ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल…!
ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल…!
(मनोज इष्टवाल)
“हे रे बुढया ढक्कै सौंs, ढाकर जांदी ढक्कै सौं…! जैसे लोक गीतों की उत्पत्ति लोक समाज में यूँहीं नहीं हुई! ढाकरी गीतों की गायन विधा और उसमें समाया अतीत का सारा हास-परिहास दुःख दर्द, और तत्कालीन जीवन शैली को उदृत करने का बड़ा माध्यम था लेकिन वह अतीत के काले अक्षरों को साथ जाने कहाँ गुम हो गया या फिर उन गीतों की पुनरावृत्ति लोक समाज में क्यों नहीं हुई या किसी लोक कलाकार ने उन गीतों के माध्यम से जन्में कई मूल्यों के चित्रण को क्यों नकार दिया यह हमें समझना होगा, जैसे मुंडनेश्वर महादेव (खैरालिंग) की उत्पत्ति से जुड़ा एक ढाकरी गीत है :- “ढाकर पैटी रे माडू थैरवाल! अस्सी बरस कु बुढया रे माडू थैरवाल!
खैर ढाकरी और ढाकर पर रचे बसे गीत व उस लोक समाज पर शोधपरक लेख जल्दी ही आप तक पहुंचाऊंगा फिलहाल मेरा मकसद ढाकर मंडी दुगड्डा से लेकर तिब्बत तक माल पहुंचाने वाले उन खडीनों की जिन्दगी से जुड़े अहम पहलुओं पर इसे केन्द्रित करने का मन है! सन 1905 तक यह मंडी कोटद्वार के सिद्धबलि मंदिर से पहले लगभग आधा से एक किमी. दुगड्डा की ओर लगती थी जहाँ आज भी नदी पार मंडी के भग्नावेश दिखाई देते हैं!

(फाइल फोटो- गूगल)
1905 या उसके आस-पास दुर्गादेवी तक मोटर मार्ग बन जाने के बाद यह मंडी दुगड्डा शिफ्ट हुई! यों तो यह मंडी दुगड्डा में पूर्व से भी मानी जाती रही है लेकिन मुख्यतः कोटद्वार से ही बड़े धनासेठ खडींन में लम्बे सफर का लगभग एक साल के लिए माल भरते थे! दुगड्डा मंडी ज्यों ही विकसित हुई ढान्गु-उदयपुर की छोटी मंडी डाडामंडी के नाम से जानी जाने लगी जबकि तल्ला पल्ला उदयपुर जिन्हें डांडामंडल क्षेत्र या छोटी विलायत के नाम से जाना जाता था वे हरिद्वार ऋषिकेश व देहरादून के डोईवाला क्षेत्र से अपनी जरूरतों के सामान की ढाकर लाने जाते थे!
वर्तमान युग के नए कर्णधार पहले तो ढाकर शब्द पर उलझ रहे होंगे कि आखिर यह बला क्या है व दूसरे “खडीन” नामक शब्द पर..! मेरा दावा है कि मेरी उम्र के भी ज्यादात्तर लोग खडींन शब्द से प्रचलित नहीं होंगे! तो आइये इन शब्दों की व्याख्या कर दें!
ढाकर= ढा-ढो (उठा), कर- कर अर्थात जिस वस्तु को आप उठा कर ला रहे हैं उसका सूक्ष्म शब्द हुआ ढाकर! और अगर इसी में हम “ह” लगा दें तो शब्द का अर्थ उजाड़जकर हो जाता है! यह शब्द मूलतः गढवाली बोली में प्रचलित माने जाने वाला शुद्ध देवनागरी लिपि का शब्द कहा जा सकता है!
वहीँ खडींन= का शाब्दिक अर्थ खाडू (मेंडा/भेड़) इत्यादि से जोड़कर देखा जाता रहा है लेकिन इस शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई यह कहना सम्भव नहीं है फिर भी इस शब्द को ज्यादात्तर लोग भोटिया, राम्पा या फिर तिब्बती समाज की देन मानते हैं! और ये खडींन भी वही काम करते थे जो ढाकरी किया करते थे! ढाकरी भी दैनिक दिनचर्या का सामान तब पीठ का बोझा बनाकर ढोया करते थे और खडींन यानि भेड़ बकरियां भी दैनिक दिनचर्या का समान पीठ पर ही ढोया करती थी!
जाने माने साहित्यकार भीष्म कुकरेती के कुछ शब्द मेरे उस लेख को मजबूती देते दीखते हैं जो उन्होंने अपने पिछले दिनों के एक लेख में लिखा है कि दुगड्डा में मंडी विकसित होते ही वहां वैश्यालय भी ब्रिटिशकाल में शुरू हो गए थे! उन्होंने आगे लिखा कि दुगड्डा जाने वालों की दिनचर्या में उस काल में भोजन के लिए ढुंगले, सत्तू-आलू व गागली,मनोरंजन के लिए लोकगीत, स्वांग, कहावतें, लोककथाएँ, गायक, गपोड़ी हास परिहास, बादी-बदीण, हुडक्या, मिरासी, चरखी, जादू-टोना, नर्तक-नर्तकियां, कथा-वाचन इत्यादि सभी संसाधन अपने आप जुट जाते थे!
ये तो जिंदगी की सचाई है कि हम सब एक दूसरे के पूरक रहे हैं और इन पूर्तियों को पूरा करने के लिए ही अपने अपने स्तर पर अपनी जिन्दगी काट लेते हैं! डॉ. सुभाष थलेडी ने ढाकरी रूट की जानकारी अपने गाँव बिलखेत तक जोड़ते हुए बताया कि दुगड्डा से ढाकर लाने वाले ढाकरी प्रतिदिन 25 से 30 किमी. की यात्रा करते थे! वे दुगड्डा से डाडामंडी, देविखेत होकर पहले दिन द्वारीखाल में विश्राम करते थे! जहाँ तरह तरह की संस्कृतियों का मिलान होता था! और अगले दिन ग्वीन, बकरोटगाँव होकर बांघाट पहुँचते थे जहाँ से सतपुली या उसके आस-पास के लोग अपने अपने घरों पहुँचते थे लेकिन पौड़ी या उस से आगे जाने वाले लोग यहीं बिश्राम करते थे!
सच भी है सतपुली का विकास सन 1942 के आस-पास हुआ जब वहां सडक पहुंची और वह गाड़ियों के ठहरने का स्थान बना उस से पहले बांघाट ही गढ़वाल से लेकर तिब्बत व्यापार का बड़ा बाजार था व इसका विकास भी ठेठ उसी तरह हुआ करता था जैसे दुगड्डा की मंडी का था! तब तक नयार एक औसत नदी भर थी और बांघाट का बाजार बिस्तार काफी बड़ा था! जिसमें डाडामंडी जैसी सभी गतिविधियाँ हुआ करती थी लेकिन यहाँ वैश्यालय नहीं हुआ करते थे! शायद होटलों का तब चलन कम था क्योंकि तब चाय प्रचलन में नहीं थी या रही भी होगी तो उसे ब्यसनी ब्यक्ति माना जाता रहा है! मेरे गाँव में मेरे बूढ़े दादा जी (बद्री दत्त) पहले ऐसे व्यक्ति थे जो उस काल में चाय पिया करते थे और भांग भी! क्योंकि वे ब्रिटिशकाल में देहरादून के राजपुर थाना के दरोगा रहे इसलिए वह चाय अपने साथ लेकर आते थे या फिर तुलसी की चाय पीया करते थे! लोग उनसे इसलिए डरते भी थे कि ये नशा करता है! आज सुनकर हंसी आती है कि उसकाल में चाय को भी नशा माना था! आज भी वह लोहे की केतली हमारे घर में है! इसलिए तब जाति–पाती चरम पर हुआ करती थी! बांघाट में रसोई बनाने वाले चुफ्फा ब्राह्मण, राजपूत एक दूसरे के हाथ का भात नहीं खाया करते थे! इसलिए यहाँ डुंगले व मालू के पत्तों के बीच मच्छी रखकर नमक के साथ उन्हें आग के अंदर रखे गर्म गोल पत्थर जिन्हें ल्वाडा/गंगल्वाडा कहा जाता है उनके उपर रखा जाता था! यह मेरा नसीब है कि बचपन में मैंने भी यह सब खाया है! वहीँ जो मांसाहारी नहीं हुआ करते थे वे आलू/गागली को आग के गर्म कोयलों के नीचे रखकर उन्हें पकाते उसमें नमक मिर्च तिल का तेल मिलाकर उसका लुणचुर बनाकर खाया करते थे!
तब कई बार आपसी जोर आजमाइश के लिए दंगल भी जुटते थे और हार जीत के बाद एक दूसरे के गले मिलते थे! ऐसा ही एक प्रसंग अतीत की यादों को ताजा करते हुए आता है जब हमारे गाँव के बुजुर्ग नारायण सिंह केंद्रवाल (नेगी) उर्फ नाड़ी केन्द्रवाल ने दुगड्डा में एक पहलवान को चित्त कर दिया! हमारे गाँव के अग्रज बताते हैं कि जब गाँव के लोग खरीददार के लिए दुगड्डा मंडी में घूम रहे थे तब वे देखते हैं कि एक व्यक्ति लगोंट बांधे पूरे बदन में तेल मलकर हाथ पैरों में मोटी-मोटी लोहे की सांगल बांधकर ललकार रहा है कि है कोई जिसने अपनी माँ का दूध पिया है आकर मुझसे कुश्ती लड़ ले! वह कभी जाँघों में हाथ मारता तो कभी छाती पर..! वह कद काठी से भी आदिमानव जैसा था और इसकी दहशत पूरे दुगड्डा में थी! कोई सिपाही भी उस से नहीं उलझता था! नाड़ी केन्द्रवाल यानि नारायण सिंह केन्द्रवाल दुबली पतली कद काठी के थे लेकिन कर्मठ ऐसे कि काम-काज कर कर के तप-तप कर लोहा बने थे! एक किनारे पर चिलम का आखिरी धुंवा उड़ाते अचानक दंगल में कूद गए! सब घबरा गए कि ये बेचारा आज बेमौत मारा जाएगा! पहलवान ने नारायण सिंह केन्द्र्वाल को ऊपर से नीचे तक देखा और जोर-जोर से हंसने लगा! गाँव वालों ने भी आवाज दे दे कर नारायण सिंह को वापस लौटने को बोला लेकिन राजपूती जोश भला वापस कहाँ लौटने वाला था! और अचानक वह हुआ जो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी! नारायण सिंह केन्द्रवाल ने ऐसा दांव मारा कि पहलवान धरती पर चित्त गिर पड़ा! जैसे ही उन्होंने पहलवान को छोड़ा तो पहलवान गुस्से से आग-बबूला उनकी ओर लपका लेकिन सर्कल में खड़े सभी लोगों ने लाठी डंडे दिखाकर पहलवान की ऐसी बेईजती की कि उसके बाद वह कभी दुबारा दुगड्डा मंडी में नहीं दिखा और पूरे दुगड्डा में नारायण सिंह नेगी के नाम की धूम मच गयी!
(नोट- लेख बड़ा है इसलिए इसे दो या तीन किस्तों में प्रस्तुत कर रहा हूँ! अगला अंश कृपया कल अवश्य पढ़ें)
आपके सारे लेख अध्ययन योग्य हैं सर।धन्यवाद
धन्यवाद सर!
उदयपुर पट्टी के लिए ढाकर का एक रास्ता और भी था। चौकी {कणवाश्रम) से मालन के किनारे चलते हुए गुजरगली होते हुए थलनदी और मेरे गांव थनूर बोरगांव तक । मेरे दादा जी इसी मार्ग से अपनी पलटन BEG रुड़की भी आया जाया करते थे
ये कोटद्वारा की ढाकर मंडी का रास्ता था बिष्ट जी जो कोटद्वारा, कण्वाश्रम, से महाबगढ़ निकलता था जिसे बाद में डाकू सुल्ताना के भय से बन्द कर दिया गया था।
बहुत सुंदर जानकारी भैजी, म्यार भी बुजर्गो म सुण यु पैली ढ़ाकर ले कि अंदा छाई लोग, ढिबरो म नंबर लिख्या रौंद छ्याई बल,