"ढाकर" एक परिचय…! भाग 1

(मनोज इष्टवाल)

बर्ष 1888 तक कोटद्वार कोई शहर नहीं था बल्कि खोह व गिंवाई स्रोत के बीच बनी एक छोटी सी मंडी हुआ करती थी जहां से पहाड़ी भू-भागों के लोग अपनी जरूरतों का सामान लेकर कोटद्वार से तिब्बत तक, घोड़े-खच्चर, खडीन व स्वयं माल ढो कर ले जाया करते थे ।

1909 में अंग्रेजों ने लैंसडाउन छावनी तक के लिए सडक खोदना शुरू किया और यह मार्केट कोटद्वार के सिद्धबली मंदिर से आगे खोह-गिंवई स्रोत से सरककर दुगड्डा आ गयी । प्राप्त जानकारी के हिसाब से 1907 में कोटद्वार की यह मंडी बाढ़ में बह गयी बताई गई है । कहा जाता है कि सेठ धनीराम मिश्र द्वारा दुगड्डा बहेड़ी में फिर एक मंडी का निर्माण करवाया गया ।

वर्ष 1920 तक कोटद्वार से दुगड्डा तक पक्की सड़क बन गई थी यहा तक कार एवं मोटगाड़ियां चलने लगी थी । वर्ष 1924 में इस सड़क को उमरीखाल तथा लैंसडाउन, तथा वर्ष 1944 में पौड़ी तक बढ़ाया गया । अत: बिगत सदी के 40 के दशक तक दुगड्डा मंडी का अस्तित्व खत्म होने लगा क्योंकि सडक के साथ साथ बाजार भी पहाड़ की तरफ सरकने लगा ।

ढाकर का शाब्दिक अर्थ ही ढाह कर यानि उठाकर ले जाना है । सड़कों का जाल बिछने से पहले ग्रामीण मरसा या चौलाई के बदले दुगड्डा से अपने लिये नमक, सीरा, गुड़ और कपड़े इत्यादि अपनी पीठ या खच्चरों पर लाद कर लाते थे। नजीबाबाद के बाद मुख्य मंडी दुगड्डा हुआ करती थी ।

रात्रि में ढाकरी विश्राम स्थल पर स्वरचित स्वांग (नाटक ) खेलते थे । लोकगीत गाते थे , मैणा (पहेलियाँ ) बुझाते थे व कहावतों व लोककथाओं का आदान प्रदान करते थे। ढाकरियों के मध्य, गायक गपोड़ी या हास्य रचियिता की बड़ी मांग होती थी। घडेळा के जागर भी गाये जाते थे । डाडामंडी व बांघाट जैसी मंडियों में बादी-बादण भी आया जाया करते थे । कोटद्वार में हुड़क्या , मिरासी भी यह काम करते थे। इन मंडियों में बाक्की -पुछेर भी अवश्य पंहुचते थे।

हिमालय दिग्दर्शन यात्रा-2020 का मकसद है पर्यावरणीय सुन्दरता के साथ ढाकर मार्गों को ढूंढना व उन्हें ट्रैक रूट में तब्दील करना । हमारी इस यात्रा मार्ग का प्रथम पड़ाव चक्रवर्ती सम्राट भरत की माँ शकुन्तला के कण्वाश्रम से लेकर भरत के जन्मस्थल भरपूर (महाबगढ़) होगा।


क्रमशः

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