तपस्थली की वो मांगल गीतों की स्वर-लहरियां.

तपस्थली की वो मांगल गीतों की स्वर-लहरियां.
(मनोज इष्टवाल)
वर्तमान में विलासिता के चरम पर पहुंची उत्तराखंडी लोक संस्कृति के जनजागरण में एक नया अध्याय जुडने जा रहा है। देहरादून के तपस्थली आवास निवासी टिहरी गढवाल के रमेश उनियाल अपनी बेटी की शादी में पहली बार उत्तराखंडी लोक कलाकारों द्वारा  गढवाली मांगल गीतों का व्यवसायिक चलन समाज में ला रहे हैं जोकि उत्तराखंडी जन मानस के लिए एक मील का पत्थर साबित हो रही है।

ज्ञात हो कि आगामी 4 फरवरी 2014 को हुई  यह शादी पूर्व से ही चर्चा में थी क्योंकि  टिहरी बाँध में उप-प्रबंधक के पद पर कार्यरत रमेश उनियाल ने अपने सभी रिश्तेदारों से विशेष अनुरोध किया है कि भरसक कोशिश करें कि इस शादी में अपने पारंपरिक भेषभूषा में शिरकत करें और टिहरी नथ जरुर पहनकर आयें ताकि हम अपनी संस्कृति के संवर्धन हेतु अपने घर से ही पहल कर सकें।
इस शादी में लोक कलाकारों का निर्देशन पक्ष देख रहे उत्तराखंडी लोकगायक व निर्देशक अनिल बिष्ट ने बताया है कि रमेश उनियाल जी की यह पहल एक इतिहास रचने जा रही हैए जिसमें उनके द्वारा निर्देशित व लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगीजी द्वारा संकलित उन मांगल गीतों का व्यवसायिक स्तर पर लोक गायन किया जा रहा है ।

उत्तराखंडी संस्कृति के बिगडते स्वरुप में ऐसी अनूठी पहल एक सबक बनकर हमारे समाज का मार्गदर्शन करने में सफल रही क्योंकि 2014 से लेकर वर्तमान तक अब महानगरों में ऐसी कई शादियाँ होनी शुरू हो गयी हैं जिनमें उत्तराखंडी ड्रेस कोड व आभूषण अब बड़े समाज की एक बिशिष्ट पहचान बन गए हैं. जिस तरह मांगल गीतों की स्वर लहरियां देहरादून दिल्ली जैसे शहरों में गूंजने लगी हैं वहां कहीं न कहीं संस्कृति के पौराणिक सांस्कृतिक परिवेश में कुछ आंशिक बदलाव के साथ उत्तराखंडी समाज ने अपनी दखल जरुर उपस्थित की है.  सचमुच यह प्रयास  विलासिता के इस युग में गूंजती पश्चिमी सभ्यता के भौंडेपन के लिए यह एक सबक होगा.  रमेश उनियाल  द्वारा की गयी यह पहल हमारे समाज के लिए एक ऐसा आइना हो जो हमें यह दिखा सके कि हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को किस ओर ले जाना  चाहेंगे।

लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने भी बर्ष 2014 में रमेश उनियाल  द्वारा की गई इस पहल का स्वागत करते हुए कहा है कि  मांगल गीतों की इस तरह की प्रस्तुती  हमें यह सोचने के लिए जरुर मजबूर कर देगी कि पश्चिमी सभ्यता का डीजे और शराब का मांगलिक कार्यक्रमों में प्रस्तुत किया जाना सही है या फिर अपनी उस लोक संस्कृति का जिसके हर सुर में ईश्वरीय शक्तियां विराजमान हैं.!.जिसके गायन में दुल्हा दुल्हन के भविष्य की मंगल कामनाएं हैं. जिसमें ब्रह्मा, बिष्णु महेश के आगमन ही नहीं बल्कि गणेश लक्ष्मी गौरा सभी अतिथि बन आशीष वचन देने पहुँचते हैं. जिसमें कौवा शुभ सगुन की बात करता है। उन्होंने कहा कि यह पहल अगर साकार हुई तो यह लोककलाकार और रमेश उनियालजी का परिवार उत्तराखंडी संस्कृति के सांस्कृतिक परिवेश को धरोहर के रूप में नये स्वरुप का इतिहास लिख देगा जिसकी आज उत्तराखंडी संस्कृति को अति आवश्यकता है।

वर्तमान सरकार में धर्मस्व-संस्कृति व पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज का भी सुझाव है कि लोक संस्कृति के बढ़ावे के लिए वह हर संभव प्रयास किया जाना बाकी है जो हमारी रगों में दौड़ते खून में शामिल है. उन्होंने कहा कि विश्व भर में चाहे वह कोई भी देश भौतिकवाद के चरम पर क्यों न हो अगर उसके लोक संस्कार उसके साथ जुड़े हैं तो उसकी उम्र हजारों हजार साल होती है. हमें गर्व होना चाहिए कि हमारा देश इन संस्कारों के साथ आज भी खडा है जबकि इस देश पर लगभग एक हजार साल तक मुग़ल/मुस्लिम व ईसाई समाज ने राज किया लेकिन फिर भी हिंदुत्व की शक्ति डिगी नहीं और आज भी हम गर्व से कह सकते हैं कि देश के 80 प्रतिशत हिन्दू अपने मूलभूत संस्कारों से अपनी संस्कृति का परचम पूरी देश दुनिया में लहरा रहे हैं. जबकि युनान, मिस्र, रोम, ईरान व इजिप्ट सहित कई देशों की लोक संस्कृति मुश्किल से 15 से 20 बर्षों में इस्लामीकरण या इसाइयत के धुर्विकरण में लुप्त हो गयी है.

मुझे आज भी याद है कि आज से लगभग तीन बर्ष पूर्व रमेश उनियाल जी का कहना था कि बेटी के भी शादी से जुडे कई अरमान होते हैं. इस संस्कृति में नई शुरुआत यानी पौराणिकपन लाने के लिए उन्होंने अपने पारिवारिक लोगों व मित्रगणों का सहयोग माँगा जोकि उन्हें आखिरकार प्राप्त हो ही गया. उन्होंने अपने कुलदेवों का आभार प्रकट करते हुए कहा था कि इस परंपरा को जीवित रखने के लिए उनका यह प्रयास सफल होगा भी या नहीं लेकिन उन्होंने एक पहल जरुर शुरू करने की कोशिश की है और उनके विदेशों में रह रहे कई मित्रगण बडे उत्साहित हैं कि वर्तमान में यह सब देखना अनूठा होगा. उन्होंने पुनः गुजारिश करते हुए कहा है कि संस्कृति और लोक समाज का जिम्मा संभालते हुए सभी लोग अपनी लोक परम्परा की पहचान आभूषण व वस्त्र सज्जा को जिम्मेदारी के साथ लोक उत्सवों में प्रदर्शित कर अपनी लोक संस्कृति का मान बढाने में प्रयुक्त करें ताकि हमें अपने आप व अपने सांस्कृतिक मूल्यों पर अभिमान हो.

तत्कालीन समय में संस्कृति मंत्री रही श्रीमती अमृता रावत कहती हैं कि जब उन्हें इस शादी में शामिल होने का आमंत्रण मिला था तो वह बहुत उत्साहित हुई और पूरे ड्रेस कोड के साथ न सिर्फ वहां पहुंची बल्कि उन्होंने महिलाओं के साथ अपने पारंपरिक लोकनृत्य थडिया में भी शिरकत की. वे कहती हैं कोई भी व्यक्ति या देश धन ऐश्वर्य से कितना भी बड़ा क्यों न हों लेकिन जो ऐश्वर्य अपनी लोक परम्पराओं में ब्याप्त सांस्कृतिक मूल्यों में छिपा है भला ऐसी खुशियाँ दुनिया में ढूँढने से कहाँ मिलेंगी जहाँ एक दूसरे के सुरों में सुर हों एक दूसरे की बाँहें थामें क़दमों की चपलता हो और ऊँच नीच का कोई भेदभाव न हो तब लगता है कि विश्व भर में हम अपने लोक सांस्कृतिक मूल्यों के साथ कितने धनाढय हैं.
यकीनन 2014 में रमेश उनियाल द्वारा किया गया यह अतुलनीय प्रयास आज देहरादून जैसे महानगर में बड़े प्रतिष्ठित परिवारों के बीच भले ही अभी इज्जत व शाने-शौकत की परम्परा के रूप में प्रचलित हो रहा है लेकिन अपनी जड़ों पर वापस लौटते धनासेठों के आँगन से बहकर वापस लौट रहे हमारे संस्कृति के सांस्कृतिक परिवेश की यह पहल आगामी समय में ऐसी बयार बन जायेगी कि इसकी खुशबु में हम पुनः आल्हादित आनन्दित होंगे यह हमारा भरोंसा है!

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