देवलांग को बग्वाल समझना एक सामाजिक भूल।

देवलांग को बग्वाल समझना एक सामाजिक भूल …!
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(विजयपाल रावत की कलम से)
अनेक विद्वान साथियों का मानना है कि रंवाई घाटी के बनाल पट्टी की देवलांग गढ़वाल रियासत के वीर भड़ सेनापती माधो सिंह भंडारी की विजय पर्व में मनायी जाने वाली बग्वाल का ही एक रूप है। मुझे लगता है ऐसा मानना या इसे गढ़वाल की बग्वाल से जोड़ना रंवाई की इस विशिष्ट लोक संस्कृति के सामाजिक पहलू को अनदेखा करने जैसा होगा।

देवलांग का आयोजन सिमांत जनपद उत्तरकाशी में नौगांव विकासखंड में दो जगह, बनाल पट्टी के गैर गांव तथा ठकराल पट्टी के कोटी गांव में होता है। इन दोनों देवलांग में बनाल पट्टी के गैर गाँव की देवलांग काफी प्रसिद्ध है।
नौगांव विकासखंड के ये इकलौते ऐसे उत्सव है जिनका आयोजन रात को किया जाता है। ऐसे रात के उत्सवों को रंवाई तथा जौनसार में जागड़ा अर्थात जागर या जागरण कहा जाता है। जो की विशुद्ध रूप से महासू देवता का एक उत्सव है जिसे उनके प्रभावी क्षेत्रों में आयोजित किया जाता है। जो हिमांचल से सट्टे जौनसार और रंवाई के पुरोला विकास खंड के चंदेली गांव तक नियमित रूप से शीत ऋतु में नियमित रूप से अलग अलग स्थानों पर अलग अलग तिथि में मनाया जाता है। जिनमें आस पास के गांव के महिला पुरूष सम्मिलित होकर पूरी रात मशाल की रोशनियों में नृत्य गान कर सुबह खुलते ही अपने घर लौट आते है।
हम अगर इस देवलांग के आयोजक क्षेत्र बनाल के गाँवों का सामाजिक अध्ययन करें तो हम पाते हैं की बनाल पट्टी के अधिकांशतः गांवों के रिश्ते-नाते नौगांव विकासखंड के आस पास के क्षेत्रों की अपेक्षा पुरोलो क्षेत्र के गाँवों से अधिक है। यह स्थिति यहाँ के लगभग हर जाति के लोगों के रिश्तों में देखने को मिलती है। इसके साथ ही इस उत्सव में शामिल होने वालों में पुरोला के ग्रामीणों की तादात नजदीकी नौगांव क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक होती है।
यह भी सर्व विदित है की बनाल पट्टी के पुजेली और गैर गाँव तथा ठकराल पट्टी के कोटी गांव में स्थापित राजा रघुनाथ के मंदिर को कुछ वर्ष पूर्व महासू देवता के नाम से ही संबोधित किया जाता था। यहां तक की हनौल में स्थित महासू को भी वहाँ के स्थानीय लोग आज भी राजा रघुनाथ ही कहते है।
देवलांग के आयोजन स्थल के इस क्षेत्र का सबसे अलग पहलू इस उत्सव में शामिल होने वाले ग्रामीणों के दो थोक (दल) शांटी थोक और पांशायी थोक है जो कौरवों और पांडवों के प्रतीक हैं। यही शांटी-पांशायी थोकों की व्यवस्था पूरे नौगांव विकासखंड में अन्य कहीं भी नहीं दिखायी देती जबकी दूसरी तरफ रंवाई-जौनसार के महासू की मान्यता वाले क्षेत्रों में यह विधिवत् रूप से विराजमान है।
इसलिये इन सारे तथ्यों के आधार पर यह कहना ज्यादा तर्कसंगत हो जाता है की यह देवलांग का पर्व महासू संस्कृति के एक जागड़ा का ही स्वरूप है जिसे हिमांचल के सिरमौर से लेकर जौनसार तथा रंवाई के बनाल-गैर गांव तक मनाया जाता है। जो महासू संस्कृति के प्रतीक के रूप में देखा जाना चाहिए।
देवलांग को माधो सिंह भंडारी की बग्वाल से जोड़ कर ना देखने का मुख्य कारण यह भी है की इस क्षेत्र के नजदीकी गाँव पौंटी, कंताडी तथा सौंदाडी में इस देवलांग का आयोजन नहीं होता। जबकि ये गांव मूलतः भंडारी जाती बाहुल्य के गांव है। जो मूलतः टिहरी के मलेथा से ही यहां बसे हैं जो माधो सिंह भंडारी के वंशज हैं।
यह सारे प्रमाण मेरी दृष्टि में इस देवलांग को इसकी अपनी अलग और विशिष्ट महासू संस्कृति के रूप में स्थापित करती है। पुराने साहित्यकारों ने एवं इतिहासकारों ने भले ही इसे तब माधो सिंह भंडारी की बग्वाल से जोड़ कर प्रस्तुत किया हो लेकिन आज का नया शोध और आधुनिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण इसे आज भी महासू की विशिष्ट संस्कृति के रूप में स्थापित करता है।

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