डेढ़ दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है जौनसार जनजातीय क्षेत्र की होली! बिस्सू मेले में गनियात में होती है फूलों की होली..!

डेढ़ दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है जौनसार जनजातीय क्षेत्र की होली! बिस्सू मेले में गनियात में होती है फूलों की होली..!
(मनोज इष्टवाल)
यह भी एक अलग आश्चर्य की बात है कि उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से मात्र 60 से 80 किमी. की दूरी पर अवस्थित जौनसार जनजातीय क्षेत्र में बर्ष 2000 तक होली पर्व नगण्य था ! बहुत कम लोग जानते थे कि होली का स्वरुप आखिर है क्या लेकिन बाहर से नौकरियों पर पहुंचे लोग, व्यापारी वर्ग इत्यादि की देखा-देखि यहाँ भी होली के रंग चढ़ने शुरू हुए और आज सम्पूर्ण जौनसार बावर होली के रंगों से तर्र होली पर्व को बड़े धूमधाम से मनाने लगा है!

होली कब और कहाँ से शुरू हुई इस पर अनेकोनेक मतभेद हैं! कोई बृज की होली पुरातन मानना है तो कोई गढ़वाल की! बहरहाल आपको जानकारी दे दें कि गढ़वाल मंडल के जिला चमोली उत्तराखंड के जोशीमठ में होलिका भक्त प्रहलाद को गोदी में लेकर अग्नि कुंड में बैठी थी और चिता में जल मरी थी! यही वह क्षेत्र है जहाँ भगवान बिष्णु ने नरसिंह का रूप धारण कर हृणयकश्यप का वध किया था! नृसिंह रूप के बारे में प्रहलाद नाटक में भवानीदत्त थपलियाल कुछ इस काव्योक्ति का वर्णन करते हैं:-

खम्बा का बम्वाते किम्बा उठे, नख दान्तुको लम्बा अचम्भा लखायो!
इनो चाणओ न जाणओ न सुणओ कभी, बलि रूप अनूप स्वरूप छक्यायो!!
देव न दानव सिंघ न मानव, आनsव दानव खांदो छ क्या यो!
अर्धंग छ सिंघ यो बिंग कछु, अरे आवा बचावा मिखायो मिखायो!! (प्रहलाद !!हिरण्यकश्यप सवैया!! पृ.१०५)
होली की व्यापक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा करने से जौनसार क्षेत्र के ये होलि के डेढ़ दशक भी गौण हो जायेंगे इसलिए जौनसार में होली का अगर पर्व कहीं देखने को मिलता था तो वह एक मात्र यमुना तट से लगभग 5 किमी. दूरी पर बसा लखवाड गाँव था ! यहाँ के बारे में यों तो कई कहावतें प्रचलित रही हैं लेकिन लखवाड़ी होली सयाणा के घर से शुरू होकर महासू के आँगन में प्रारम्भ होती थी! आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि यहाँ का जनमानस आज भी पारम्परिक होली के कोई गीत गाकर सूना दे तो बड़े आश्चर्य की बात होगी! भले ही अब इस क्षेत्र के पढ़े लिखे युवक शास्त्रीय संगीत में रुझान रखने के बाद अवधि होली, खड़ी होली, बैठकी होली के हिंदी रूपान्तर गीतों को आपको गाकर सूना देंगे लेकिन इन गीतों का यहाँ के लोक समाज में कोई महत्व या प्रचलन नहीं है और न ही जौनसारी भाषा में अभी तक कोई होली की पुरातन लोक संरचना या लोकगीत दिखने को मिले हैं!

यमुना क्षेत्र से होली लखवाड़ियों से सरककर थोड़ा और ऊपर नागथात में गई जहाँ के बाजार में शुरुआती दौर में रेडक्रॉस हॉस्पिटल का बाहर से आया स्टाफ़ होली खेलता था या फिर इंटर कालेज में का वह स्टाफ जो होली पर अपने गाँव शहर नहीं जा पाते थे!
क्षेत्र के समाजसेवी इंद्र सिंह नेगी बताते हैं कि उन्हें ठीक से याद तो नहीं कि उनके बचपन में होली के रंग रहे हों लेकिन इतना जरुर है कि जौनसार बावरी समाज बिस्सू मेले की गनियात के दिन जंगलों से बुरांस के फूल चुनकर लाते थे व उन्हें अपने घरों पर टांगा करते थे. तब फूल अति होते थे तो उन्ही को एक दूसरे में फैंककर फूलों की होली मनाते थे!

वहीँ प्रदेश के सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग में कार्यरत उपनिदेशक कलम सिंह चौहान बताते हैं कि उन्होंने अपने क्षेत्र में होली पिछले तीन सालों से देखी! कलम सिंह चौहान बताते हैं कि इस साल होली का जश्न हमारे गाँव में कुछ ज्यादा दिखने को मिला! भले ही वे व्यस्तता के कारण गाँव नहीं जा पाए लेकिन उन्हें जो जानकारी मिली है उसके अनुसार वे बताते हैं कि गाँव के जनमानस तीन धडों में बंटे पहला युवा पुरुष, दूसरा युवा लडकियां और तीसरा रैन्टूडीयां (बिवाहित महिलायें) ! इन्होने हेला लगाकर (सामूहिक रूप से) गाँव के हर घर में बड़े स्नेह प्रेम के साथ रंग लगाए और फिर ठीक वैसे ही अपनी लोक संस्कृति के गीत गाये जैसे मौल्यार ग्रुप ने देहरादून के कई प्रतिष्ठित लोगों के घर में होली के गीत गाये! उनका कहना है कि आज भी जौनसार बावर क्षेत्र के लोग होली की व्यापकता को नहीं जानते लेकिन अब यह शुकूनदायक होने लगा है कि नौकरीपेशा वाले लोग इस बाहरी त्यौहार को गाँव तक ले आये हैं! और उसे बेहद अनुशासित रूप में खेल रहे हैं!

जौनसार बावर क्षेत्र के सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी नन्दलाल भारती का कहना है कि होली कभी भी जौनसार जनजातीय क्षेत्र का त्यौहार नहीं रहा है! वे बेशक इसे पिछले 15-20 बर्ष पूर्व चकराता बाजार में देखने जाया करते थे जहाँ जनजातीय क्षेत्र के बाहर से आये नौकरी-पेशा लोग या बणिया रंगों की होली खेला करते थे! तब उन्हें उत्सुकता रहती थी कि आखिर रंग लगाने का प्रयोजन क्या है लेकिन पिछले दो तीन सालों से उन्हें अब गाँवों तक होली दिखने लगी है! वे कहते हैं जैसे जैसे सड़कें गाँव तक पहुंची बाहरी त्यौहार भी सड़कों के माध्यम से गाँव में घुसने लगे हैं! युवा इसे मनोरंजन का साधन समझकर रंगों के साथ ढोल की थाप में खूब झूमता है तो बुजुर्ग की समझ से बाहर यह त्यौहार उन्हें गाँव से दूर किसी ऊँची चोटी पर शुकून की सांस लेने भेज देता है! सच तो यह है कि यहाँ के किसी भी जनमानस को यह पता नहीं होगा कि होलिका कौन थी! प्रहलाद से उसका क्या सम्बन्ध और यह परम्परा कैसे पड़ी!

इस बर्ष खत्त बहलाड़ के नागथात में जनजातीय जनमानस ने होली के रंगों में रंगकर भले ही होली के गीत इसलिए न गाये हों कि उन्हें वे आते नहीं हैं लेकिन अपनी लोक परम्पराओं से जुड़े नृत्यों से शमां बांधकर रख दी! बिलुप्त होता झैंता लोकनृत्य/लोकगीत, जंगू, हारुल, घुन्डिया रासौ व धुमसु नृत्य के साथ बिखरते रंगों का यहाँ अलग ही स्वरूप देखने को मिला! हाथ पैर कमर और नजरों के तारमतम्य का बेजोड़ झैंता, आपसी वार्तालाप में हंसी ठिठोली, राजी ख़ुशी, सुख दुःख बांटता जंगू, बहादुरी व रोमांच का हारुल, नृत्य कलाओं का निचोड़ घुन्डिया रासौ व धुमसु ने ऐसी रंगत बिखेरी की मैदानी भू-भाग की होली इन रंगो के आगे फीकी लगने लगी!
बहरहाल होली जिस तरह से युवाओं व नौकरी पेशा लोगों के साथ चुपके-चुपके इस जनजातीय क्षेत्र में अपने सतरंगी रंग बिखेरने लगी है उस से तो यही लगता है कि आगामी दो तीन बर्षों में ही इस जनजातीय क्षेत्र के लोग इसे अपने पारंपरिक त्यौहारों में शामिल करना शुरू कर देंगे जैसे वर्तमान में ज्यादातर क्षेत्रवासियों ने पुरानी दियाई (दीवाली) मनाने के स्थान पर नई दीवाली शुरू कर दी है!

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