डॉ. निशंक के मुद्दे पर वेद ने रविश को घेरा! कहाँ रविश की एक किताब और कहाँ निशंक 44 पर…!
वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल की यह तो खासियत रही है कि वे अपने लेखन में भौंडापन नहीं लाते! बस लाते हैं तो नपे तुले शब्दों में ऐसे तीर जिनका जबाब देना सरल नहीं होता! और सामने वाले को कई औषधी पादपों की ढूंढ में फिर भटकना पड़ता है! वेद विलास ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, हरिद्वार के लोक सभा सांसद व वर्तमान में केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्री बने डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक पर एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार रविश कुमार द्वारा उनके लेखन पर उठाये गए सवालों का जिस अंदाज में जबाब दिया वह काबिलेगौर है! आइये पढ़ते हैं क्या कहती है वेद विलास की कलम…….!
(वेद विलास उनियाल)

किसी भी चैनल के जरिए प्रधानमंत्री की केबिनेट में शामिल हो रहे किसी मंत्री की समीक्षा करना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। इस नाते एनडीटीवी के एक पत्रकार के जरिए प्राइम टाइम में डा. निशंक को केंद्र मे रखकर चलाए गए कार्यक्रम को इसी रूप में समझा जाना चाहिए। किसी नए मंत्री के गुण दोष योग्यता और उससे जो अपेक्षाएं हैं उन सभी पहलुओं पर टिप्पणी करना उसका अधिकार बनता है ।
… लेकिन यहां बात रविश के डा. निशंक का माखौल उडाने जैसे अंदाज को लेकर है। वो इस बात पर माखौल उडाते हैं कि जो केंद्रीय मंत्री है उन्होंने 44 किताबें लिखी हैं। कुछ इस शैली में अप्रत्यक्ष कटाक्ष कि राजनीति में रहते इतना कैसे संभव है। रविश भूल जाते हैं कि इस देश में एक मैक्निकल इजीनियर एक पारी में दस विकेट ले सकता है। एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति सुंदरता से वीणा बजा सकता है। एक पत्रकार भारी व्यस्तता के बावजूद चिलचिलाती धूप में रोड शो के लिए बेगुसराय पहुंच सकता है, तो एक नेता 44 किताबें क्यों नहीं लिख सकता।

1- रविश ने लगभग दो साल पहले एक किताब लिखी थी। उस अकेली किताब को प्रचारित करने के लिए रविश ने क्या कुछ नहीं किया। किताब के प्रकाशक ने भी प्रगति मैदान पुस्तक मेले में रविश के ऐसे कटआउट लगाए जैसे दक्षिण भारत फिल्म कलाकारों के लगते हैं। रविश के मठ के चेले एक साल तक लोगों को अगाह करते रहे कि ऐसी किताब आ रही है कि दुनिया जान जाएगी कि लिखना किसे कहते हैं। बौद्दिक जगत के खास लोगो ने पूरा खूबसूरत समा बांधा कि उस किताब से लोगों को दिल्लगी हो जाए।
प्रगति मैदान मे जाकर लग रहा था, बस पूरे मैदान में साल के दो ही विशिष्ट लेखक हैं एक सचिन तेंदुलकर दूसरा रविश। यह किताब आई और हिंदी पाठक वर्ग में कितनी स्वीकार की गई यह रविश बेहतर बता पाएंगे। लेकिन एक किताब लिखने के बाद रविश को आभास होना चाहिए था कि कम से कम राजनीति में रहते हुए एक व्यक्ति हिंदी में लिखने और किताब को लाने की ललक भी रखता है तो यह मजाक का विषय नहीं हो सकता हैै।
डा निशंक ने राजनीति में रहते सभी किताबें नहीं लिखी , कुछ किताबे छात्र जीवन के दौर से भी है। और कुछ किताबें बहुत कम पन्नों की है। उनसे सवाल किया जाता रहा कि इतना कब लिख देते हैं उनका जवाब होता था सुबह उठकर कुछ देर लेखन करता हूं। उनकी किताबों का अच्छा या सामान्य कोई स्तर हो सकता है लेकिन उनकी लिखने की प्रवृति का अगर वही लोग मजाक उडाए जो हिंदी के नाम पर रोटी खा रहे हैं , थोडा अजीब लगता है। कही न कहीं बायस्ड होना भी।
2- रविश ने ऐसी तत्परता तब नहीं दिखाई जब बिना राजनीतिक पृष्ठभूमि के दसवी पास एक लडका डाक्टरों का मंत्री बन जाता है। क्योंकि वह दबंग जागीरदार टाइप के नेता का बेटा है। राज्य मे परिवार की चलती थी। जो सोच लिया जनता सिर झुकाकर स्वीकार करें। रविश तब भी तत्परता नहीं दिखाते जब एक पढने लिखने में असमर्थ महिला किसी राज्य की मुख्यमंत्री बन जाती है। अंगूठा का छापा से राज्य चलता रहा क्योंकि पति वातानुकूलित जेल के अंदर थे। लेकिन उनकी तत्परता यहां दिखती है कि किसी ने राजनीति में रहते 44 किताबें कैसे लिख दी।
3- प्रकृति अपनी अपनी शक्तियां देती है। रविश को लगातार बोलने की शक्ति दी है , किसी को लगातार किताबें लिखने की शक्ति दी है। सवाल यही तक नहीं था , एक केबिनेट मंत्री पर अगर कार्यक्रम दिखा रहे हैं तो केवल मजाकिया पहलू बनाकर दिखाना, थोडा अनुचित इसलिए भी लगता है कि उनके तमाम पहलुओं पर काफी कुछ बताने के लिए था। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, एक शिशु मंदिर के शिक्षक से मुख्यमंत्री और मानव संसाधन मंत्री बनने तक का सफर, उत्तराखड में उनका प्रभाव, प्रशासनिक संगठन कौशल। हां निश्चित रूप से एक राजनेता के बतौर डां निशंक कुछ ऐसे कमजोर पक्ष भी हो सकते है कि आलोचना की जा सके। लेकिन खबर को उनकी किताबों का संदर्भ लेकर एक विचित्र और उपहास सा माहौल बनाना थोडा अजीब लगा। जब बिना सामाजिक पृष्ठभूमि के अरबपतियों को दिल्ली में राज्यसभा के टिकट मिलते हैं तब जानने सोचने की ललक तत्परता गायब हो जाती है।
4- लिखना एक सहज प्रवृति होती है। जिंदगी के 42 बसंत देखने वाले जयशंकर ने 48 साहित्य रचनाएं दी है। इनमें कामायनी जैसी महाकाव्य भी है जिस अकेली किताब को ही न जाने कब समय निकाल कर लिखा होगा। उनके लिखे चंद्रगुप्त, अजातशत्रु, समुद्रगुप्त जैसे नाटक है उपन्यास है। पढा जाता है कि जयशंकर प्रसादजी अक्सर बनारस के एक ढैैयया में पान खाते , तंबाकू हाथो में लिए दिखा करते थे, लोग पूछा करते थे कि वह लिखते कब होंगे। शैली, कीट्स, भारतेंदु हरीशचंद्र, प्रेमचंद किसी ने भी लंबा जीवन नहीं पाया। पर अथाह और श्रेष्ठ साहित्य लिखा। इस स्तर पर नहीं आता लेकिन संख्या पर कहें तो लिखने की अभिरुचि वाला कोई व्यक्ति ठान ले तो 42 किताबें लिखना बहुत मुश्किल भी नहीं।
5- डा. निशंक उत्तराखंड से हैं। यहाँ लोगो को साहित्य, लेखन की आदत रही है। कई पत्रकार हैं जो देहरादून में बैठे दस-दस किताबें लिख चुके हैं । यहां लोग किसी भी क्षेत्र में हों किताब लेख आदि लिखने की ललक उनमें रहती है। शिक्षक, डाक्टर, वैज्ञानिक रिटायर होते हैं तो एक किताब लिख ही देते हैं। कोई कहीं घूमने फिरने जाता है संस्मरण पर किताब आ जाती है। डा निशंक राजनीति में बाद मं आए, लिखने का शौक उनमें पहले से था इससे कोई इंकार नही करेगा। हा राजनीति कुछ चीजें जरूर सुलभ करा देती है। जैसे प्रकाशकों की अनुमति मिलना, किताब को चर्चा मिलना। किताब की ठीकठाक समीक्षा होना। गिरधर गोमांग ढोल बजाने में प्रवीण हैं अपने ही उत्तराखंड के शूरवीर सिंह सजवाण बहुत सुंदरता से बाजुबंद गीत गाते हैं। इन बातों की भी प्रशंसा होनी चाहिए।
6- जिस भी राजनेता ने लिखने की ललक दिखाई हो उसका कम से कम इस दिशा मे प्रशंसा की जानी चाहिए। डा निशंक ने भारत पाकिस्तान के मैच में सट्टा लगाने का शौक नहीं पाला। पं जवाहर लाल नेहरू ने डिस्कवरी आफ इंडिया लिखी। कर्ण सिंह अर्जुन सिंह बसंत साठे, प्रणव मुखर्जी तमाम राजनेता हुए हैं जिनकी बौद्धिक लेखन जगत आदर करता है। उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्र जहा मोटर भी सत्तर अस्सी के दशक में पहुंची हो , वहां से निकल कर राजनीतिक के इस स्तर पर पहुंचा एक नेता अगर लिखने -पढने की ललक दिखाए तो कम से कम मजाक का पात्र नहीं होता। हां , राजनीति जीवन और उससे जुडे पहलू की समीक्षा, अालोचना , प्रशंसा बिल्कुल अलग विषय है। उसका किसी भी मीडिया संस्थान को पूरा अधिकार बनता है। पर घेरना है इसलिए कहना है , वाली नीति आपको हमको शक के दायरे में रखती है।