तेजी से गायब हो रही है उत्तराखंड में प्रचलित गंदर्भ विद्या! उपेक्षाओं की छिटकन पर बादी समाज…!
(मनोज इष्टवाल)
- कौन संस्कृतिकर्मी उठाएगा राधाखंडी लोक गायन को जीवित रखने की परम्परा!
- लांग व काठबद्दी से गूंजते खंड बाजे के शब्द अनंत लोक में समा गए !
- कृषि अनुष्ठानों के शिल्पियों की उपेक्षा ने बंजर बनाई केदारभूमि !
बसंत की बयार हो या फिर लोक उत्सव, शादी विवाह या मेले कौथीगों की परम्परा! हिन्दू पुरातन संस्कृति में एक समाज ने ऐसा अमृतरस उत्कंठ हृदयों में घोला जिसका रसपान करते-करते हमारे तथाकथित थोकदार समाज के लोगों ने एक ऐसी परम्परा को विलुप्त ही कर दिया जिसके सानिध्य में यहाँ की घाटियाँ, पहाड़ियां व वादियाँ गुंजायमान होती थी. जिनके ढोलक की थाप,घुन्घुरों की आवाज और पैरों की चाप से पहाड़ी आंगनों में बिछी पत्थर की फटालें भी नृत्य करती नजर आती थी! जिनकी आँखों की पुतलियों के इशारों पर नृत्य करती उनकी अर्धांगनी के नृत्य की मंथर गति, हाथों की बिशेष मुद्रा, पैंरों की भावभंगिमा के साथ कूल्हों की मटकन व बिशेष भावाभिनय शैली के साथ ढोलक की थाप में गूंजते सुर-
ए मौक़ा मैना सम्मा डांडा न जाई, तुरातुर्र पाणी सम्मा गीतु न गाई…और फिर उस पर पुटबंदी जोड़ते हुए – हाँ भैs हाँ, ए मौक़ा मैना सम्मा डांडा न जाई, तुरातुर्र पाणी सम्मा गीतु न गाई! फिर ढोलक की गद्द चढ़े पूड़े पर जोर की थाप के साथ पैरों पर बंधे घुन्घुरों से गूंजती आवाज का तारमतम्य इस लोक से उस लोक की सीमाओं तक जा पहुंचता था !
राधाखंडी लोकगायन में कुमाऊँ हो या गढ़वाल मंडल इन बादी, बेड़ा, धियाड या गंदर्भ समाज के लोगों का गायन लगभग एक सा ही था जैसे –
स्वर्ग डाली बिजुली, पयाल डाली फूल! नाचे गौरा कमल जसो फूल,
शिव ज्यू ले डमरू बजाया गौरा नाचे. यो मेरो वरदाना मी थैं नी जाया भूल!
इस समाज के गीतों की अपनी अलग ही परम्परा रही है जिनमें सामाजिक, धार्मिक राजनैतिक, नवसृजित नवजागृति के सांचे में ढले स्वयं के मस्तिष्क से उपजे गीत, असाधारण-असामयिक घटनाओं का घटना और उन घटनाओं के काल्पनिक अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करते गीत, नई रीति, नया ज़माना, सामजिक क्रान्ति, नेताओं, युद्ध कौशलता, सामाजिक व आर्थिक घटनाक्रम के गीत इत्यादि शैली के गीत हमेशा पुनर्जीवन सा प्रधान करते नजर आते थे.
जैसे सुमाडी के बादी समाज के ही मूली नामक बद्दी पर इन्ही के समाज का एक गीत बहुत प्रचलित हुआ जिसमें ” घास काटी पूली, खिर्सू बौडिंग लग्युं चा तिन सूणी मूली..” जैसा गीत लम्बे काल से आज भी लोगों की जुबान पर जीवित है. चाहे वह सतपुली मोटर बहने की घटना पर केन्द्रित गीत-” द्वी हजार आठ भादों का मॉस, बौगीन ब्यास..! की बात हो या फिर – “चलो भाई देखि औला गांधी की पलटन दा…”
या फिर “जय हिन्द अखोड की सांई नेता जी जै हिन्द..” हो या फिर -” महात्मा गांधी बड़ो भागी छ, देवसेवा कु अनुरागी छ..” सहित सैकड़ों ऐसे गीत आज भी फिजाओं में तैरते हुए कालजयी हैं जो इस समाज की देन हैं. शाहीद केसरी चंद से जोड़ता एक गीत तत्कालीन बादी समाज की हि देन उस युग में है जब जौनसारी समाज को गढ़वाली समाज ढंग से जानता भी नहीं था. और इस समाज द्वारा उसका गीत कुछ इस तरह गाया गया- भरति होई जाणो केशरी ठम्म-ठम्म पलटन मा…”
यह भी सत्य है कि ऐसे आलोकनीय समाज को समाप्त करने के लिए ये बेड़ा, बादी, गंदर्भ, धियाड जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि हमारी वह थोकदारी परम्परा है जो अपने अहम में चूर इस समाज को पैरों की जूती से अधिक कुछ नहीं समझते रहे. मनोरंजन के लिए शराब शबाब और संगीत का हमने ढर्रा हि बदल दिया. जिस कारण यह समाज गुमनाम होने लगा और इस समाज की आखिरी पुष्ट के रूप में बमुश्किल कुछ नाम ही जुबान पर आते हैं जिनमें टिहरी गढ़वाल के बन्चु, सेवाधारी, नैथाना पौड़ी के रामचरण, टेका पौड़ी की कौशल्या देवी, तिलवाड़ा रुद्रप्रयाग की चकोरी देवी, डांगचौरा का मोहन लाल, पौड़ी की सतेश्वरी देवी, बौंशाल के बद्दी, गबेला जौनसार की धियाड छुम्मा इत्यादि गिनती के ही नाम बचे हैं. गबेला की धन्नो धियाड तो इतनी प्रसिद्ध थी कि उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पुरष्कृत भी किया गया वहीँ कालसी जौनसार का शेरू नट का पोता बबलू नट लांग आज भी खेलता है. जब कहीं सूखा पड जाय या कोई अप्रिय घटना घट रही हो तो इसे बुलाया जाता है. यह इस परम्परा का सबसे कम उम्र का व्यक्ति कहा जा सकता है क्योंकि इस परम्परा को जीवित रखने के लिए वह अब भी जद्दोजहद में लगा है. भले ही छुम्मा का बेटा भी परात नृत्य में माहिर है लेकिन कब तक यह सवाल बाकी है?
जिन्हें हम जन्मजात कवि और नर्तक कह सकते हैं, जिन्हें हम फसल बोने से लेकर कटने तक उलाहने दे सकते हैं.जिन्हें राजाओं, सामंतों, जमीदारों, थोकदारों की चौखट के फनकार कह सकते हैं आज ये सब शिब भक्त गंधर्ब जाने किस रसातल में बिलुप्त होकर गुमनामी के अंधेरों में खो गए हैं.
गढ़वाल मंडल में जिन्हें बेड़ा (बद्दी/बादी). मिरासी, ढाकी-धियाड इत्यादि नामों से पुकारा व जाना गया है वर्तमान में ये जाति और इसके लोग कहाँ लुप्त हो गए हैं यह कहना असम्भव सा है. वेदों का अगर ज्ञान लिया जाय तो सामवेद में बेड़ा अर्थात बादी को शिब का आदेश है कि- “भूतानि आचक्ष्व, भूतेषु इमं यजमान अध्वर्यु:” अर्थात इतिहास कहा, क्षेत्र के इतिहास अर्थात ऐश्वर्य में यजमान की रूचि उत्पन्न करो.! इसे औसर भी कहा गया है जो एक ब्राह्मण के मुख से निकले शब्द को बेड़ा के लिए आज्ञा कही गई है जिसके अनुरूप ही बेड़ा अपने पूरे जोश-खरोश और शिब के गुणगान के बाद खंडबाजे शब्द का उद्घोष कर अपने यजमानों की जयवृद्धि का मंगलगान करता है.
परात नृत्य, थाली नृत्य, शिब-पार्वती सम्बन्धी नृत्य, नट-नटी नृत्य, दीपक नृत्य, लांग खेलना, काठ खेलना एवं सम सामायिक गीत व नृत्यों से मन मोहना इस जाति का सबसे बड़ा कर्तब्य समझा जाता था. वर्तमान में भी ये सभी पैतृक गुण इन लोगों में विदमान हैं लेकिन बदलती संस्कृति और लोक ब्यंजनाओं ने हमारी इस कला और इसके पारखियों को चौपट कर दिया है. ये सम सामायिक घटनाओं के ऐसे कवि हैं कि किसी भी घटना पर कब लोक काव्य रच दें और कब उसे नृत्य और गायन में ढालकर प्रस्तुत कर दें कहना सम्भव नहीं है. सम्भवतः इनके बिखरते समाज के ये अंतिम शब्द रहे हों कि-
दुनिया की हवा देखा किलै या रूखी छ,
दया धर्म की डाली बोला किलै या सूखी छ!
भगवान् की आंख्युं म निंदा आईं छ,
गरीबूं की तरफ फेर अन्ध्यारु किलै छ!!
यही नहीं अपनी पुटबंदी में जब ये बिश्राम मुद्रा में होते थे तब भी इनकी ढोलक की थाप के साथ बोलों का माप लोक लुभावन होता था और पुटबंदी में गुनगुनाने लगते थे-
अरे बल पाणी भरी जार,
कैs कैs मा माया लांदी,
कैs देखिकी खार
बल तारु छुमा बौ!
भले ही यह शब्द विन्यास साधारण दिखाई देता हो लेकिन इसकी मिठास और माधुर्यता बेजोड़ होती थी. घुंघरुओं की गुंजन और पैरों की थाप से उठती थिरकन का बेमिशाल तारमतम्य अद्भुत होता था. दुगड्डा क्षेत्र का नड गाँव इसके लिए सबसे प्रसिद्ध माना जाता था यहाँ की अपने काल की बिसोता नामक बादीण पूरे गढ़वाल में चर्चित थी जैसे कुमाऊँ की छमुना पातर! लेकिन छमुना पर एक कहावत चरितार्थ थी वह गढ़वाल विपत्ति में हो तो कुमाऊं पहुँच जाती थी और कुमाऊं विपत्ति में हो तो गढ़वाल चली आती थी. लेकिन बिसौता शुद्ध रूप से गंदर्भ विद्या की ऐसी पारंगत मूर्ती थी जिसका सम्मान हर बिरादरी में होता था.
पौड़ी और गंगा पार टिहरी में बादी समाज की लम्बी पेबिस्त थी जिनमें कुछ नाम आज भी लोक में प्रचलित हैं जिनमें रामभक्ति-टेका, 2- शिबभक्ति- टेका, 3- नरी बद्दी- कांडेय(केबर्स), 4- सुंदु बद्दी- तमलाग, 5- शिबू- चडीगाँव, 6- नट्टू बद्दी- नैल( नैलवाल), 7-मूला बद्दी – नैल (चमोली), 8- हरी बद्दी- अमोठा, 9- बृजु बद्दी- कल्जीखाल, 10-कुसु बद्दी- कल्जीखाल, 11- झगडू बद्दी- कल्जीखाल, 12- बिसौता बादीण- नड्डा (दुगडड़ा), 13- मटरू बद्दी- नवासू, 14- रामभक्ति-बांजखाल, 15- भक्ति- बांजखाल, 16- गम्मा बद्दी- बांजखाल, लच्छु बद्दी- सौड (धारी देवी)! इत्यादि प्रमुख है.