देव पूजा में दिशा-ध्याणीयों के आगमन से खुश होते हैं ग्राम देवता और खुश होती है गॉव की थाती-माटी ..!
देव पूजा में दिशा-ध्याणीयों के आगमन से खुश होते हैं ग्राम देवता और खुश होती है गॉव की थाती-माटी ..!
(मनोज इष्टवाल)
हमारे पूर्वजों के गॉव इसोटी पट्टी मवालस्यूं जिला पौड़ी गढ़वाल में विगत बर्ष की भांति फिर इन्हीं दिनों देव पूजा हुई. माँ दीवा सभी का कल्याण करे. न सिर्फ इसोटी बल्कि मेरी चाची के मायके नैल गाँव में भी झाली-माली व माँ राजराजेश्वरी की पूजा इन्हीं गर्मियों में होती है! सोशल मीडिया के जमाने में ये तो आम सी बात है कि कौन आया कौन नहीं आया सभी फोटो फेसबुक या व्ह्ट्सअप्स के माध्यम से एक दूसरे के पास पहुँच जाती हैं. गॉव की बेटियाँ बहुतायत रूप से शिरकत करती हुई पूजा में दिखी हैं. उनमें बहन, बुआ, फूफू, भांजी इत्यादि भी जरूर शामिल रही होंगी क्योंकि देव कार्य में शिरकत करने के लिए सभी अपने मायके आने को उत्सुक रहती हैं और जो आ नहीं पाती उनका पूरा ध्यान इसी बात पर रहता है कि जाने कौन सखी आई होगी जाने कौन भाई आया होगा जिन्हें बर्षो से देखा नहीं है.
पूरी उम्र गुजर जाती है लेकिन दिशा-ध्याणीयों का यह माया लोभ कभी नहीं मिटता! मेरे मायके में ये हो रहा होगा मेरे मायके में वो हो रहा होगा यह आत्मीयता उनकी बनी रहती है. मैं अपनी बहनों को जब आपस में बात करते देखता हूँ और सुनता हूँ तो दिल की हूक शांत नहीं कर पाता.. भाव-विह्वल हो जाता हूँ. सम्पन्न घरों में होने के बाद भी जब वो इकट्ठा होती हैं और उनमें से कोई एक बस इतना भर कह दे- “हिरां मैत त तभी तक छायो, जब तक बुवाजी बच्यां छाया” तो एक साथ मायके की याद में सबके आंसू झरने लगते हैं. सचमुच ह्रदय पटल में ऐसी पीड़ा उठती है कि उसे बहनों से छुपाना बहुत मुश्किल होता है. मेरे पिताजी या ताऊ चाचाजी ने ये संस्कार तो मुझे दिए हैं कि मैं किसी भी शुभ कार्य में कभी भी दिशा-ध्याणीयों का निरादर नहीं करता उन्हें जरुर बुलाता हूँ. जो जितने गरीब घर से होगी उसे उतना पहले आमंत्रण भेजता हूँ. शायद उन्ही का आशीर्वाद है कि जिंदगी के हजारो उतार चढ़ाव आने के बाद भी मुझ पर एक खरोंच तक नहीं लगी. वे भाइयों का रक्षा-कवच जो हुई.
मुझे बरबस ही अभी हाल में सम्पन्न हुई अपने भतीजे पंकज की शादी की याद आ गयी. ब्यस्तता के कारण शादी में शिरकत करने पहुंची अपनी ही बहनों से इस बार मैं उतना घुल-मिलकर बात नहीं कर सका जितना पहली बार किया करता था. रिस्पेशन का टेंट उखड़कर हम अभी सामान संभाल ही रहे थे कि एक तरफ एक बहन मुंह करके खडी आंसू बहा रही थी तो दूसरी तरफ बिटिया के आंसू निकल रहे थे. उन्हें शायद यह लग रहा था कि आज दुनिया भर के सुख संसाधन देहरादून जैसे महानगर में हम भाइयों के पास हैं लेकिन उन अभावों का वह समय अब नहीं बचा हुआ है जब कम खाकर भी संतोष और प्यार के बोलों से गाँव की माटी से लिपि उस डंडयाळी (बरामदे) में सब ऐसे विवाह या देवकार्य निबटाकर थके हारे अपने सुख दुःख आपस में बांटकर रातें गुजार देते थे.
इधर विवाह निबटा नहीं कि उधर बहनों बेटियों की विदाई के लिए डिब्बे साड़ियाँ लिफ़ाफ़े सजने शुरू हो गए थे. जिन्हें ज्यादा दूर जाना है उन्हें उतनी जल्दी टीका लगाने की रस्म अदायगी भी शुरू हो जाती है ताकि वे समय पर अपने घर अपने ससुराल पहुँच सकें. भला ऐसे में किसे ध्यान होता है कि बेटियों के मन में आखिर चल क्या रहा है.
हम दोनों परिवारों की सबसे बड़ी बेटी पिंकी बचपन से ही हमारी लाड़ली रही! बहन की आँखों के आंसू एक बार इसलिए सहन भी हो गए कि हो सकता है हाल ही में माँ का देहांत हुआ तो उसे इस लिए बुरा लग रहा होगा लेकिन पिंकी के पहली बार बर्षों बाद यूँ आँखों में तैरते आंसू किसी शूल की भाँती दिल को चुभे! लगा कहीं तो बेटियों को समझने में हम आज भी भूल करते हैं. कुसुम यशोदा पिंकी तीनों को अलग अलग दिशा से लाकर पास बिठाया बड़ी मुश्किल से सभी नार्मल हुई ! मेरा शक सही था कि मेरी बहन के आंसू इसलिए मंडरा रहे हैं कि मैं उन्हें समय नहीं दे पाया! छोटे भाई या बड़े भाइयों ने शायद समय के साथ साथ बाहरी मन में बदलाव ला दिया था इसलिए बहनें अब उनसे नाराज भी नहीं होती थी सबकी आस की किरण मैं जो हुआ ! सबका गुस्सा नशा मैं ही सहन करता उन्हें समझता और खुश करता ! यही तो बेटियों को चाहिए और क्या!
पिंकी ने आखिर अपना दर्द बयान कर ही दिया बोली- चाचा.. जब उम्र कम थी तब गाँव कम याद आता था क्योंकि तब शायद घर ग्रहस्थ की ज्यादा चिंता हुआ करती थी अब जब बेटियाँ अपने बराबर हो गयी हैं. सब साधन सम्पन्न हैं लेकिन फिर भी दिल कचोटता है कि काश…मेरे मैती गाँव में रहते तो कैसे अपने खेत खलिहान पनघट गाँव की काकी बोड़ी बचपन की सहेलियों भाइयों से मिल पाती! कोई खबरसार पूछता, कोई घर परिवार का दर्द बयान करता! किसी के घर चाय मिलती किसी के घर मंडूवे की रोटी और वह अनमोल प्यार जो शहरों में कहीं नहीं है. जब से मुझे सुगर की शिकायत हुई है तब से हर बार सोचती हूँ कि कब मेरे मायके वाले कहेंगे कि पिंकी चल- अबकी बार गाँव चलते हैं. हर बार बर्षों से यही सोचती हूँ कि जाने गाँव देख भी पाउंगी या नहीं! मायके के वही आँगन आज भी भले लगते हैं जहाँ प्यार का ऐसा भंडार था जिसमें हम सब रहा करते थे. आज हम सबकी कोठियां हैं. आदमी कम कमरे ज्यादा हैं लेकिन दिल तंग हो गए हैं. प्यार का मतलब अब पैंसा है क्या?
सच कहूँ बेटी की यह पीड़ा इतना बड़ा घाव कर गयी कि अब सोच लिया गाँव के टूटे मकान के उस हिस्से को जरुर ठीक करवाऊंगा जहाँ हम सबका बचपन लकडपन और खुशियाँ दबी हुई हैं ताकि जब भी मौक़ा मिले बहनों, बेटियों, फुफुओं को बुलावा भेज सकूँ और उनके आशीषवचनों का पुण्य प्राप्त कर सकूँ!
माँ के बार्षिक श्राद्ध के बाद देवकार्य की एक ऐसी पूजा करूँ जिसमें हमारा वही भरा पूरा परिवार देखे जिसे दिशा-ध्यानियों के हँसते मुस्कराते चेहरे गाँव पहुँचते वक्त दिखें और विदाई की वो सजल पलकें भी जिनसे झरते मोती घर आँगन में खुशहाली की नई कोंपले ला कर फिर मेरे गाँव का ग्रामीण आँचल मुझे सौंप दे ! वह ग्रामीण आँचल जिसे हम अपनी भौतिकता की भूख में बंजर कर चुके हैं.