दम तोडती लोक संस्कृति की एक बड़ी विरासत- जौनसार की पुरानी दीवाली!
- जौनसार की अनोखी दीवाली के अनोखे रंग! दीवाली के एक माह बाद क्यों मनाई जाती है जौनसार बावर में दिवाली?
(मनोज इष्टवाल)
उत्तराखंडी लोक संस्कृति की अभी भी साँसे जीवित हैं। धड़कनों में जो उल्लार व प्यार भरा है वह ढोल की घमक क़दमों की चाप और मुंह से फूटते बोलों में एक ऐसा जीता जागता उदाहरण है क़ि सचमुच हर कोई इसे न सिर्फ भरपूर आँखों से निहारना चाहता है बल्कि मन होता है क़ि खुद भी इस रंगत में रंगीन होकर मदमस्त नाचूं और गायूं । लेकिन कैसे यही एक यक्ष प्रश्न है?
लेकिन निकट भविष्य में यह संभव हो पायेगा इसका डर सताने लगा है क्योंकि उत्तराखंड के लोक समाज व लोक संस्कृति की पहचान बनाये रखने में कामयाब जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र की पुरानी दीवाली तेजी से सिमटने लगी है. अब यहाँ का जनमानस भी बम पटाके, लडियां झालर लगाकर नई दीवाली यानि आम दीवाली में शामिल होने लगा है जिस से तेजी के साथ यह दीवाली क्षेत्रों से सिमटकर अब दूरस्थ क्षेत्रों की हि पहचान बनी रह गयी है. ठाणा, कोरुआ इत्यादि कुछ गाँव हैं जो आज भी अपनी पुरानी दियाई (दीवाली के एक माह बाद मनाई जाने वाली दीवाली) को मजबूती के साथ मना रहे हैं! वहीँ दूसरी ओर तेजी से लोगों के कदम आंगनों में बजते ढोल की चापों व लोक नृत्यों गीतों से सिमटकर अपने बंद कमरों में टीवी नाटकों तक सीमित होते जा रहे हैं जो यकीनन एक बहुरंगी संस्कृति के ह्रास के लक्षण दिखाई दे रहे हैं. यही लक्षण मैंने बचपन में अपनी टूटती डूबती संस्कृति के देखे थे जो आज छिन भिन्न हो गयी है!
इस क्षेत्र की एक समाजसेविका बेटी जिसने आईआईटी खडकपुर, पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय सहित अन्य कई शिक्षक संस्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की हुई है वह इस बिखरते तिलिस्म से बेहद ग्लानि महसूस कर खीजती हुई कहती है- सचमुच यह हमारे लिए किसी दुर्घटना से कम नहीं है कि हम तेजी से अपने लोकोत्सवों तीज त्यौहारों से दूर होते जा रहे हैं! पुरानी दियाई अब सुनने में आ रहा है कि हमारी खत्त के 10 गाँवों में भी बंद होने वाली है और अगर ऐसा हुआ तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत पीड़ा होगी क्योंकि जिस दीवाली के लिए हम कई महीनों से तैयारियों में जुटे रहते हैं वह यूँ हाथों से फिसल जायेगी तो हमारा यह वजूद मिटने जैसी घटना है!
लीला चौहान का कहना है कि क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों को इस बारे में पहल करनी चाहिए उन्हें प्रदेश के मुखिया तक यह बात पहुंचानी चाहिए कि जिस तरह यह तेजी से नई दीवाली में तब्दील हो रही है उस से न सिर्फ जनजातीय त्यौहार ख़त्म हो रहा है बल्कि जनजातीय कहलाने का सुख भी इन्हीं के साथ ख़त्म हो जाएगा. वह कहती हैं कि हमें इस संदर्भ में आवाज उठानी होगी कि पुरानी दीवाली के लिए दो दिवसीय राजकीय अवकाश उस क्षेत्र के सरकारी कर्मियों व स्कूली बच्चों के लिए निहित हो जहाँ जहाँ भी यह लोक संस्कृति है. इस से कम से कम हम अपनी पुरातन संस्कृति को बचाने में सफल तो हो सकेंगे क्योंकि पुरानी दीवाली की छुट्टी न मिलने से अक्सर युवा व उनके माँ बाप अपने इस त्यौहार को धीरे धीरे नए त्यौहार में बदलकर इस अमूल्य संस्कृति का ह्रास कर रहे हैं.
जौनसार में पहाड़ी (बूढ़ी) दिवाली का जश्न शुरू हो गया है। पांच दिवसीय दिवाली का पहला दिन होलाड़े होलियात के रूप में मनाया गया। ग्रामीणों ने पंचायती आंगन में मशालें जलाईं। इसके बाद दिनभर ढोल दमाऊं की थाप व लोक गीतों पर ग्रामीण पारंपरिक नृत्य करते हुए जश्न मनाते रहे। अमावस्या की काली रात को रोशन करने के लिए शाम के समय लोगों ने गांव के पंचायती आंगन में चीड़ की लकड़ी के होलाड़े जलाए। इस दौरान ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से लोकगीतों पर नृत्य किया ओर खुशियां बांटी। चारे गाणे महासू, चारीओ भाई, आटेरी दुर्गा माई…., कोदी जांदी भाभी मेरी मैते तू…, ऐ जमाना कोड़ी जुग्गो का…., आमे लासी नोसी बीबी बानारो मुल्का…., ढाकिया ढाक बाजलू बाणू…., मुखे आया मिलदी तयूनी रे…., डांडा देवराणा जातिरा तू काई न आई…., बीरू मामा बाजी जालो बाणो…. आदि गीतों पर देर रात तक महिला पुरुष झूमते रहे। जौनसार क्षेत्र आज भी कई गांवों में पुरानी दिवाली मनाई जा रही है। जोकि, अगले पांच दिनों तक धूमधाम से मनेगी।
अमावस्या की रात्रि को सभी ग्रामीण गांव से कुछ दूर होला (मक्का) का पुंज तो कहीं पर लकड़ी का पुंज जलाते हैं। इस दौरान पांडवों तथा लोक देवता महासू के गीत गाये जाते हैं। मुख्य रूप से बच्चे हाथों में होलड़ा (होला) लेकर खेत के आस-पास घुमाते हैं। दूसरे दिन गांव के पुरुष गेहूं, जौ की उगाई हरियाली लेकर आंगन में उतरते हैं। सर्वप्रथम महिलाएं कुल देवता को गोमूत्र व गंगाजल चढ़ाते हैं। इसके बाद पुरुष कान में हरियाली लगाते हैं, ओर ग्रामीण महिला पुरुष आंगन में सामूहिक नृत्य करते हैं। इस दिवस को भिरुड़ी कहते हैं। आपसी वैमनस्य और मतभेद भुलाकर जौनसारी लोग एक-दूसरे के घर जाकर, गले से गले मिलकर अखरोट, मुवड़ा (गेहूं को उबाल कर) तथा चिवड़े का आदान-प्रदान करते हैं। पांच दिनों के इस पर्व के अन्तिम दो दिनों में गांवों में काठ लकड़ी का हिरण व हाथी बनाकर गांव का स्याणा उस पर बैठकर नाचता है।
दीवाली के ठीक एक माह बाद शुरू होने वाली जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर की यह अनोखी दीवाली 18-19 नवम्बर से शुरू होने जा रही है जिसके लिए जोर शोर से गॉव-गॉव तैयारी चल रही हैं. सिर्फ जौनसार बावर ही नहीं बल्कि टोंस और यमुना से लगे क्षेत्र में भी पुरानी दीवाली के ढोल नृत्य और गाजे बाजों की घमक सुनाई दे रही है. जहाँ टोंस नदी (तमसा से लगा) के पार पौंटा से लेकर सिलाई, रोहडू चोपाल तक हिमाचल के क्षेत्र में यह दीवाली खूब जोश से मनाई जाति है वहीँ यमुना घाटी के जौनपुर और रवाई क्षेत्र में भी इसे बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन जौनसार बावर की बात ही निराली है. गढ़वाल के कतिपय हिस्से में इसे बग्वाल कहा जाता है.
यूँ तो यह दीवाली हफ्ते भर चलती है लेकिन वास्तव में इसका स्वरुप पांच दिन का है. इन पांच दिनों की दीवाली इस तरह मनाई जाति है-
पांच दिन तक मनाए जाने वाले इस दीवाली पर्व के पहले दिन जिशपिशा त्योहार, दूसरे दिन रणद्याड़ा, तीसरे दिन औंस यानि बड़ी दीवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवे दिन जंदोई त्योहार होता है।
जिशपिशा व रणद्याड़ा त्योहार को छोड़ औंस (अमावस्या) की रात्रि को आसपास के लोग मंदिर व पंचायत आंगन में एकत्र होकर चीड़ की लकड़ी से बने होले यानि मशाल जलाकर होलियाच निकालते हैं। अमावस्या की रात को गांव के पुरुष व महिलाएं अलग-अलग स्थानों पर ढोल, दमाऊ , रणसिंघे की थाप पर हारुल के साथ तांदी नृत्य कर दीवाली का जश्न मनाते हैं। बिरुडी के दिन गांव की महिलाएं व पुरुष एक दूसरे को अखरोट व च्यूड़ामूडी देकर दीवाली पर्व की बधाई देते हैं। जंदोई के दिन कुछ गांवों में काठ का हाथी और कहीं पर हिरन का नाच होता है। परंपराओं को तोड़ जमाने के साथ दीवाली मनाने की मुख्य वजह नौकरीपेशा लोगों के सालभर में एक बार छुट्टी पर घर आना और महिने बाद कड़ाके की ठंड से बचना प्रमुख कारण है।
लेकिन अफ़सोस कि अब बावर क्षेत्र के कतिपय इलाकों में बूढी दीवाली मनाने की परंपरा समाप्त सी हो गई है जबकि मैं सन 2003 में चिल्हाड गॉव में मनाई जाने वाली बूढी दीवाली को डिस्कबरी, स्टार न्यूज़ और आजतक में दिखा चूका हूँ. लेकिन बदलते परिवेश से इस क्षेत्र के वासी चिंतित हों न हों लेकिन मैं अवश्य चिंतिंत हूँ क्योंकि हम अपनी लोकसंस्कृति के उस स्वरुप को खो रहे हैं जो ईश्वरतुल्य है.
बदलते सामजिक परिवेश के कारण ही खत-बावर, देवघार, बाणाधार, मशक क्षेत्र के महासू मंदिर हनोल, मैंद्रथ, रायगी, अणू, मुंधोल, बास्तील, कूणा, बृनाड़, चिल्हाड़, भंद्रोली, चांजोई, डूंगरी, त्यूना, हटाड़, कोटी-कनासर, संताड़, रजाणू, सैंज, अमराड़, केराड़, नायली, किस्तुड़, सारनी, जबराड़, रडू व शिलवाड़ा समेत पांच दर्जन से ज्यादा गांवों में लोग देशवासियों के साथ नई दीवाली मना रहे हैं।
वही दूसरी ओर आज भी जौनसार, कांडोई-बोंदूर, शिलगांव, कांडोई-भरम, बुल्हाड़, बेगी, बागनी, बायला, उदावा, लोहारी, सिजला, लाखामंडल, मंगटाड़, नौरा, कावा खेड़ा, आसोई, जगथान, बुराइला, रंगेऊ, साहिया, क्वानू समेत दो सौ से अधिक गांवों में लोग ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा है।