देहरादून हल्द्वानी प्रथम श्रेणी तो आखिर कौन सी श्रेणी में आते हैं पहाड़ के गाँव में जीवन यापन करने वाले जनमानस..?

देहरादून हल्द्वानी प्रथम श्रेणी तो आखिर कौन सी श्रेणी में आते हैं पहाड़ के गाँव में जीवन यापन करने वाले जनमानस..?


(मनोज इष्टवाल)
सरकार उत्तराखंड की लेकिन भला हमेशा मैदानों का ही हुआ है. उत्तर प्रदेश के जमाने में भी और उत्तराखंड के इस काल में भी! उपर से सगुफा ये कि पलायन रोको पलायन रुके..! आखिर रुके तो रुके कैसे जब देहरादून, हरिद्वार, काशीपुर, उधमसिंह नगर, हल्द्वानी इत्यादि पर आज भी पूरे बजट का लगभग 60 फीसदी पैंसा खर्च होता है. जिसमें तीन जिलों पर सबसे अधिक बजट खर्ज होता है जबकि पहाड़ी 10 जिलों के भाग में सिर्फ 40 प्रतिशत ही हाथ लगता है उसमें भी यहाँ के अफसरान साल के अंत तक उस बजट को कहाँ खर्च करें की योजना तक नहीं बना पाते!

पत्रकार मित्र अजय रावत की सोशल साईट पर विगत 7 जुलाई लिखी एक संक्षिप्त सी पोस्ट सचमुच आँख ही नहीं बल्कि कान खोल देने वाली लगती है. उन्होंने उत्तराखंड को चार श्रेणियों में वर्गीकृत करते हुए लिखा है कि रहो तो हल्द्वानी और देरादून, बाकी तो सब सन्नाटा और सून★
प्रश्न: उत्तराखंड की सामाजिक श्रेणियों का विश्लेषण कीजिये।
उत्तर: श्रेणी 1■ ऐसे लोग देहरादून और हल्द्वानी मेँ रहते हैं, ये प्रदेश की सर्वश्रेष्ठ प्रजाति के मानव हैं। इनके समक्ष अन्य सभी दोयम दर्ज़े के माने जाते हैं, सरकार को भी इनकी सुख सुविधा का प्रामिकता के आधार पर चिंता रहती है। लब्बोलुआब ये कि इन्ही लोगों को सच्चे मायने मेँ इस सूबे मेँ इन्सान का दर्ज़ा प्राप्त है।
श्रेणी 2■ ऐसे लोग हरिद्वार, रुड़की, कोटद्वार, ऋषिकेश, रामनगर, काशीपुर, व रुद्रपुर आदि स्थानों में रहते हैं। हालांकि इनमें भी हाइब्रिडाईज़ेशन (श्रेणी 1 मेँ जाने की) की कुंठा रहती है, बावज़ूद इसके यह भी स्वयं से निम्न श्रेणी के लोगों के उपहास करने से बाज़ नहीं आते, सरकार बचीखुची चिंता इनकी भी कर लेती है।
श्रेणी3■ ऐसे मज़बूर जीव अल्मोड़ा, पौड़ी, टिहरी, श्रीनगर, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, गोपेश्वेर, चम्पावत जैसे पहाड़ी शहरों मे निवास करते हैं.  हर पल श्रेणी 1 या कम से कम 2 मेँ शामिल होने की उधेड़बुन मेँ मरतेखपते रहते हैं। सरकार इनकी चिंता का स्वांग रच कर ही इतिश्री कर लेती है।
श्रेणी4■ ऐसे पशुतुल्य जीव पहाड़ के गांवों मेँ निवास करते हैं। इनके अंदर इतनी ऊर्ज़ा नहीं कि श्रेणी बदल सकें!  मनरेगा, फ़ूड सिक्यूरिटी और समाज कल्याण के लॉलीपॉप से ही इनकी साँसे चलती हैं। इनकी जान की औकात गुलदार की जान से भी कम होती है। ऐसे जीव सिर्फ 5 साल मेँ ईवीएम का बटन दबाने के काम आते हैं!  वह भी 150 रूपये के पव्वे, 100 रूपये के मुर्गे और 150 की साड़ी के बदले..नेताओं के लिए बेहद सस्ते इन जानवरों के प्रति “पहाड़ के नाम” पर बने सूबे की सरकारों का कोई वास्ता नहीं होता।

सचमुच यह इतनी सटीक टिप्पणी लगती है कि इस से आगे कोई शब्द ही नहीं पनपते! पहाड़ के गाँव दिनों-दिन खाली हो रहे हैं. लेकिन सुध लेने वाला कोई नहीं. इस बार की भाजपा सरकार ने तो अपने घोषणा-पत्र में पहाड़ के पलायन को मुख्य मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा है! लेकिन सौ दिन पूरा करने के पश्चात् भी इस सरकार के पास कोई योजना पहाड़ के लिए अभी तक बनी हो ऐसा कहीं दिखने को नहीं मिलता. सिर्फ पहाड़ और उसके गाँव के लिए छलावे के सिवाय आजतक इन 17 सालों में कुछ नहीं हुआ. सड़कें अब उन गाँव ला रास्ता ढूंढ रही हैं जहाँ दिन में सूना तो रात में सियारों के रोने की आवाज गूंजती है. बचे खुचे गाँव हैं भी तो उनके खेतों का बंजरपन उनके आँगन तक पहुँच गया है क्योंकि बालू, जंगली सूअर, बाघ,तेंदुवे अपना साम्राज्य गाँव गाँव तक फैला चुके हैं. एक ओर चीन हमारी नाक में बैठा है दूसरी ओर एनजीटी या अन्य स्वयंसेवी संस्थाएं कस्तूरा बचाने के लिए गाँव खाली करवा रहे हैं. जिसे चीन का सॉफ्ट टार्गेट कहा जा सकता है. क्योंकि अगर हम अपने सीमावर्ती गाँवों को “नो मैन्स जोन” बनाने की जिद में जानवरों को इंसानों से अधिक महत्व दे रहे हैं तब उन जानवरों की भी सुध ले लो जिन्हें पत्रकार अजय रावत चौथी श्रेणी में रखते हैं.

आये दिन मुख्यमंत्री भी करोड़ों की योजनाओं के शिलान्यास करते नजर आ रहे हैं लेकिन अभी तक उनकी किसी भी योजना में पहाड़ के पलायन रोकने की कोई संभावनाएं नजर नहीं आ रही हैं. न चकबंदी पर ही ठोस नीति है न पहाड़ को विलेज टूरिज्म से जोड़ने के कोई तौर तरीके ही नजर आ रहे हैं जिससे युवाओं के कदम रुके व वहीँ वे अपना भविष्य सँवारे. बंदर, भालू, सूअर रोकना तो दूर हिमाचल या जौनसार की तर्ज पर अभी तक ऐसी कोई कृषि नीति तक विकसित नहीं की गयी है जिस से पलायन रुकने की संभावनाएं बने. बहरहाल गाँव की चौथी श्रेणी के ये जानवर भी मर खपकर कब गाँवों की इतिश्री कर दें यह कहा नहीं जा सकता. गाँवों का देश माने जाना वाला अपना भारत कुछ दिनों ऐसी नीतियों के चलते गाँवविहीन देश हो जाएगा इसकी संभावनाएं ज्यादा है!

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