"दै परोठी" (दही कलश) यानि उत्तराखंडी संस्कृति धर्म-कर्म संस्कृति का एक मानक!
दुल्हन जूड़े में समेटे रहती थी तेंतीस कोटि देवता…क्रमशः (मनोज इष्टवाल)
4- दै परोठी- शुद्ध हिंदी उच्चाहरण की बात कहें तो इसे दही की ठेकी कहा जाएगा। प्रायः सांधण या अन्य लकड़ी से कुशल कारीगर द्वारा बनाई जाने वाली यह दै परोठी अब मिलनी उतनी ही बिलक्षण हो गयी जितने शादी में होने वाले धर्म कर्म रीति रिवाज। बचपन में बिना काष्ठ निर्मित परोठी के कभी दै परोठी मानी ही नहीं जाती थी फिर वक्त के साथ नजाकत बदली इसका रूप हंडिया ने लिया हम और भौतिकवादी तो हंडियां की जगह लोटे ने ले लिया और आगे बढे यानि हमने पहाड़ की जगह मैदानी क्षेत्रों को रुख क्या किया मैदानी भागों में और बड़ी चुटिया के आधुनिक प्रकांड विद्वान पंडितों ने इसका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया। शुक्र है क़ि गॉव आज भी इस परोठी का महत्व जानते हैं। सीमान्त गॉवों में या जिलों में आज भी परोठी काष्ठ निर्मित ही है। वहां काष्ठ का नामक रखने की कोसडी, घी की काष्ठ कमोळई, काष्ठ की नौंण (मक्खन) व दही परोठी आज भी मिल जाती हैं जो हमारे काष्ठ शिल्पियों की परिश्रम का फल होता था।
वर्तमान परिवेश् के इस मॉडर्न युग ने सबसे तुच्छ स्टील व प्लास्टिक को अपनाया है जिस से मानव शरीर में कई विकार पैदा होने शुरू हुए। आज स्थिति ये है क़ि 40 की उम्र में पहुँचते ही हम कई अंजान रोगों से पीड़ित होने लगने हैं जैसे वायु रोग और घुटनों व् जोड़ तोड़ का दर्द।
प्लास्टिक व स्टील खाद पदार्थों की विटामिन क्षमता सिर्फ 10 प्रतिशत ही रखता है जबकि काष्ठ, चीनी मिट्टी, मिटटी, कांस, पीतल व तांबा इसकी क्षमता पकने के बाद 100 से 80 प्रतिशत तक यथावत बनाने में सक्षम है। यह प्रयोगशाला के प्रयोग किये गए तथ्य हैं।
दही परोठी क्यों शुभ मानी जाती है उसके पीछे के कई धार्मिक तथ्य है जिन्हें समझने के लिए शोधात्मक तथ्यों की परख होनी आवश्यक है क्योंकि दही परोठी निर्माण क्यों किया जाता है इस पर पंडित जी सिर्फ यही बता पाएंगे क़ि यह शगुन है शुभ माना जाता है।
दही परोठी में बिशेषत: गौ के दूध से बनी दही, अपने खेत की कच्ची हल्दी की गाँठ, जिरहल्दी (जंगली हल्दी), समोया, उड़द की दाल से निर्मित पकोड़ी, मालु के पत्ते व रोली-मोली शामिल की जाती थी। समय बदलता गया दही परोठी की वस्तुवें घटती गयी और अब स्टील का छोटा लोटा, अंदर रेडीमेड दही, लोटे पर कागज़ का ढक्कन, 5 पकोड़ी के स्थान पर दो पकोड़ी और कागज को बाँधने के लिए एक धागा।
सारा नियम ताक पर रखकर वक्त काल परिस्थिति व भौतिकता के संसाधनों की वृद्धि ने कर्मकांड सिर्फ व्यवसायिक माध्यम बना दिया है । दही परोठी में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ, रोली मोली, दही, हल्दी-समोया, और उड़द निर्मित पकोड़ी पंच तत्व गिने गए हैं जो असाध्य रोग हारक, तनबदन शुद्धिदायक, अनिष्टहारक, व व्यथा निवारक, वायु-तपस शीत, जल, प्रकृति इत्यादि में ब्याप्त समस्त ऊर्जाओं के स्रोत संचारक माने गए हैं। यह परोठी रस्म कन्यापक्ष को वर पक्ष द्वारा इसलिए प्रस्तुत की जाती थी ताकि कन्यापक्ष इस बात से आश्वस्त हो क़ि वर इन सभी लावन्यो का प्रयोग कर स्नान पूर्वक पूरे विधान से कन्या का हाथ मांगने आया है और वधु पक्ष में दुल्हन या उसकी माँ अपनी अंजुली से जौ या मोती (चावल) उस परोठी में भरकर इसलिए देती थी क़ि जाओ हमारी लक्ष्मी आपके घर जो यूँहीं अन्न धन से सम्पन्न रखे आपके कोठार (अन्न पात्र) हमेशा यूँही भरे रहें।
पुष्कर सिंह बुटोला दही परोठी पर लिखते हैं कि प्रायः सांन्दन काष्ठ से निर्मित एक छोटी परोठी में वरपक्ष के गृह में निर्मित दही भरी जाती थी। दही परोठी के मुख को मालू के पत्ते से बंद कर कलेवा या मौली में गुंथी कच्ची हल्दी की माला से बाँध दिया जाता था। परोठी में भरा गया दही वर के घर में उत्तम नस्ल के पशुधन की उपलब्धता तथा कच्ची हल्दी की स्वस्थ गांठें उर्बर खेती की प्रचुरता का सांकेतिक परिचय देती थी।जो क़ि कन्या के पिता को बेटी के सुखी एवं संपन्न भविष्य के लिए आश्वस्त कर देते थे।दिन पट्टा और दही की परोठी को जिस मार्ग से कन्या के घर तक ले जाया जाता था बारात को भी अनिवार्यतः उसी मार्ग से जाकर विवाह के उपरान्त डोली लेकर वापस आना होता था। इस प्रकार दिन पट्टा और दही की परोठी बारात ले जाने तथा दुल्हन की डोली को लाने के मार्ग की उपयुक्तता तथा सुरक्षा की दृष्टि से की गयी पड़ताल भी होती थी।दिन पट्टे में विस्तार से लिखे गए कार्यक्रम के अनुसार कन्या पक्ष सारी तैयारियां ससमय करता था। दही की परोठी को कन्यापक्ष दुल्हन की विदाई के दिन खाली कर के उसमे जौ भर कर पुनः मॉलू के पत्तों से परोठी के मुख को बाँध कर हल्दी की गांठों की माला के स्थान पर उड़द की दाल से बनी पकौड़ियों की माला से बाँधा जाता था। परोठी में भरे गए जौ कन्या की सादगी और संस्कार संपन्नता के प्रतीक तथा उड़द दाल की पकोड़ियां सुस्वादु भोजन से की गयी बारातियों की आवभगत की परिचायक होती थी।