दुल्हन अपने जूड़े में समेटे रहती थी तेंतीस कोटि देवी-देवता……!

दुल्हन अपने जूड़े में समेटे रहती थी तेंतीस कोटि देवी-देवता……!
(मनोज इष्टवाल)
कई मित्रों के सोशल साईट पर पर्सनल व मेसेंजर में प्राप्त संदेशों के बाद आखिर मुझे लिखने को बाध्य ही होना पड़ा क़ि देवभूमि की एक शादी में प्रयुक्त सामग्री क्या है और लोक सांस्कृतिक महत्व की दृष्टि से उनका क्या महत्व होता था। मुझे बेहद पीड़ा भी हुई क़ि हम सबके पास मात्र दो तीन वस्तुओं की जानकारी का ही जवाब था जबकि बाकी सब इस बिषय में चुप्पी साध गए।
मैंने कुछ दिन पहले सोशल साइट पर प्रश्न उठाया था…! बर्ष 2016 में लिखा गया मेरा लेख आज भी हमारी पुरातन मान्यताओं का ऐसा दर्पण है जो समाज में हमें बिल्कुल अलग सा खड़ा कर गौरान्वित होने का मौक़ा देता है!
मैंने प्रश्न उठाया था कि-  खो गए पहाड़ के लोक का परिचय देने वाली पितगुली, डाली व पैंणा, खुछखण्डी, दैई परोठी, भित्तरखवै! जो मित्र जानते हों तो इन तीनों को अपने अपने तरीके से परिभाषित करने की कृपा करें? लेकिन अफ़सोस डाली , पैणा से आगे बड़ी मुश्किल से एक आध् ही ब्यक्ति बढ़ पाया। शुक्र है मैंने प्रश्न में सतपुड़ा नहीं जोड़ा। या पर्दा नहीं जोड़ा।

उत्तराखंडी शादी में जितने विधि विधान समावेशित हैं शायद ही ऐसी दुर्लभ शादी कहीं और होती होगी। पीताम्बरी वस्त्र पहनकर बिष्णु भगवान् और रक्तिम वस्त्र पहनकर वेदिका व् अग्नि के साथ फेरे लेने वाली लक्ष्मी वर वधू की जोड़ी पर लिखने के लिए बहुत है लेकिन लोक संस्कृति में व्याप्त हमारे कुछ रीति रिवाजों को हम धीरे धीरे उसी तरह मिटा रहे हैं जिस तरह बिष्णु स्वरूपा वर और लक्ष्मी स्वरुपा वधु का स्वरूप। शराबियों के उत्पात और कलुषित मानसिकता के चन्द लोगों के डर से चार दिन होने वाली धकाधूम पहाड़ों में भी सिमटकर दो दिन हो गयी। दिन में ही बारात दिन में ही गोत्राचार दिन में ही धुली अर्क शास्त्र सम्मत न होते हुए भी विवाह का माध्यम बनाया जा रहा है।न पर्दा न गौत्राचार बस सीधे जय माला जो कि कहीं परम्पराओं में समावेशित थी ही नहीं! खैर यह बिषयगत अलग है इसलिये  इस पर बाद में लिखूंगा पहले निम्नवत रस्मों का लेखा जोखा पेश करता हूँ। जैसे-
सुहाग पूड़ा-
परदा-
खुचकण्डी-
दै परोठी-
सापट्टा-
बाराती रूसाडू-
सस भेंट-
पैणा पकोड़ी-
पैणा डाली-
भित्तऱ खवै-
पौंण पिठाई-
बखुरु खवै-
घमतपै-
इत्यादि सहित कई अन्य परंपराएं व रीति रिवाज रहे हैं जिन पर मैं लिखने की दृढ़ता कर रहा हूँ।

1- सुहाग पूड़ा- “त्रयम त्रियसन्ति यथो देव:”  इसको सत पूड़ा या शीशफूल भी कहा गया है। यह वर पक्ष की ओर से बेहद विधि विधान से गोबर गणेश की मौजूदगी में ब्राह्मण द्वारा बेहद कठिनाई से बनाया जाने वाला कागज़ का वह यंत्र है जिसे दुल्हन की मुंड बंधाई (बाल बंधाई) के समय जूड़े परयानि सभी बालों के शुरूआती जोड़ पर बांधा जाता है। इसके 33 कोने बनाये जाते हैं जिनमे 33 कोटि देवी देवता अप्रत्यक्ष रूप से समाहित होते हैं। इसके 33 कोनों पर सिंदूर लगाईं जाती है व् बीच में स्वस्ति चिन्ह अंकित किया जाता है। कई ब्राह्मण इस के बीच में ॐ भी बनाते हैं।फिर इसको अभिमंत्रित करने के लिए –“ॐ स्वस्तिनाइन्द्रो वृहदसर्वा, स्वस्तिनो पूषो विश्वदेवा …जैसा मन्त्र बोलकर इसकी 7 तह बनायी जाती है। ये सात तह लगाने के पीछे कहा जाता है कि एक कुल देवता एक ब्राह्मण देवता, और पांच कुलदेवता के नाम शामिल हैं । कोई इन्हें सप्तऋषि मंडप से जोड़कर देखता है। अर्थात यह कागज़ का बनाया हुआ सुहाग पूड़ा सात श्रृंगारों में सबसे ऊपर माना जाता है जो वधु स्वरूपा देवी लक्ष्मी का मूर्त रूप हुआ। अब यह सुहाग पूड़ा कहाँ अंतर्ध्यान हो गया पता नहीं अब इसकी स्थान पर जूड़े में कांटे सजाए जाते हैं जिन्हें हम जूड़ा पिन कहते हैं।
2- परदा- गोत्राचार में प्रवेश करते समय तक पूर्व में न दुल्हन बारात ही देख सकती थी ना दूल्हे को ही देख सकती थी। आज ये रस्म गौण ही गयी है क्योंकि अब कन्यादान विवाह गंदर्भ विवाह बन गया है। जयमाला डालो छुट्टी। जाने क्यों लोग फेरों के पक्ष में भी रहते हैं। आधुनिकता के लिवास ने पुरातन रीति रस्म समाप्त कर दिए हैं।गौत्राचार प्रारम्भ होते ही वर डाली अर्थात दूल्हे पक्ष की ओर से शगुन मिठाई के रूप में उसके परिजन थाल भर भरकर ले जाते थे जिनका वहाँ टीका होता था गोत्राचार में दूल्हे को दुल्हन का अंगूठा पकड़ाने की रस्म के बाद बीच का पर्दा तब हटाया जाता था जब वधु पक्ष का ब्राहमण वर पक्ष से सम्पूर्ण जानकारी हासिल कर लेता था जिसमे गोत्र प्रवर शाखा मध्याविनि सहित दादा परदादा नाना नानी के खानदान की सम्पूर्ण जानकारी सम्मिलित होती थी यह वार्तालाप सुनते ही बनता था दूल्हे के दोस्त व दुल्हन की सहेलियां अक्सर गौत्राचार में ही एक दूसरे से ज्यादा शरारत करते थे। अब यह प्रचलन नाममात्र का है । पर्दा तो जाने कब का हट गया है। वरडाली कब गयी कौन ले गया ये बंद बक्से या शूट केश ही जाने । हाँ परिवार के सम्मिलित सज्जनों को तब पता चलता है जब उसके पास पिठाई का लिफाफा पहुंचता है।

3-खुचकंडी- इसे आप भाषा में खुछकंडी या खुजकण्डी इत्यादि के नाम से भी जाना जाता है। जिनका शाब्दिक अर्थ/भावार्थ खुली कंडी हुआ।  उत्तराखंडी लोक संस्कृति की यह कंडी तब ज्यादा चर्चित रहती थी जब बारातें मीलों लम्बा सफर तय कर दुल्हन के घर पहुँचती थी तब वर पक्ष की ओर से भी अरसे रोटी की टोकरी हरे पत्ते रखकर किसी साफ़ सुथरे कपडे से बांधकर दुल्हन के गॉव जाती थी लेकिन एक टोकरी ऐसी भी होती थी जिसे बाँधा नहीं जाता था वह खुली कंडी यानि खुचकंडी कहलाती थी। कंडी के साथ एक पाठा घी या दो माणि या एक माणि घी भी जाता था वह बिशेषत: इसलिए क़ि लंबे सफर में अगर भूख लगे तो बारातियों को एक या दो अरसे घी के साथ खाने को दिये जा सकें। मुझे आज भी वह घटना याद है जब खुचकंडी की घी का दो माणि घी एक बाराती पी गया और कह दिया क़ि रास्ते वह भूल गया। बात आई गयी हो गयी हम छोटे थे इसलिए उन पर बहुत गुस्सा आया। खैर अर्से यूँहीं बिना घी के खाये। लेकिन जब घी ने असर दिखाया तो सब बाराती लोट पोट हो गए। रास्ते भर वह व्यक्ति तब सचमुच हो शौच जाते ही रहे। नौबत्त यह हुई क़ि उन्हें दो आदमी सहारा देकर दुल्हन के गॉव तक जैसे तैसे लेके गए। उन्हें ऐसे पेचिस हुए कि जब दूल्हा दुहरबाट गया तब वे उनके साथ तीसरे दिन लौटे।
खुचकंडी का प्रचलन धीरे धीरे समाप्त तब होने लगा जब बारात बस जीप से जानी शुरू हुई साथ ही अरसों का लगने वाला तैकी चूल्हा भी धूमिल होना शुरू हो गया। अब लड्डू बालू शाही ने कंडी की जगह पेटी का रूप ले लिया है।
खुचकंडी की तरह बारातियों को सुबह घामतपाई पर एक कंडी नास्ते के रूप में चाय के साथ दुल्हन पक्ष भी देता था साथ में घी भी। अब यह प्रचलन बिरले ही इलाकों में जीवित है जहाँ धर्म संस्कृति जीवित दिखाई देती है।

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