तो त्रेता युगी है काष्ट ढ़ोल ! ढ़ोल में समाहित हैं चारों वेद !

तो त्रेता युगी है काष्ट ढ़ोल ! ढ़ोल में समाहित हैं चारों वेद !

(मनोज इष्टवाल)
ढ़ोल की ढूंढ सचमुच सागर में पड़े उस हीरे की तरह है जिसे ढूंढते ढूंढते बर्षों लग जाएँ. वर्तमान में कलयुग में चार या पांच किस्म के ढ़ोल प्रचालन में हैं जिनमें सबसे पुराना ढ़ोल जिसे बिजैसार भी कहा जाता है वह काष्ट का ढ़ोल हुआ जिसको त्रेता युग में बनाया गया था. जैसे कि ढ़ोल सागर में वर्णित है!

इश्वारोवाच- अरे गुनिजनम सत्युगे उपयोग्गी चारखाने चार बाने आरम्भ युग उपजोगी ढ़ोलम गुरुमुख उपजोगे पंच शब्द बाराजुग उपजिगो ढोलम!!
पारवत्युवाच- ओम प्रथमे कनिकत्र राजा इंद्र को उदीमदास ढोली जिसने अमृत का ढ़ोल बजाया जिसके जिस से अन्धकार शब्द उपजे –तहां नामिकम नमो नम: इसी नाम से सतयुग का ढ़ोल बजता रहा !!

द्वापर युगे मध्ये राजा मान्धाता का ढोली बामदास जिसने गगन ढ़ोल बनाया! जिस से शून्य शब्द पैदा हुआ – तच्च नामिक नमो नम: !!
त्रेता युग के राजा महेंद्र के ढोली विदिपाल ने काष्ट ढ़ोल बनाया तब कलयुग में राजा विक्रमाजीत के ढोली अगन दास ढोली ने इस ढ़ोल को अस तत्र को ढ़ोल वत्र को शब्द बनाया – तच्च नामिकम नमो नम:!!

(ढोल सागर का ज्ञान अर्जन करते स्टेफन फ्योंल/फ्योंली दास)
यही चार युग का फिर ढ़ोल बना जिसमे अमृत गगन काष्ट और चरम कपड़ा सम्मिलित है. जिसमे चार वेद बजाये गए जिसमे ऋग वेद पढ़ा गया जो पूर्व दिशा की ओर ढ़ोल में बजा. भूत प्रेत हरने के लिए युजुर्वेद पढ़ा गया जिसमें ढ़ोल दक्षिण दिशा को बजाया गया इसतरह ब्राह्मण को प्रणाम किया गया. नन्ता ता ता ता नन्ता तच्च ढ़ोल बजा जो सामवेद के मंत्रो की अभिव्यक्ति करता हुआ श्याम वर्ण रूद्र के नाम पर बजाया गया. अर्थर्वेद के मंत्रो से कम्पित ढ़ोल उत्तर दिशा में बजाया गया जो पंचनाम परमेश्वर, पंच देवता, सुमंगल बामन. इंद्र के लिए बजाया गया जिसके साथ घंटे घुंघुरू सब बजे.

(ढोल सागर के मर्मज्ञ फ्योंली दास व उत्तम दास)

ढोल उत्पत्ति का लम्बा सार भले ही वर्तमान में भी ढोल की गर्जना की भांति अनंत में समाया हुआ है लेकिन फिर भी ढोल और ढोल सागर पर कई विद्वतों ने कार्य किया है .  पूर्व मंत्री मोहन सिंह रावत गांववासी बताते हैं कि ढोल बजाने की  कई विधियां  हैं कई ताल हैं. इस पर पूरा ढोल सागर लिखा गया है, ढोल सागर का मूल संकलन पंडित ब्रह्मानंद थपलियाल ने १९१३ से आरंभ कर श्री बद्रिकेदारेश्वर प्रेस  पौड़ी गढ़वाल से १९३२ में प्रकाशित किया था. तत्पश्चात अबोध बंधु बहुगुणा ने इसे आदि गद्य के नाम  से “गाड मेटी गंगा” में प्रकाशित  किया. तथा एक ढोल वादक शिल्पकार केशव अनुरागी ने महान संत  गोरख  नाथ के दार्शनिक सिद्धांतों  के आधार पर विस्तृत व्यख्या एवं संगीतमय लिपि का प्रचार प्रसार भी किया.
केशव अनुरागी के विषय में मंगलेश डबराल लिखते हैं :-
ढोल एक समुद्र है साहब, केशव अनुरागी कहता था,
इसके बीसियों  ताल  और सैकड़ों सबद ,
अरे कई तो मर खप गए पुरखों की तरह,
फिर भी संसार में आने जाने,  अलग अलग ताल साल,
लोग कहते हैं केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है.
स्व शिवा नन्द नौटियाल, उत्तर प्रदेश के पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री  जिन्होंने ढोल सागर के कई छंद को गढ़वाल के नृत्य-गीत पुस्तक में सम्पूर्ण स्थान दिया, एवम   बरसुड़ी  के डा विष्णुदत्त कुकरेती एवम डा विजय दास ने भी ढोल सागर की समुचित  व्याख्या की है )
प्रारंभिक जानकारियों के अनुसार ढोल की उत्पति और वाद्य  शैली पर शिव और पार्वती के बीच एक लम्बा संवाद होता है. प्राय उत्तराखंड में जब भी किसी शुभ या अशुभ अवसर पर ढोल वादन होता है तो ढोली (ढोल वादक) के मुख से इस सवांद का गायन मुखरित होता है.
ढोल सागर में पृथ्वी संरचना के नौ खंड सात द्वीप और नौ मंडल का वर्णन व्याप्त है. ढोल ताम्र जडित, चर्म पूड़ से मुडाया जाता है. ढोल की उत्पति के बारे में ढोल सागर कहता है ” अरे आवजी ढोल किले ढोल्य़ा   किले बटोल्य़ा किले ढोल गड़ायो किने  ढोल मुडाया , कीने ढोल ऊपरी कंदोटी चढाया अरेगुनी जनं ढोलइश्वर ने ढोल्य़ा पारबती ने बटोल्या विष्णु नारायण जी गड़ाया चारेजुग ढोल मुडाया ब्रह्मा जी ढोलउपरी कंदोटी चढाया इ”आगे कहते है ” श्री इश्वरोवाच I I अरे आवजी कहो ढोलीढोल  का मूलं कहाँ ढोली ढोल कको शाखा कहाँ ढोली ढोली का पेट कहाँ ढोली ढोल का आंखा II श्री पारबत्युवाच II  अरे आवजी उत्तर ढोलीढोल का मूलं पश्चिम ढोली ढोल का शाखा दक्षिण ढोल ढोली का पेट पूरब ढोल ढोली का आंखा I “
ढोल सागर में  वर्णित है ढोल शिव पुत्र है, डोरीका ब्रह्मा पुत्र ,पूड़ विष्णु  पुत्र, कुण्डलिया नाग पुत्र, कन्दोतिका कुरु पुत्र, गुनिजन पुत्र कसणिका, शब्दध्वनि  आरंभ पुत्र, और भीम पुत्र गजाबल. 
ढोल की भाषा का आदि उत्पति अक्षर भी ” अरे आवजी शारदा उतपति अक्षर प्रकाश I I  अ ई उ रि ल्रि ए औ ह य व त ल गं म ण न झ घ ढ ध  ज ब ग ड द क प श ष स इति अक्षर प्रकाशम I  इश्वरो वाच I I ” ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार पाणिनि के व्याकरण  के आरंभ सूत्र जो कि शिव डमरू से उत्पन्न हुए .   जब ढोली ढोल को कसता है  तो शब्दत्रिणि त्रिणि ता ता ता ठन ठन, तीसरी बार कसने पर त्रि ति तो कनाथच त्रिणि  ता ता धी धिग ल़ा धी जल धिग ल़ा ता ता के रूप में बज उठता है  इसी तरह बारह बार ढोल को कसने की प्रक्रिया होती है और भिन्न भिन्न ध्वनिया गूंज  उठती हैं. 
ढोल सुख, दुःख और पूजा सभी कार्यों में  बजता है उतराई, चढाई, स्वागत प्रस्थान,  आरंभ और समापन सभी के लिए अलग अलग ताल और सबद हैं. ढोली की पांच अंगुलियाँ  और हथेली और दुसरे हाथ से डंडे, जब ढोल पर थाप देते हैं तो भगवन शंकर  कहते हैं “  अरे आवजी प्रथमे अंगुळी में ब्रण बाजती I  दूसरी अंगुली मूल बाजन्ती I तीसरी अंगुली अबदी बाजंती I चतुर्थ अंगुली ठन ठन ठन करती I झपटि झपटि बाजि अंगुसटिका  I  धूम धाम बजे गजाबलम I  पारबत्यु वाच I  अरे आवजी दस दिसा को ढोल बजाई तो I पूरब तो खूंटम . दसतो त्रि भुवनं . नामाम गता नवधम  तवतम ता ता तानम तो ता ता दिनी ता दिगी ता धिग ता दिशा शब्दम प्रक्रित्रित्ता . पूरब दिसा को सुन्दरिका  I बार सुंदरी नाम ढोल बजायिते  I  उत्तर दिसा दिगनी ता ता ता नन्ता झे झे नन्ता उत्तर दिसा को सूत्रिका बीर उत्तर दिसा नमस्तुत्ये I इति उत्तर दिसा शब्द बजायिते I “
ढोल की बहरहाल कई तरह से व्याख्याएं होती रही हैं लेकिन आज भी यह ढोल एक ऐसा सागर है जिसका आदि है न अंत क्योंकि जब भी सम्पूर्ण ढोल सागर की संरचना की बात होती है तो कहीं भी ढोल सम्बन्धी समस्त सामग्री प्राप्त नहीं होती. कई विद्वत जनों का कहना है कि जिस दिन हम ढोल सागर का आदि अंत जान लेंगे उस दिन हम साक्षात शिब को प्राप्त कर लेंगे. 
बहरहाल ढोल कितने प्रकार के भी हों लेकिन ढोल की उपज काष्ठ से हि मानी जाति है और आज भी उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के विभिन्न हिस्सों में बहुतायत मात्रा में काष्ठ ढोल वादन ही होता है जिन्हें वहां के लोग मूलतः बिजैसार के नाम से पुकारते हैं!

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