ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल (पार्ट -1)…!गतांक से आगे….

ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल (पार्ट -1)…!गतांक से आगे….

 
(मनोज इष्टवाल)
पिछली क़िस्त में हम बांघाट पहुँचने के बाद पुनः दुगड्डा मंडी चले गए थे! नाड़ी केंद्रवाल दादा का पीछा करते-करते हम जहाँ दुगड्डा के दंगल पहुँच गये थे वहीँ अब पुनः लौटकर हम बांघाट पहुँचते हैं, जहाँ नदी के दूसरे छोर यानि मनियारस्यूं बूंगा की सरहद के नीचे जहाँ 1951 की बाढ़ से पूर्व बहुत बड़ा मैदानी भू-भाग होता था वहीँ सारे ढाकरी कैम्पिंग करते थे जबकि नीति-माणा तिबत्त क्षेत्र के भोटिया, राम्पा व अन्य जाति के लोग यहाँ से और उंचाई चढ़ते हुए राजबाट होकर या तो बनेख के आस-पास या फिर अदवाणी के आस-पास अपनी सैकड़ों खडीनों के साथ कैम्पिंग करते थे क्योंकि उनकी मजबूरी यह होती थी कि उनकी भेड़ें व वे स्वयं ठंडी प्रकृति के धनी हुआ करते थे जबकि नयार घाटी बेहद गर्म घाटियों में गिनी जाती रही है अत: इनका पहला कैंप द्वारीखाल, दूसरा बनेख अदवाणी या फिर उसके आस-पास तीसरा पौड़ी के नागदेव मंदिर के उपर झंडीधार हुआ करता था जहाँ से ये अगले दिन श्रीनगर उतरने की जगह पहाड़ी मार्ग चुनते हुए खिर्सू चौबटटाखाल होकर अपनी सैकड़ों भेड/बकरियां अपना आगे का सफर जारी रखते थे जबकि अन्य ढाकरी पौड़ी से अलग-अलग मार्गों में बंटना शुरू हो जाते थे! कोई खिर्सू क्षेत्र निकलता तो कोई नादलस्यूं की बैली-बमठी के रास्ते श्रीनगर ! और फिर वहां से अलकनंदा के किनारे राज मार्ग पर उतरकर आगे बढ़ते थे जो कर्णप्रयाग तक समांतर निकलता रहता था! कर्णप्रयाग से एक मार दांयीं ओर बढ़ता हुआ चौन्दकोट गढ़ी निकल जाता तो एक मार्ग संगम के पास लकड़ी के बने झूला पुल से केदार घाटी व बदरीनाथ घाटी को चला जाता!
(फोटो साभार- गूगल बाबा)
खैर ऐसे रास्ते तब दर्जनों थे और सच तो ये है कि इन सब रास्तों को तत्कालीन सुप्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट के गम बूटों व घोड़े की नालों ने सबसे ज्यादा रौंदा है! उन्होंने कुमाऊं गढ़वाल को जोड़ने वाले कई पैदल मार्गों को तब अपनी ट्रेवल डायरी में मैपिंग कर चिन्हित किया था! ऐसे में तल्ला मल्ला सलाण के ढाकरी लोग रामनगर मंडी ढाकर लेने किन रूट का प्रयोग करते रहे होंगे यह जिज्ञासा बनी हुई थी जिसे मेरे अग्रज गिरीश चन्द्र इष्टवाल जी ने शांत करते हुए कहा कि रामनगर से तल्ला-मल्ला सलाण के लोग मर्चुला, जड़ाऊखान्द, दीवाडांडा, कुमाऊंगाँव, मैठाणा घाट (रात्रीविश्राम) के लिए पहुँचते थे जहाँ से सबके रास्ते अलग अलग बंटते थे ! मैठाणाघाट से एक रास्ता लैली उड्यार (कालिंका जोगीमढ़ी) होता हुआ ढौंडियालस्यूं, साबली जबकि दूसरा बीरोंखाल, स्युन्सी बैजरो को निकल जाया करता था!
खैर ढाकरी रास्तों के मायाजाल से छुटकारा यूँ तो मिलेगा नहीं इसलिए इनका जिक्र देर सबेर होता ही रहेगा! फिलहाल बांघाट पहुँचने वाले पौड़ी व चौन्दकोट, बारहस्यूं व आस-पास के लोग सोच लेते थे कि वे समझ लो अपने गाँव पहुँच गए ! सच कहें तो बाजूबंद, छोपती और तुकबंदी के गीतों के रचयिता ढाकरी समाज के लोग ही थे जिन्होंने कालान्तर में कई ऐसे गीत रचे या उन पर उनकी प्रेयसी, साली या बीबी ने गीतों के बोलों की संरचनाकार की भूमिका कहीं न कहीं गाहे-बगाहे की! जैसे बाजूबंद शैली के गीत अक्सर उन नवयौवनाओं का परिचय जानने व उनसे ठट्टा मजाक करने का अच्छा संसाधन बन जाया करता था जो समूह में गाँव की सरहदों के पास घास लेने, लकड़ी काटने या खेतों में काम करने आई हुई होती थी तब एक धार से दूसरी धार, एक चोटी से दूसरी छोटी बाजूबंद प्रतिस्पर्दा का दौर चलता था और अक्सर इसी में काफी समय बीत जाया करता था!
जैसे ढाकरियों का झुण्ड दूर नवयौवनाओं को लुभाने हंसाने या प्रेमालाप करने के लिए बिना नाम जाने किसी को मैणा, किसी को रूप और किसी को बीरा नाम देकर गाते थे- ” ओ भैs करछी को ताछ , हाँ भैs करछी को ताछ ! म्यारा मन माया मैणा, त्यारा मन क्याछ ! भैs त्यारा मन क्याछ! दूसरी ओर से फिर हवा में लहराती सुर लहरी कुछ यों सुनाई देती थी! “ओहो हाथ ले दाथूडी, म्यारा मन तेरी भामी, लूछी ग्ये जिकुड़ी भैs लूछी ग्ये जिकुड़ी! अब इन शब्द विन्यास पर गौर कीजिये मर्द अपनी शैली में जो रचता था उसमें उसका कार्यकलाप दिखाई देता था जबकि महिला जो शब्द रचती थी उसमें उसका कार्यकलाप दिखाई देता था!
छोपत्ती स्वस्थ मनोरंजन के ऐसे गीत हुआ करते थे जिसमें शुद्ध हास-परिहास व ऐसा प्रेम छिपा रहता था जिसकी अविरल धारा आँखों से निकलकर दिल छू लेती थी! जैसे- साली जीजा से कहती सुनाई दे रही हो, ” म्यारा भीना सौदेर ले लैय छुपकी! और जीजा बड़ी शातिर तरीके से जवाब देता है कि- ल्याणु कु मी लांदु भीना रे छोपती, लौलू कैका नियां रे लैय छुपकी! तुकबंदी के ज्यादात्तर गीत खुद का दिल बहलाने या फिर ढाकरी समाज की अपनी रचना धर्मिता हुआ करती थी जैसे- मेरी सुवा हो, रिंगी चा सिंटूली, केला सी गेलकी होली रुंवा सी हंपली…मेरी सुवा हो!” इस तुकबन्दी का कोई तोड़ नहीं हुआ करता था सिर्फ शब्द अंत में मिलने चाहिए! इसी में ढाकरी गीत यह भी गिना जाता रहा है कि जब ढाकर लेकर पति घर पहुंचा तो उसे उसकी धर्मपत्नी पूछती है कि- “ब्याली सैन्या रे कैs बासा रैs तू-2! फिर पति बोलता है कि ब्याली रऊँ मी अमुवा बगवान! पत्नी फटाक से जवाब देती है- तभी औंदी रे अमुवा की बास!!
यह मेरे लिए सौभाग्य की बात रही कि ये गीत मैंने अपने लोक समाज के उन बुजुर्गों से सुने हैं जिनमें कतिपय आज जीवित तो नहीं हैं लेकिन मेरे लेखों में अपनी यादों को ताजा कर अमर हो गये ! मेरे गाँव के बलवंत सिंह नेगी यानि रामदे ब्वाड़ा, महिपत सिंह नेगी व भगवान् सिंह नेगी भैजी, आनन्द सिंह पंवार (रावत) चाचा, गम्धीरु आवजी ब्यटा, ठाकुर सिंह कंडारी भैजी, गीन्दा फूफू, कपोत्री चाची, गणेशी बौडी, बौल्या बौडी, कुकरी फूफू, कुंवली बौ, भगवती (मेरी माँ), कूडा पिनैकी बौडी, चरणी भुलैकी माँ, पदनी बौडी, मकड़ी चाची सहित जाने कितने ग्रामीण इन लोकगीतों में पारंगत थे!
 
इन्हीं ढाकरी जनमानस में कुछ स्टोरी टेलर के रूप में मशहूर होते थे जो रास्ता काटने के लिए कहानियां गढ़ते थे व हर कहानियों को रहस्यमयी बनाने में महारथी हुआ करते थे! ऐसे में चढ़ाई चढ़ते ढाकरी लोग अपना बोझा भूल जाते थे व कहानी कथा सुनने में इतने मशगूल हो जाते थे कि मीलों तक का रास्ता यूँहीं कट जाता था इन कहानियों स्वरुप कुछ यों होता था जैसे- दो भाई सौल्या और गौल्या! नाम ऐसे जिनका वजूद न हो! और कथाकार कहता सुनाई देता था कि सौल्या घट घुमाता तो उसका भाई गौल्या अपने बदन के जूं मारता, इतने बहादुर की वे पानी से क्या खून से घट घुमा देते थे! जब पाद मारते तो पत्थर फूट जाया करते! और फिर हुंकार लेते हुए कथाकार कहता- माई मरदान का च्याला सिंघणी का जाया! ढोल फूटी ग्येना पत्थर टूटी ग्येना! ..हाहाहा हा सचमुच ये प्रसंग इतने बेजोड़ होते थे कि लोग उन्हीं में मीलों उलझे रहे कथा कहानी जानबूझकर इतनी लम्बी प्लांट होती कि कई जगह जब थौs खाने के लिए लोग सुस्ताते या चिलम पीते तो कथाकार आगे की कथा को प्लांट करने में देरी नहीं लगाते थे! सचमुच ये कथाकार बहुत चकडैत रहे होंगे क्योंकि उनका बोझा तब सब आपस में बाँट लेते और वे सिर्फ कथा सुनाते! मेरे पिताजी, सुबागी ब्वाडा, और बलवंत ब्वाड़ा यानि रामचंद्र भैजी के पिताजी सहित दर्जनों ऐसे कथाकार थे जो अगर कथा सुनाते तो सुनने वालों की वहां भीड़ लग जाती! बलवंत ब्वाड़ा यानि बलवंत सिंह पडियार (बिष्ट) की कथा बेहद निराली हुआ करती थी! तब हमारे अबोध बचपन में डायनासोर नामक कोई प्राणी होता नहीं था लेकिन उनकी डिक्शनरी में ये सब थे! एक बार वो कहते कि एक जानवर के पैर तो मेरे घर पर रहते थे लेकिन उसका सर/मुंह खैरालिंग के डांडा का हरा बांज खा सकता था यानि गाँव से लगभग 10 मील दूर, फिर दूसरी कहानी होती थी कि एक बार हमने केतली पर चाय चढ़ाई तो ये सोचा यह पेड़ की जड़ है इसलिए एक तरफ पत्थर और दूसरी तरफ जड़ का चुल्हा बनाया! बस चाय खौलने वाली ही थी कि सांप ने करवट बदली और पूरी केतली चाय गिर गयी! वह जड़ नहीं सांप का पेट का हिस्सा था जबकि उसका मुंह तीन मील दूर और पूँछ एक मील दूर थी!
उनकी सबसे रोचक कहानी हम बार बार सुनने को बेताब रहते थे और वह थी उनकी ढाका पुलिस से जुडी यादें! वे रोचकता से सुनाते, बोलते – अरे बेटे क्या बोलूं तब! मेरे कमरे के बीचोबीच तब पानी की नहर जाती थी! उसपर कळत कळत करती हरामखोर ऐ लम्बी मछलियां जाती! मैं भी बस नहर के ऊपर कुर्सी लगाकर बैठ जाता और ये देख रहा है मेरे हाथ में बंसुला, जिससे मैं ये लकड़ी फाड़ रहा हूँ! फटाक से मछली के सर पर मारता और वह उछलकर मेरे कमरे में आ जाती! वह इतनी बड़ी होती कि पूरी प्लाटून एक मछली में छक जाती! अहा..सचमुच ब्वाड़ा की ऐसी कहानियों में जो रस होता वह सुनते ही बनता था लगता था जैसे यह घटनाक्रम आँखों के आगे गुजरा हो! वैसे ही उनकी बड़ी-बड़ी आँखें थी और कानों पर लपेटकर रखने वाली मूंछे! उनका एक डायलाग आज भी याद है- सोर का बच्चा साला, हराम का पट्ठा साला, जिस दूकान में जाता साला, उसी दूकान में आता साला…!
ये है रियल थ्रिल व स्टोरी टेलर का वह जीता जागता उदाहरण जो उस काल में यानी आज से लगभग आधी सदी पूर्व दिखने सुनने में मिलता था जब टीवी रेडिओ नहीं हुआ करते थे तब ऐसा ही स्वस्थ मनोरंजन हुआ करता था! इसलिए आज इतना ही ! कल ढाकरी जीवन पर चर्चा के बीच बादी समाज, मिरासी समाज, घडेला व अन्य उपादानों को परोसने की कोशिश करूँगा तब तक के लिए विदा!
(नोट- अगला अंक कल पढ़ना न भूलें! उम्मीद है आम एन्जॉय कर रहे होंगे)

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