देवस्वरूप माने जाते हैं महासू देवता के घांडूवा (बकरा)!
देवस्वरूप माने जाते हैं महासू देवता के घांडूवा (बकरा)!
(मनोज इष्टवाल)
यूँ तो जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र अपनी विभिन्न विविधताओं के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध है लेकिन धर्म और लोक संस्कृति में पूरे प्रदेश में उसका कोई सानी नहीं है. बलि प्रथा को लेकर हिन्दू समाज भले ही अब सचेता हो लेकिन इस समाज के देवता को चढ़ाये जाने वाले घांडूवा (बकरे) मारे नहीं जाते बल्कि वो पूरी उम्र जीते हैं. और जब स्वयं ही अपनी मौत मरते हैं तब उनका मांस प्रसाद के तौर पर गाँव भर में बांटा जाता है.
(महासू देवता का घांडूवा)
घांडूवा अपने आप में महासू के ज्युंदाल ( अभिमंत्रित चावल) पड़ते ही महासू तुल्य माने जाते हैं. ये बकरे आपको महासू मंदिर के हर प्रांगण में मिल जायेंगे. आज से लगभग 10 बर्ष पूर्व हनोल स्थित महासू मंदिर में ऐसे भी घांडूवा देखे गए हैं जिन्हें अगर कोई श्रद्धालु पसंद नहीं आये तो वे उसे मंदिर में प्रवेश नहीं करने देते थे. ज्यादातर यह इत्तेफाक तब होता था जब कोई महिला प्रवेश करना चाह रही हो.
ज्यादातर घांडूवा घर में पाले गए छोटे से बकरे होते हैं जिन्हें पैदा होते ही देवता को समर्पित करने की परंपरा रही है. वो जितने दिन भी घर में बंधा होता है उसे जूठन नहीं खिलाया जाता. घांडूवा जब मंदिर में चढ़ा लिया जाता है तब यह घांडूवा की मर्जी पर निर्भर है कि वह कहाँ कहाँ विचरण करे.
वह किसी के खेत में घुस कर साग सब्जी या अन्न की बालें या हरियाली चुग जाए तो कोई उसे अपने खेत से नहीं भगाता चाहे वह रोज आकर एक ही खेत को चुगता रहे. वह किसी के घर में घुस जाय तब भी उसे भगाया नहीं जाता. यह घांडूवा पर निर्भर करता है कि वह आपके घर में कितनी देर ठहरे क्या खाए क्या न खाए.
लोक मान्यता है कि घांडूवा जिस खेत को चर लेता है उसमें दुगनी पैदावार होती है. जिसके घर में घुस जाए वहां साल भर सुख समृधि बनी रहती है. जौनसार बावर के हर महासू मंदिर में आपको ऐसे कई घांडूवा घूमते नजर आ जायेंगे. ऐसा भी नहीं है कि इन मंदिरों में बकरे नहीं काटे जाते. लेकिन घांडूवा मन्नत का वह बकरा है जिस पर औजार नहीं चलाया जाता. इसे देवता का रथ भी कहा जाता है इसलिए लोकमान्यताओं के आधार पर घांडूवा कहीं भी कभी भी विचरण करले उन्हें कोई रोक टोक नहीं होती.