(दुकान- बंगला और ढौंड के डिप्टी) ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल (पार्ट -4)…!गतांक से आगे….!

(दुकान- बंगला और ढौंड के डिप्टी) ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल (पार्ट –4)…!गतांक से आगे….!

(मनोज इष्टवाल)
अहा… सच में अब मजा आया जब खाने की ये रेसिपी आप भी पढेंगे और चटकारे लेंगे! बारहस्यूं का वर्णन जानबूझकर सूक्ष्म कर दिया अगर ऐसा नहीं करूँगा तो आने वाले समय में ढाकर पर जो किताब प्रकाशित करूँगा उसमें भला फिर क्या रख पाउँगा ! फिलहाल आप इस रेसिपी का मजा लीजिये:-
निम्न वर्ग – आधा सेर मंडुआ (एक तिहाई आना), आधा सेर कौणी या झंगोरा (एक तिहाई आना) तथा दाल, सब्जी, नमक तेल लकड़ी सहित कुल सामान सात पाई या सवा आना! इसके बाद आते थे छोटे ब्यापारी और बड़े किसान – आधा सेर लाल गेंहूँ के साथ मोटे चावल, सब्जी दाल आदि कुल दो आना तथा बड़े व्यापारी और धनी लोग इसमें घी दूध जोड़कर सवा तीन आना प्रतिदिन खाते थे! सरकारी वर्ग के अधिकारी व उच्च बर्ग के लोग सफ़ेद गेंहूँ का आटा व चावल खाते थे जो उनके लिए हर पड़ाव पर स्थित बनिया की दूकान में पकता था और यदि अधिकारी बनिया की दूकान का पक्का नहीं खाता तब उसके कर्मचारी जो सवर्ण व ऊँची जाति के होते थे वे उनके लिए खाना पकाते थे ! सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इनकी रेसिपी कितने की पड़ती थी वो तत्कालीन किसी भी अंग्रेज अफसर ने नहीं लिखी जिसका सीधा सा अर्थ था कि ये सब मुफ्तखोर थे और वही मुफ्तखोरी आज तक हमारे अफसरों के खून में शामिल है!

श्रीनगर से लेकर कोटद्वार तक जहाँ 4 ढाकरी पड़ाव हुआ करते थे वहीँ दुगड्डा तक मुख्यत: तीन ही पड़ाव माने जाते थे जिनमें श्रीनगर से पौड़ी की दूरी 7.5 मील (यहाँ बनिया की दूकान व बंगला रात्री बिश्राम के लिए था!), पौड़ी से नैथाना तक 15 मील (नैथाना में बनिया की दूकान व बंगला था बाकी 15 मील तक कोई बँगला या बनिया की दूकान का जिक्र नहीं है), नैथाना से ठिंगाबांज 9  मील (बँगला व बनिया की दूकान),  व ठिंगाबांज से डाडामंडी 7.5 मील (यहाँ बंगला व बनिए की दूकान) और डाडामंडी से सीधे कोटद्वार 13 मील (बाजार व बंगला) था! इस जानकारी से साफ़ लगता है कि ये सभी ढाकरी पड़ाव में जरुर शामिल थे लेकिन यहाँ बंगले सरकारी थे वरना इस सूची में न गंगोटयूँ , अदवाणी शामिल है न बांघाट द्वारीखाल या फिर राजबाट! ये सभी ढाकरियों के पड़ाव हुआ करते थे ! हो न हो तब सिर्फ सरकारी स्तर पर दुकानें उपरोक्त जगह ही रही हों जहाँ लम्बी दूरी के ढाकरी अपना भोजन खरीदते रहे हो! पक्का भोजन भी सेर के हिसाब से मिले ये जरा अटपटा लगता है! हो न हो यह कोरी राशन रही हो जिसे इस भाव खरीदकर पकाया जाता रहा हो और सब अपने अपने चूल्हे इस्तेमाल करते रहे हों!
आपको हैरत होगी कि नैथाना का वह बंगला ब्रिटिशकाल से भी पूर्व यानि गढ़वाल नरेश के काल का बताया जाता है अत: यह कहना उपयुक्त रहेगा कि उस काल अर्थात आज से लगभग 250 बर्ष पूर्व के बंगले के खंडहर अभी भी नैथाना गाँव में नैथाना स्कूल के आस-पास कहीं मौजूद हैं जिसकी फोटो “पुरिया नैथानी ट्रस्ट” के निर्मल नैथानी ने हाल ही में खिंची हैं! उन्होंने बताया कि एक दिन वे किसी मित्र के साथ घूमते हुए निकले और जब पता चला कि यह यात्रा काल में अफसरों का रैन-बसेरा था तब उन्होंने नेपाली को मजदूरी पर लगा कर वहां की झाड़ियाँ कटवाई!
बहरहाल हम दुगड्डा से बारहस्यूं की ओर बढ़ गए हैं लेकिन राम नगर से अभी तक हमने कम ही दूरी तय की है! इसलिए क्यों न हम रामनगर से गढ़वाल के चौथान क्षेत्र के ढाकरी रूट की बात करें! ढाकर रूट दो थे कोटद्वार व यूँ तो चौथान तक आने के लिए दुगड्डा से भी सीधा मार्ग बताया जाता है जिसमें दुगड्डा, चौकिसेरा, रतुवाढाब, बीरोखाल, नंदौली रौला होकर ढौंडियालस्यूं पहुंचा जाता था लेकिन लोग इस रास्ते को तब तबज्जो नहीं देते थे जब रामनगर मंडी विकसित हुई! इसलिए ये लोग ढौंड से जोगीमढ़ी, कालिंका, बीरोंखाल, दीवा, धुमाकोट, शंकरपुर, मर्चुला, ढिकुली, गर्जिया होकर रामनगर जाया करते थे!  
ढौंडियालस्यूं के ढौंड गाँव निवासी ललित प्रसाद ढौंडियाल बताते हैं कि जब भी ढाकरियो का जिक्र होता है तो ढौंड के डिप्टी के किस्सों का अलग स्थान है। आज से लगभग 75 साल पहले की बात है डिप्टी 150 किलो का बोझ उठाकर भी ढाकरियों  में सबसे पहले चलकर उनका मार्गदर्शक बनता  थे! वे बताते हैं कि लगभग 100 साल पहले ढौंड में गरीब ढौंडियाल परिवार मे रहते थे जिनके पास खाने के लिए मोटा अनाज होता था लेकिन  भगवान ने उन्हे निरोग व अन्य मानवों से अधिक शक्तिशाली बनाया था!  ढौंद गाँव काफी बड़ा गाँव हुआ करता था लेकिन आज पलायन ने इस गाँव के ज्यादात्तर घरों में ताले लगा दिए हैं!  यह गाँव इस  इलाके मे लठ पंचायत के नाम से जाना जाता था ! लठ पंचायत का सीधा सा मतलब होता था कि जो ढौंड की पंचायत ने फैसला कर दिया उसे इलाके मे सभी गाँव मानते थे। डिप्टी  का असली नाम कोई नहीं जानता है, सब उनको इसी नाम से जानते थे!
ललित प्रसाद ढौंडियाल बताते हैं कि ढौंड की ढाकर में तब 250 तक ढाकरी होते थे क्योंकि उनका गाँव उस काल में 320 परिवारों का गाँव हुआ करता था!  डिप्टी चूंकि सबसे शक्तिशाली थे तो अपने अलावा दूसरों के लिए भी ढाकर लाया करते थे । उन दिनो ढौंड के यजमान लोग भी अपने ब्राहमणों की सहायता के लिए उनके साथ ढाकर करते थे । ढाकरियों  मे भी ज्यादा बोझा और सबसे पहले रहने के लिए होड़ लगती थी जिसमे डिप्टी को कोई नहीं हारा सका!  उनका खाना भी उतना ही था! वे एक बारी का भात अकेले खा जाते थे!  एक बार शादी मे गाँव की किसी  लड़की के साथ कंडी और अन्य सामान के साथ डिप्टी  ढौंड से उसकी ससुराल चले गए!  उस काल  में  कंडी वाले को टीका और दिहारी मिलते थी!  वहाँ उन्हे खाने के लिए साधारण खाना मिला लेकिन शर्म के मारे वे किसी को बोल भी न पाए!  जिससे रात भर उन्हें भूख लगती रही! सुबह गाँव की एक भैंस कोलणा (पहाड़ी मकानों के पीछे तंग जगह)  पड़ गई उस गाँव के लोग जब भैंस को नहीं निकाल पाये तो डिप्टी ने नीचे कोलना में बैठ कर भैंस को कंधे मे उठाकर निकाल दिया और इनाम मे एक बारी भात बनवाया!
यकीनन ढौंडियाल लोगों की पहचान में डिप्टी नाम जाने कब से प्रचलित है! अक्सर चर्चाओं में मैं कह भी देता था कि आप लोग तो डिप्टी घराने से हो! लेकिन तब डिप्टी कौन थे और कितने शक्तिशाली व्यक्ति थे यह जानकारी नहीं है! बहरहाल ढाकर और ढाकरी पुरातन काल की बाद हो गयी ठीक वैसे ही जैसे ढौंड गाँव के 320 परिवार! क्योंकि आज आधे से ज्यादा घरों में ताले लगे हैं और ललित प्रसाद ढौंडियाल जिन्होंने पूरी जिन्दगी दिल्ली महानगर में काटी द्वारा गाँव आबाद करने के लिए गाँव में एक सुंदर सा मकान बनाकर अन्य प्रवासियों को भी न्यौता दिया है कि लौट आओ- इस अभाव में भी जो सुख है वो कहीं नहीं! यह ढाकर का लेख ललित प्रसाद ढौंडियाल जी को समर्पित!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *