तबादला कानून और लोकायुक्त पर मुकरती सरकार।
तबादला कानून और लोकायुक्त पर ‘मुकरती’ सरकार..।
(वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से)
सरकार ने एक बार फिर साबित किया है कि चुनावी वायदे ‘जुमले’ से ज्यादा कुछ नहीं होते। चुनाव के लिहाज से लोकायुक्त, तबादला एक्ट और स्थाई राजधानी तीन बड़े मुद्दे थे। यह अलग विषय है कि आम मतदाता इससे प्रभावित होता है या नहीं, लेकिन इसके बावजूद भाजपा ने चुनाव के दौरान इन तीनों ही मुद्दों पर बढ़-चढ़ कर वादे और दावे किए। सत्ता में आने के सौ दिन के भीतरके मजबूत लोकायुक्त और पारदर्शी तबादला कानून लागू करने का वादा भी किया। सरकार के 100 दिन पूरे होने के बाद अब अगले 100 दिन भी पूरे होने जा रहे हैं। लेकिन सरकार अब वायदा पूरा करना तो छोड़िए, इससे साफ मुकरती दिख रही है। शुरुआत में प्रचंड बहुमत के जोश में सरकार ने दोनों विधेयक सदन में
पेश जरूर किए लेकिन उन्हें पास कराने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।
अब तो सरकार पूरी ‘रौ’ में है। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचार संबंधी शिकायतों पर एक स्थाई जांच आयोग बनाने की घोषणा कर इस बात के साफ संकेत दे दिए हैं कि केंद्र की तर्ज पर राज्य में भी लोकायुक्त नाम की संस्था से किनारा किया जाएगा। इस मुद्दे पर सरकार अभी घिरी ही थी कि शिक्षामंत्री अरविंद पांडे ने शिक्षा निभाग में तबादला कानून के बजाय तबादला नीति लाने की न सिर्फ पैरवी कर रहे हैं , बल्कि इसके लिए दबाव भी बनाना शुरू कर दिया है। इसके बाद से तबादला कानून के अस्तित्व में आने की भी संभावना भी क्षीण हो गई है। हालांकि तर्क यह दिया जा रहा है कि तबादला कानून से शिक्षा विभाग को अलग रखने की पैरवी की जा रही है, ना कि तबादला कानून न बनाए जाने की। लेकिन सरकार का यह कथन सीधे-सीधे जनता की आंखों में धूल झौंकने जैसा है। राज्य में तबादला कानून की जरूरत ही खास तौर पर शिक्षा महकमे के लिए है। इस कानून की मांग भी सबसे ज्यादा शिक्षा विभाग में ही उठती रही है। पूर्व में जो ड्राफ्ट तैयार किया गया, वो भी इसी को ध्यान में रखते हुए किया गया। जहां तक सवाल नीति तैयार करने का है तो नीति तो पहले से ही वजूद में है। ट्रांसफर चाहे जिस भी तरीके से होते रहे हों ,मगर हवाला हर बार नीति का ही दिया जाता रहा है । बहरहाल लोकायुक्त और तबादला कानून दोनों बड़े मुद्दों पर सरकार की मंशा में खोट आ चुका है। अगर आज सरकार खुद सशक्त लोकायुक्त और तबादला कानून की राह में रोड़ा बन रही है तो यह अपने आप में बेहद गंभीर स्थिति है। आज सरकार के सामने न कोई बहाना है और ना ही कोई मजबूरी तो फिर यह ‘रोलबैक’ क्यों ? क्या सरकार खुद नहीं चाहती कि मजबूत लोकायुक्त और पारदर्शी तबादला कानून के चलते सुशासन स्थापित हो? यदि ऐसा है तो फिर सरकार की मंशा वाकई संदिग्ध है, तब तो उसका हर वायदा फरेब है।