द्रोणागिरी ट्रेक ऑफ़ द इयर 2017 ..! न झटका न हलाल सीधे दिल बाहर! नीति-माणा घाटी की अनूठी परम्परा..!
द्रोणागिरी ट्रेक ऑफ़ द इयर 2017 ..!
न झटका न हलाल सीधे दिल बाहर! नीति-माणा घाटी की अनूठी परम्परा..! ज्या का स्वाद कई दिनों तक आपकी जुबान में रहेगा!
(मनोज इष्टवाल)
शायद वह 22 मई 2017 की शाम रही होगी जब हम ज्या पीकर निबटे होंगे! क्योंकि आज हमारे ट्रेक की कैम्पिंग रुइंग गाँव में थी जहाँ तोल्छा समाज के भोटिया लोग निवास करते हैं. ऐसे में नीति-घाटी का मार्छिया समाज का कोई व्यक्ति मिल जाय तब यह स्वाभाविक सी बात है कि ज्या नामक चाय की चुस्कियों में लोक समाज व लोक संस्कृति के पहलुओं पर मुझ जैसा व्यक्ति चर्चा जरुर करेगा.
(file photo- darwan naithwal)
हाथ में कैनन का मार्क-3 कैमरा, सिर्फ में शुद्ध चमड़े का भूरे रंग का हैट, आँखों में नीले हरे रंग का रेयबन चस्मा, कंधे तक झूलती बालों की जटा, मूंछे ठोढ़ी की ओर चुकी हुई व ठोड़ी पर बकरा दाड़ी का एक गोरा चिट्टा बांका जवान अगर सहृदयी हो तो मन उसके प्रति अपनी साधगी बयाँ करने में भला चूकेगा कैसे..! मैं बात कर रहा हूँ नीति घाटी के नीति गाँव के लोक गायक दरवान नैथवाल की. पेशे से जिला चमोली में ट्रेजरी अफसर लेकिन अपनी लोक संस्कृति का ऐसा दीवाना कि कुछ कहा नहीं जा सकता. “कख रै ग्ये नीति, कख रै ग्ये माणा, श्याम सिंह पटवारी ने कहाँ कहाँ जाणा” गाने से अपने व्यक्तित्व की शुरुआत करने वाले भाई दरवान नैथवाल से यूँ तो पहले भी परिचय था लेकिन घनिष्टता इतनी नहीं थी. जब मिले तो यूँ लगे मानों कितने बर्षो से एक दुसरे को जानते होंगे.
तोलछा और मार्छिया समाज पर चर्चा के दौरान जब हम “ज्या” नामक चाय की बारीकियों पर पहुंचे तब चर्चा कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गयी. नमक घी जंगली तुलसी, बनक्सा सहित कई जड़ी बूटियों के मिश्रण की चायपत्ति व जरा सा दूध मिक्स करके बनाई जाने वाली यह चाय बेहद अजब गजब की होती है. पहले गर्म पानी में यही जड़ी बूटी वाली चायपत्ति उबालने के बाद एक बांस के लम्बे बम्बू के अंदर घी नमक मामूली सा दूध मिलाकर फिर उबलते पानी को डालकर एक पतले से डंडे से चाय को खूब घोंचना और फिर ताम्बे पीतल के कटोरे में परोसना आपको अलग ही अनुभव लगेगा.
इस चाय को यहाँ की स्थानीय भाषा में ज्या कहते हैं. यह ठन्डे इलाके में बेहद लाभदायक है. चाय के साथ सतू मिले, हमारे ट्रेक ग्रुप के साथी जिनमे आजतक से मंजीत नेगी, ईटीवी से रोबिन सिंह चौहान, दिल्ली से मयंक आर्य, पौड़ी से जॉय हुकिल, धरोहर से चन्द्रशेखर चौहान व गोबिंद नेगी, लंबा सफर की सम्पादक गीता बिष्ट, लोक गायक दरवान नैथवाल, हाईफीड के निदेशक उदित घिल्डियाल, अपर आयुक्त गढ़वाल मंडल हरक सिंह रावत सहित कई अन्य मित्र जब चाय पीने पंक्तिवार ग्रामीणों व अन्य ट्रेकर्स के साथ बैठे तब देखा कि चाय के साथ मिले सत्तू हमने कोरे ही फांकने शुरू कर दिए ऐसे में दरवान नैथवाल व अपर आयुक्त हरक सिंह रावत जी ने अपनी लोक संस्कृति में प्रचलित सत्तू खाने का तरीका बताया तो बड़ा आश्चर्य हुआ. चाय जब आपके कटोरे की तली छूने लगे तब उसमें सत्तू मिलाकर उसे आप अंगुली से पेडे की शक्ल दे सकते है. फिर उसे खांए ताकि कटोरे के चारों ओर लगा घी उसी में सिमट जाए व कटोरा मांचने में आसानी हो सके.
चाय में घी क्यों मिलाते हैं जब यह प्रश्न मैंने दरवान नैथवाल से पूछा- तब उन्होंने इस की व्यापकता पर चर्चा करते हुए बताया कि जिस बांस में यह ज्या बनती है उसे दुम्बा या दुम्बू कहा जाता है. यहाँ बेहद साधारण दुम्बू हैं जबकि नीति घाटी में एक दुम्बू 30 से 50 हजार का पड़ता है क्योंकि उसकी तलहटी पर दो व शीर्ष पर एक चांदी का छल्ला लगा रहता है. और जब इसमें ज्या को डंडे से घोला जाता है तो काफी तेज आवाजें निकलती है. घी पेट में गर्मी रखता है जबकि नमक हिमालयी भूभाग में आपको अपनी कमी महसूस नहीं होने देता.
बात बात पर उन्होंने बताया कि पहले गरीब घरों के लोग बकरे के पेट के अंदर उसकी चर्बी, डालडा इत्यादि भरकर उसे गर्म पानी में पकाकर रख देते थे ताकि सर्दियों में बर्फीले मौसम में बाहर निकलने से पहले वे इसकी निर्मित ज्या पी सकें. वहीँ माणा घाटी के भ्युंडार गाँव के प्रसिद्ध फोटोग्राफर चन्द्रशेखर बताते हैं कि उनके यहाँ भी ऐसा ही कुछ मिलता जुलता है. उनके क्षेत्र में बकरे की मोटी आंत में बकरे की छोटी आंत, फेफड़ा, चर्बी, नमक, मंडुवा इत्यादि बारीक बारीक काटकर केतली से भरते हैं जिसे वे गर्म पानी में पकाकर रखते हैं यह बेहद पोष्टिक होता है इसे इस क्षेत्र के लोग आरजा कहते हैं. जबकि जिसमें मंडूवे का आटा भरा जाता है उसे गीमा कहते है. यह तकनीकी विदेशों में भी अपनाई जाती है.
दरवान नैथवाल कहते हैं कि उनके यहाँ बकरा मारने की बेहद दुर्लभ परम्परा है. पहले युग में बकरे का मुंह बाँध कर उसे एक तरह से फांसी दी जाती थी लेकिन अब यह तरीका बदल गया है अब भी हम न झटका न हलाल बल्कि सीधे बकरे का पेट चाक करते हैं एवं एक्सपर्ट तुरंत उसका दिल निकाल लेते हैं. दिल निकालने के बाद पुराने लोग उसे बकरे के नाक के पास ले जाकर उसे सुंघाया करते थे वे नहीं जानते कि वे ऐसा क्यूँ करते थे या करते हैं. उन्होंने अरुणाचल से आई एक महिला को बुलाकर पूछा कि क्या आपके यहाँ भी ऐसा ही होता है उस महिला ने भी हामी भरी और तो और जितने भी हिमालयी क्षेत्र के भोटिया, तोल्छा, नित्वाल, जाड़, मार्छिया जनजाति के लोग हैं सभी में बकरा मारने की यही परम्परा है. उनका मत है कि इस से बकरे का खून भी बर्बाद नहीं होता और उसके मांस का बेहतरीन स्वाद बना रहता है. साथ ही इस मांस को सुखाने से इसमें कीड़े नहीं पड़ते.बहरहाल इस अनूठी परम्परा में यह अचम्भित करने वाला बिषय था कि हिन्दुस्तान में आज भी मंगोलियन परम्पराओं का निर्वहन करने वाली यह मंगोलियन जाति जहाँ अपनी मौलिक भाषा बोलती है वहीँ तोल्छा जनजाति के लोग गढ़वाली भी बोलते हैं.
इष्टवाल सर जी ,,ज्या ,, के बारे मे बहुत अच्छी जानकारी दी ।आपने। धन्यावाद।
धन्यवाद मित्र!