दुल्हन पक्ष के लिए शाही फरमान से कम नहीं होता सापटा।

दुल्हन के जूड़े में समाये हैं 33 कोटि देवी देवता……….।
क्रमशः……
(मनोज इष्टवाल)
5-सापटा- स्याह पट्ठा या स्याही पट्ठ सापटा का शुद्ध हिंदी अर्थ कहा जा सकता है। जिसका मतलब हुआ स्याही से लिखे आखर या निर्देश।वर ब्राह्मण सापटा में वर वधू की जन्मकुंडली के मिलान के अनुसार समस्त वैवाहिक कार्यक्रम लिखकर बारात के दुल्हन आवास पहुँचने से पहले भिजवाता है। इसके लिए दूल्हा पक्ष के बेहद समझदार व प्रतिष्ठित व्यक्ति को पूर्व में भेजा जाता था। अक्सर सापटा और दै परोठी लेकर कम से तीन व्यक्ति बारात पहुँचने से पहले एक दिन या एक घंटे पूर्व दुल्हन के घर पहुंच जाते हैं जिन्हें आदर सत्कार के साथ टीका पिठाई के साथ उचित सम्मान दिया जाता है।
सापटा के कार्यक्रमानुसार ही फिर दुल्हन पक्ष के ब्राह्मण अग्रिम कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करते थे। जैसे बारात आगमन पर पूजा, गोत्राचार, बारात पिठाई, वेदी पूजा, गौ दान और कन्यादान। लेकिन वक्त के साथ यह सारा सिस्टम बदल गया है। सापटा की कीमत भी अब जल्दबाजी के विवाह समारोहों ने नगण्य कर दी है जबकि पूर्व में यह पट्टा एक शाही आदेश के समान समझा जाता था। यह भोजपत्र, कागज़, कपडा-कागली इत्यादि पर लिखा जाता रहा है।

6-बाराती रुसाडु- सीधी सी बात थी कुछ बर्ष पहले तक यह प्रथा थी क़ि जाति-धर्म, जात-पात अपने अपने तरीके से व्यवस्थित थे लेकिन कहीं ज्यादा ही अति भी थी इसमें मना नहीं किया जा सकता। धर्म कर्म और अनुष्ठानिक परंपरा वाले लोग आज भी यह सब लेकर चलते हैं। आज भी राजपूती गॉव बिना सरोला के पंगत का खाना नहीं खाते। पहले ब्राह्मण वर्ग की महिलाएं इन बातों का विशेष ध्यान रखती थी। अगर वह सरोला जाति उनकी मायके की जाति या ससुराल की जाति से कमतर हो तो वह सरोला का पकाया खाना भी नहीं खाती। देखा देखी में अब कई राजपूताना जातियों की महिलाएं भी ऐसा ही अनुशरण करती दिखाई देती हैं।
लेकिन हंसी तब आती है जब यही माँ बहनें, हम चुटिया वाले पंडित, वो मूंछों वाले राजपूत शहरों में स्टैंडिंग भोजन करते समय खूब चावल डंकारते हुए यह नहीं देखते कि पकाने वाला कौन और उनसे टकराने वाला कौन? जबकि यही गॉव में अपनी बगल में बैठने वाले को झांककर  जरूर देखते हैं कि पंगत में बैठा कौन जाति धर्मी है। यही समस्या का समाधान करने बाराती हमेशा अपने साथ अपना सरोला लेकर चलते थे व उनकी पकने वाली रसोई अलग लगती थी ताकि उन्हें ज्ञात रहे कि उनकी पंगत में बैठा व्यक्ति उन्हीं के समान्तर है।
यह प्रथा अब प्रथा ही रह गयी है क्योंकि अब बाराती रुसाडा बहुत कम दिखने को मिलता है क्योंकि गॉव ज्यादातर खाली हो गए हैं। सरोला ज्यादातर जातियां अपना पेशा छोड़ चुके हैं। अब गॉव में भी स्टैंडिंग भोजन का रिवाज पाँव पसार चुका है। ठीक वैसे ही जैसे ढोल पर डीजे भारी पड़ रहे हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *