तो 1815 के बाद आम प्रचलन में लायी गयी राजसी शान कही जाने वाली टिहरी नथ ..!


(मनोज इष्टवाल)
वैसे सत्य भी है ढूँढने पर भगवान् भी मिल जाता होगा ऐसा अब मेरा भी मानना है क्योंकि हमारे आभूषण कैसे और कब प्रचलन में आये इसपर जितना भी व्यापक शोध हो वह कम लगता है.
आम तौर पर कोई भी आभुषण हम पहन तो लेते हैं लेकिन उसके निर्माण काल उसकी बनावट उसकी सज्जा पर कभी नहीं जाते. जहाँ तक नथ का जिक्र करें तो गढ़वाल में नौ तोला नथ सबसे भारी नथ मानी गयी है.


टिहरी नथ नौ तोला डिजाईन हुई है या नहीं यह कहना मुश्किल है लेकिन आम तौर पर गढ़वाल में आदिकाल से चलन में रही नौ तोला नथ बड़े घरानों की शान समझी जाती थी भले ही उस नथ को धारण करने वाली माँ बेटी की नाक का मानस धीरे धीरे उसके बोझ से फट जाया करती थी और फिर सुहाग को ज़िंदा रखने के लिए नए छेद नाक पर किया जाता था. जो नथ गढ़वाल में आदिकाल से चली आई वही नथ कुमाऊ के परिवेश में भी है भले ही उस पर मीने गढ़ दिए गए हों. लेकिन गढ़वाली नथ का बेसिक डिजाईन भी राजस्थानी बेसिक डिजाईन वाली नथ से मिलता जुलता नहीं बल्कि यथावत रहा है अब टिहरी नथ के प्रचलन में आने के बाद से यह डिजाईन दुर्लभ डिजाईन की श्रेणी में समझा जा सकता है.

रवाई घाटी (उत्तरकाशी) के मोरी सांकरी क्षेत्र में आज भी वही दुर्लभ नथ प्रचलन में है जो गढ़वाल के परिवेश में कालान्तर से चली आई है. और आज भी उस क्षेत्र के धनाड्य वर्ग की महिलाएं नौ तोला नथ पहनकर मेले कौथीग इत्यादि में शिरकत करती है.


टिहरी नथ यूँ तो चलन में राजा भानुप्रताप सन (700 ई.) के समय से रही है लेकिन सिर्फ राजघराने के लिए स्पेशल डिजाईन हुई नथ का प्रचलन सिर्फ सूर्यवंशी राजाओं में ही था कालान्तर में उनकी एकमात्र पुत्री का विवाह जब चन्द्रवंशी राजा कनकपाल से हुआ तब यह सुर्यवंश से चन्द्रवंशियों को हस्तगत हो गयी क्योंकि राजघराने के आभूषण निर्माता वही रहे जो कालान्तर में थे फिर श्रीनगर राजधानी के बाद यह आभुषण शाह राज घराने की शान हुआ लेकिन गोरखा काल में 1803 से 1815 में जब गोरखा आतातायियों ने राजघराने से लेकर गढ़राज्य की बहु बेटियों को नहीं बक्शा और निरंकुश शासन किया तब इस नथ को राजघराने की शान से बाहर इस लिए किया गया कि इसे नथ उतरना माना गया !

ब्रिटिश शासनकाल में पुन: अपना राज्य प्राप्त करने वाले राजा सुदर्शनशाह को जब 28 दिसम्बर सन 1815 में अपना आधा राज्य समझौते के तौर पर गंवाना पड़ा और गंगा पार आकर भागीरथी भिलंगना के संगम में राजधानी स्थापित करना पड़ा तब राजकोष बेहद आर्थिक संकट से गुजर रहा था उन्होंने बचे राजसी जेवरों से बड़ी मुश्किल से तब मात्र 700 रुपये में टिहरी राजधानी बनाई ! इसी दौर में जो उनके राजसी सुनार थे वे श्रीनगर ही रह गए और तब से यह नथ टिहरी नथ के रूप में इसलिए प्रचलन में आई क्योंकि यह अब राजकीय धरोहर से हटकर बाजारी हो गयी थी. स्वर्णकार इसके डिजाईन गुप्त रूप से उस काल के धनासेठों को बेचने लगे.

लेकिन फिर भी इसे ख़ास से आम बनने में पूरी एक सदी का इन्तजार करना पड़ा. सन 1949 में टिहरी राजशाही से पूर्ण रूप से स्वतंत्र भारत का अंग बना तब यह डिजाईन टिहरी गढ़वाल राज्य के हर क्षेत्र में आम प्रचलन में आना शुरू हुआ जबकि इस से पूर्व यह श्रीनगरी सेठों के प्रचलन में एक सदी पूर्व से रहा लेकिन यह नथ राजशाही के नाम से न सही टिहरी राजघराने के नाम से टिहरी नथ के रूप में ही अपने खूबसूरत डिजाईन से पूरे प्रदेश ही नहींपूरे देश में बेहद लोकप्रिय है और सब जगह प्रचलन में है.

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