थोकदारी हुंकार, रानीहाट की आह व बादी का खण्डबाजे जाने कहाँ गायब हुए डुंक गांव से।
थोकदारी हुंकार, रानीहाट की आह व बादी का खण्डबाजे जाने कहाँ गायब हुए डुंक गांव से।
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग )
(फोटो- मलकीत रौथाण)
बर्ष 1998 की बात होगी। गर्मियों की भरी दोपहर सुरालगांव अस्वालस्यूँ की चढ़ाई चढ़ते हुए निचली रोड से ऊपर सड़क तक पहुँचते हुए मैं उन विशालकाय आम के पेड़ों से टपके खट्टे मीठे आम चूसता आगे बढ़ रहा था। कंधे में अपने स्टाइल का थैला, चश्मा भला आँखों से कहाँ छूटने वाला था जीन्स पर हल्की धूल मैल की परत, सफेद कमीज के कॉलर का रंग मेरे रंग से मैच करता हुआ और धूल फांकते जूतों की हालत मेरी जेब की कड़की बयान करती आगे बढ़ रही थी।
तब एक धुन सी सवार थी और वह यह कि ब्रिटिश गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका पर जो लिखना था मुझे। असवालों के गांव मिरचौडा, पलई, नगर, सरासु ,तच्छवाड़, कुलासू, सिमार, पीड़ा, बरस्वार, रणचूला, बड़ोली, कंडोली, सीला, खेड़ा रणचूला सहित सभी गांव निबटा चुका था। इन्हीं थोकदारों से इकट्ठा हुए चंदे से यात्रा सफर भी करता था।
आखिर रौथाण थोकदारों का असवालस्यूँ में बसागत होना जरा अटपटा सा लग रहा था क्योंकि पूरे असवालस्यूँ में डुंक ही एकमात्र ऐसा गांव था जहां रौथाण रहते थे वे उनका गांव सीमा विस्तार नीचे नयार से लेकर ऊपर नाव-सीरों तक व चामी-सुरालगांव से लेकर लगभग 3 किमी लम्बाई लिए हुए था।
मुझे पता था कि गांव की बनावट के हिसाब से यहां के रौथानों की अपनी सामाजिक मान्यताएं अवश्य होंगी। रौथाण जाति का उदगम सम्वत 945 में रथभौं दिल्ली के समीप से बताया जाता है । ये कुंड गाँव में आकर कब बसे इस बात की जानकारी किसी को भी नहीं है! फिर भी मुझे शोध तो करना ही था! मैं पता करते-करते आखिर उस शीर्ष के घर तक पहुंच ही गया, जहां डुंक गांव के रौथानों का क्वाठा (किला) हुआ करता था। उसकी खंडहर दीवारों के अवशेष तब भी थे जबकि वे खेतों में तब्दील कर दिए गए थे। मैंने उस काल में उस खंडहर की दीवारों का माप भी लिया था लेकिन यह सारी पांडुलिपि खो जाने से मेरी बर्षों की मेहनत यूँहीं बर्बाद हुई।
यहां एक आध घर में पौराणिक तलवारें भी थी, जिन्हें पूजा स्थल में सब अपने घरों में रखे हुए थे! बस दूर से ही देखी जा सकती थी। तलवारें मैंने अपने शोध के दौरान बंठोली के क्वाठा भीतर, सीला के क्वाठा भीतर व मल्ला इडागांव के क्वाठा भीतर या फिर रणचूला में देखी थी। ये ज्यादात्तर दुधारी तलवार थी जिनके विपरीत दिशा में तिरछी घूमती तलवार पर एक बिलस्त लम्बी धार होती थी।
(file photo)
डुंक गांव के थोकदार अपनी देवी में भैंसे की बलि चढ़ाते थे, व कालांतर में यहां अठवाङ हुआ करती थी जो धीरे धीरे समाप्त हो गयी। इस से पूर्व यहां बादी मेला लगता था जिसमें बादी समाज के लोग लांग खेलते महादेव का नाम लेकर खण्ड बाजे बोला करते थे। साथ ही गांव की ऊंची सरहद से गांव के क्वाठा (किले) तक काठ की कठघोडी में फिसलते हुए आते थे। और यदि वे बीच में गिर गए तो उन्हें मार दिया जाता था। यह सिर्फ इसलिए होता था कि गांव में हैजा न फैले, फसल बारिश समय पर और खूब हो। अन्न धन की बरकत बनी रहे, लेकिन इस परम्परा को निभाने वाले उस समाज उस परिवार की पीड़ा भला तब कौन जान सकता है जब वह ऊँची धार से एक रस्सी के सहारे करीब तीन किमी. फिसलता हुआ गाँव के क्वाठा तक पहुँचता था।
यह सब निष्कंटक चल रहा था कि सन 1803 में गोरखा राज के बाद इन गांव ने बड़ी त्रासदी झेली। हर बर्ष गोरखे इन्ही के गाँव के नीचे नयार तट जहां आज भी यहां के ग्रामीण उस स्राथान को राणीहाट के नाम से पुकारते हैं, मानव मेला लगाते थे जिसमें क्षेत्र की बेटियां व बच्चे औने-पौने दामों पर बेचे जाते थे। आज भी वह स्थान रणीहाट के नाम से जाना जाता है।
रानीहाट पर कुछ भ्रांतियां भी रही। कुछ का कहना था कि यहां रानी आकर स्नान करती थी जोकि सम्भव नहीं था। वक्त काल परिस्थिति बदली सन 1815 में गोरखा शासन समाप्त हुआ तो उसी के साथ वह सभी ठाकुरों की ठकुराई का भी अंत कर गए। 1893 के आस-पास सर रेमजे ने थोकदारों के अधिकार छीनकर उनका असला जमा कर थोकदारों के सारे ताम्र पत्र जब्त कर लिए।
वर्तमान प्रधान कुलदीप सिंह रौथाण बताते हैं कि अन्य गांवों की तरह पलायन से उनका गांव भी अछूता नहीं है लेकिन यहां अन्य गांवों की अपेक्षा पलायन कम हुआ है। बलि प्रथा ग्रामीणों के व्यक्तिगत प्रयासों से बंद कर दी गयी है और आज हमारे गांव को निर्मल गांव पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।