचस्प है. 
हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सीता की पुष्प वाटिका में फूलों के प्रयोग को दर्शाया गया है. कृष्ण राधा के प्रसंगों में भी उसकी महत्तता है .
कविलास अर्थात शिव के कैलाश में सर्वप्रथम सतयुग में पुष्प की पूजा और महत्तता का वर्णन सुनने को मिलता है!
धर्म-पुराणों के अनुसार आदिकैलाश में आदिदेव महादेव तपस्या में लीं हो गए कई माह बीत गए लेकिन शिब तन्द्रा नहीं टूटी! पूरी श्रृष्टि में हर वस्तु अपने काल से पूर्व ही पैदा होकर मुरझाने लगी! देवताओं व मनुष्यों में बेचैनी शुरू हो गयी! दैन्त्य दानव अत्याचार होने लगे! कई युक्ति के बाद भी जब शिव तंद्रा नहीं टूटी तब सभी देवता माँ पार्वती के पास इसके निदान के लिए गए!.

(अध्यापिका को पुष्प सौगात देती धाद की श्रीमती शोभा रतूड़ी)
आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली! उन्होंने प्रकृति से अनुरोध किया कि हे प्रकृति हमें हर रोज एक ऐसा पुष्प अर्चना के लिए प्रदत्त कर ताकि हम उस से महादेव की हर दिन पूजा कर सकें! सर्वप्रथम पुष्प की उत्पत्ति में फ्योंली का फूल अपनी पीताम्बरी पंखुरियों के साथ देव-क्यारियों में उत्पन्न हुआ! माँ पार्वती ने पीताम्बरी ओड़ा और अपनी योगमाया से पूरे कैलाश वासियों को बाल्य रूप में परिवर्तित कर दिया! सभी पुष्प चुनकर शिव को अर्पित करते और क्षमा मांगते हुए कहते –

फुलदे क्षमा दे, भर भंकार, जय ओंकार तेरे आये द्वार महाराज! यह क्रम चलता रहा और आखिर एक माह बाद शिब की तंद्रा टूटी उनका रौध्र रूप अभी शुरू ही हुआ था कि उन्होंने कैलाश में छोटे छोटे बच्चों की टोलियों को देखा जो उन पर फूल बरसा रहे थे!
शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए तब से पहाडो में फुलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढे-बुजुर्ग करते हैं.
सतयुग से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा का निर्वहन करने वाले बाल-ग्वाल पूरी धरा के ऐसे वैज्ञानिक हुए जिन्होंने फूलों की महत्तता का उदघोष श्रृष्टि में करवाया तभी से पुष्प देव प्रिय, जनप्रिय और लोक समाज प्रिय माने गए. पुष्प में कोमलता है अत: इसे पार्वती तुल्य माना गया. यही कारण भी है कि पुष्प सबसे ज्यादा लोकप्रिय महिलाओं के लिए है जिन्हें सतयुग से लेकर कलयुग तक आज भी महिलायें आभूषण के रूप में इस्तेमाल करती हैं.
बाल पर्व के रूप में पहाड़ी जन-मानस में प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू हुआ फिर भी हम इस पर्व को बेहद हलके में लेते हैं. जहाँ से श्रृष्टि ने अपना श्रृंगार करना शुरू किया जहाँ से श्रृष्टि ने हमें कोमलता सिखाई जिस बसंत की अगुवाई में कोमल हाथों ने हर बर्ष पूरी धरा में विदमान आवासों की देहरियों में पुष्प वर्षा की उसी धरा के हम शिक्षित जनमानस यह कब समझ पायेंगे कि यह अबोध देवतुल्य बचपन ही हमें जीने का मूल मंत्र दे गया!  
वहीँ दूसरी कथा के अनुसार कहा जाता है कि एक राजकुमारी का विवाह दूर काले पहाड़ के पार हुआ था , जहां उसे अपने मायके की याद सताती रहती थी । वह अपनी सास से मायके भेजने और अपने परिवार वालो से मिलने की प्रार्थना करती थी किन्तु उसकी सास उसे उसके मायके नहीं जाने देती थी । मायके की याद में तड़पती राजकुमारी एक दिन मर जाती है और उसके ससुराल वाले राजकुमारी को उसके मायके के पास ही दफना देते है और कुछ दिनों के पश्चात एक आश्चर्य तरीके से जिस स्थान पर राजकुमारी को दफनाया था , उसी स्थान पर एक खूबसूरत पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है और उस फूल को फ्योंली नाम दे दिया जाता है और उसी की याद में पहाड़ में फूलों का त्यौहार यानी कि फूल्देइ पर्व मनाया जाता है और तब से फुलदेई पर्व उत्तराखंड की परंपरा में प्रचलित है |
बहरहाल फुलदे से फूलदेई की यह पहल अनूठी है और धाद ने माँ पार्वती के अध्याय को दोहराते हुए सचमुच इस परम्परा को पुनः अपने अनूठे तरीके से बैशाखी के दिन इसे मनाकर प्रदेश की खुशहाली का नया मन्त्र यह फूँका कि उन्होंने अपने शिक्षा के उस तंत्र के प्रति सबको सजग किया जिसे हम पीछे छोड़ चुके थे! आइये हम सब मिलकर ऐसे आयोजनॉन में धाद के साथ खड़े होकर अपनी भागीदारी का निर्वहन करना सीखें!
 

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