देश में प्रमुख मीडिया संगठनों का बर्चस्व! आखिर कितनी निभाते है हम जिम्मेदारियां…?

देश में प्रमुख मीडिया संगठनों का बर्चस्व! आखिर कितनी निभाते है हम जिम्मेदारियां..?


                            (मनोज इष्टवाल)

  • कितने सुरक्षित हैं मीडियाकर्मी और कौन करे पहल?
  • क्या वर्तमान का मीडियाकर्मी परिपक्वता से कर रहा है अपना कर्म?
  • कितना जानते हैं हम स्वयं के उत्तरदायित्व व अधिकारों को!
  • कौन और कैसे लड़ी जाय लड़ाई..!

यह तो तय है कि संचार माध्यम का विकास सर्व प्रथम यूरोप में शुरू हुआ और भारत में प्रिटिंग प्रेस जिसे हम पहला मुद्रणालय पुर्तगालियों द्वारा 1550 ई. में स्थापित किया गया. तदोपरांत लगभग 100 बर्ष बाद ब्रिटिशों ने 1684 ई. में भारत में दूसरा मुद्रणालय स्थापित किया व जेम्स आगस्टन हिकी द्वारा “हिकीज बंगाल गजट” के नाम से पहला पत्र बाजार में उतारा गया. ” द ओरिजिनल कलकत्ता जनरल एडवाइजर” पत्र के प्रकाशन में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश तथा निष्पक्ष आलोचना करने के कारण हिकी का मुद्रणालय सरकार ने जब्त कर दिया. इस से पत्रकारों की संख्या घटने की जगह बढ़ने लगी और आम आदमी को प्रेस की ताकत का अनुमान हुआ!

इसके बाद तो मानो क्रान्ति आ गयी हो 1780 में “इंडिया गजट” इसी सदी के अंत तक बंगाल कैरियर, एशियाटिक मिरर, ओरिगिनल स्टार, गजट, हेरल्ड, मद्रास कैरियर, मद्रास गजट, समाचार दर्पण, मुंबई, समाचार, सोमप्रकाश, सारनिधि, बॉम्बे टाइम्स, दी फ्रेंड ऑफ़ इंडिया, स्टेटमैन, पॉयनियर, मद्रास मेल, इंग्लिशमैन, द हिन्दू, भारत मित्र, हरिश्चन्द्र, हरिजन, अल हिलाल, अलबिलाग, हमदर्द, तालीफ़-व-इशआद, सैन फ्रांसिस्को सहित सैकड़ों समाचार पत्र बाजार में आये जिसने पहले मुग़ल सामराज्य और बाद में ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों को कलमबद्ध कर मीडिया की ताकत की बानगी पेश की! 
पत्रकारिता की स्वतन्त्रता पर हर काल में प्रहार होता रहा ब्रिटिश काल में तो हर बार नियमों को कठोर से कठोरतम बनाने की कोशिश होती रही. और तब से अब तक दर्जनों एक्ट लागू होने के बाबजूद भी पत्रकारिता के संघर्ष के लिए हर पांचवें बर्ष में कोई न कोई ऐसा एक्ट लागू किया जाने लगता है जिस से मीडियाकर्मियों पर बंदिशें लगाईं जा सकें लेकिन विगत 15 बर्षों से इलेक्ट्रोनिक मीडिया के चलन में आने के बाद एक्ट सुधार या नियमों की कठोरता को भले ही कम किया गया हो लेकिन मीडियाकर्मियों का इन बर्षों में जमकर दोहन होता रहा. मीडिया हाउस अपनी चांदी काटते रहे और मीडियाकर्मी संघर्षों की लड़ाई लड़ते रहे. 
पत्रकारिता का मुख्य प्रारूप छिटककर आम जन से दूर होता गया और पत्रकारिता चारण बंदन का सूत्रधार बनकर रह गयी. जिसकी जितनी बोली उसका उतना ही चरण बंदन..! ऐसे में पत्रकारिता मरती रही और मीडिया घराने बुलंद होते रहे. मीडिया घरानों के बाजारीकरण के साथ ही पत्रकारिता ने जहाँ अपना स्वरूप खोना शुरू कर दिया वहीँ चारण व भाट पत्रकारिता के साथ ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता का पदार्पण होना शुरू हो गया. ऐसे तथाकथित पत्रकार बमुश्किल 5 से 7 बर्ष में करोड़पति बन गए और जो पत्रकारिता की अस्मिता बचाने की जद्दोजहद में पत्रकारिता करते रहे वे हाशिये पर खिसकते खिसकते गुमनामियों का जीवन जीने को मजबूर हो गए.
ऐसे में पत्रकारों ने अपने हितों के लिए संगठन बनाने की पैरवी शुरू कर दी फिर देश में एक के बाद एक पांच चुनिन्दा मीडिया संगठन बनकर उभरे जिनमें समाचार पत्र स्वामियों का संगठन आई.ई.एन.एस (इंडियन एंड ईस्टर्न न्यूज़पेपर सोसाइटी),  वहीँ पत्रकारों का आई.ओ.जे. ( इंटरनेशनल आर्गेनाइजेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट नामक अंतर्राष्ट्रीय संगठन, आई.एफ.डब्ल्यू. जे. (इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट) नामक अखिल भारतीय पत्रकार संगठन, ए.बी.सी. (ऑडिट ब्यूरो ऑफ़ सर्कुलेशन नामक समाचार पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार-संख्या से सम्बन्धित संगठन तथा एन.यू.जे. (नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स नामक पत्रकारों का राष्ट्रीय संगठन प्रमुख हैं!

ऐसा नहीं है कि इन संगठनों ने पत्रकार हितों की पैरवी नहीं की हो लेकिन प्रदेशों में आज भी मीडियाकर्मी रक्षाकवच के रूप में इन संगठनों से न्याय की कम हि उम्मीद कर पाए हैं क्योंकि प्रदेशों में इन संगठनों की इकाइयों के अधिकतर पदाधिकारी सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे को देखकर इसे सिर्फ अपनी स्वार्थ सिद्धता का जरिया मानता है. ऐसे हजारों प्रकरण आये दिन पूरे देश में सामने आते हैं जब कई पत्रकार मित्र अपनी जान जोखिम में डालकर खबरें जुटाते हैं और मीडिया घराने उसकी सांठ-गाँठ कर ऐसी खबरों का सौदा मीडिया कर्मियों को ही सेवा से बेदखल कर देते हैं तब जाने ये संगठन कहाँ सोये रहते हैं. सच तो ये है कि इनकी बातें प्रदेश तक ही सिमटकर रह जाती हैं क्योंकि न तो संगठन ही अपनी अप्रोच सेंटर तक करता है और न ही पत्रकार के पास ऐसे कोई माध्यम हैं जिनसे वह अपनी सफाई के लिए प्लेटफोर्म तैयार कर सके. ऐसे में प्रेस कौंसिल तक अपनी बात मजबूती से पहुंचाने के लिए या रखने के लिए न तो संगठन ही एकजुट होता है और न स्वयं मीडियाकर्मी इतना सबल होता है कि वह अपनी बात रख सके. 

ऐसे कई हादसे हुए हैं कि कई ईमानदार पत्रकारों को अपनी ईमानदारी के रूप में जान गंवानी पड़ी और प्रोपोगंडा यह हुआ कि यह मीडियाकर्मी जाने कितनों को ब्लैकमेल कर रहा था. अच्छा हुआ जो मर गया! ऐसे में क्या प्रेस और पत्रकार की परिभाषा स्पष्ट हो सकती है? यही बड़ा प्रश्न है. मीडिया कर्मी के लिए ये चुनौतियां अब आये दिन घटने की जगह बढ़ने ही लगेंगी क्योंकि अब ज्यादातर पत्रकार अदकचरे उभर कर सामने आये हैं जिन्होंने न तो मॉस-कॉम का ही कोर्स किया है और यदि किया भी है तो उसकी उन्हें समझ ही नहीं है! अत: संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल अधिकार, देशी समाचार पत्र अधिनियम 1878, समाचार पत्र अधिनयम 1908, भारतीय समाचार पत्र अधिनियम 1910,  मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14-35),  प्रेस और नैतिकता अर्थात भारतीय दंड संहिता में लोक-शालीनता और नैतिकता सम्बन्ध धारा 292 तथा 292 क, सूचना-प्रौधोगिकी अधिनयम-2000, प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनयम 1867, प्रेस परिषद् अधिनियम 1978, पत्रकार, गैर पत्रकार सेवासुधार अधिनयम-1955, औद्योगिक अधिनियम 1955 का अनुच्छेद 26 (ए) सहित ऐसे कई एक्ट हैं जिन्हें हर मीडियाकर्मी को पढ़ना चाहिए क्योंकि इनकी जानकारी के बिना वर्तमान में अपने को मीडियाकर्मी कहना बेईमानी है क्योंकि आज भले ही भौतिकता के साथ मीडियाकर्मियों के वेतन में उत्तरोत्तर वृद्धि दर्शाई गयी हो या हो रही हो लेकिन संकट की घड़ी में कहीं भी अगर आपके साथ आपके संगठन खड़े होने से कतराते हैं और आप मीडियाकर्मी के रूप में पुख्ता प्रमाणों के साथ अपनी पैरवी के लिए इन संगठनों या प्रेस कौंसिल के पास अपनी शिकायत दर्ज करते हैं तब तय मानिए कि आप विशुद्ध रूप से लोकतंत्र की रक्षा के प्रहरी कहलायेंगे!  

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