ट्रेवलाग…नैनीडांडा महोत्सव 2020..! जन्मदिन की अगली रात……..!

(मनोज इष्टवाल 30 जनवरी 2020)

फोन की घंटी घनघनाई! देखा ठाकुर साs (रतन असवाल) का फोन है! बोले- अरे पंडाजी, कल का जन्मदिन का शरूर उतर गया हो तो संदेश आगे बढाऊं! मैं बोला- यह तो आप जैसे मित्रों की कृपा है! पिछले बर्षों की भांति इस बार भी विश्व के कई देशों एन रह रहे मित्रों द्वारा मेरा जन्मदिन मनाया गया! अकेले देहरादून में पांच केक कटे! दिन का लंच “विचार… एक नयी सोच!” न्यूज़ पोर्टल यानि राकेश बिजल्वाण की टीम व शाम की बड़ी दावत आपके सानिध्य में हुई! आप सभी का शुक्रगुजार हूँ!

बोले- छोड़ो पंडा जी, अभी 12 बजे तक रेडी रहना हमें “गोल्डन महाशीर कैंप” सीला बांघाट जाना है! वहां भी साथियों द्वारा आपके जन्मदिन मनाने का जश्न आयोजित किया हुआ है! और हाँs…वहीँ से हमें नैनीडांडा महोत्सव में निकलना है! आप मैं व दिनेश कंडवाल जी निकल रहे हैं!
चाहकर भी मना कर दूँ ऐसी हालत नहीं थी मेरी..! मित्रों की शक्ति के आगे आत्मसमर्पण करना सबसे बड़ा शुकूनदायक क्षण जो था! एकाएक आँखों के आगे गोल्डन महाशीर कैंप की शांयकालीन चुंधियाटी रोशनी आँखों के आगे नाचने लगी! विगत समय जब गया था तब वहां राकेश बिजल्वाण, श्रीमती रावत व उपाध्याय जी का जन्मदिन मनाया गया था! ढोलक व हारमोनियम पर बचपन में बादी समाज द्वारा गाये जाने वाले गीत पुनः उन्हीं लोगों के मुखारबिंदु से सुन मन प्रफुलित हो गया! मन आनन्दित हो झूम उठा कि चलो पलायन एक चिंतन की टीम ने फिर से अपनी लोकसंस्कृति के बिखरे पन्नों को संजोना तो शुरू कर ही दिया! एक साथ आँख की पुतलियों में वो तीन चेहरे जिनमें वरिष्ठ पत्रकार अनिल बहुगुणा, गणेश काला, अजय रावत सामने खड़े दिखाई दिए जैसे कह रहे हों – जन्मदिन मुबारक हो पंडा जी! फिर मुंह कडुवा हुआ कि अनिल बहुगुणा की आँखों की पुतलियों का बनावटी गुस्सा व दुर्भाषा वाली जुबान में फूटने वाली गालियाँ जाने कब निकल पड़ें!

कैम्प गोल्डन महाशीर।

खैर…फटाफट तैयारी की व निकल पड़े गोल्डन महाशीर कैंप सीला बांघाट के लिए! दुगड्डा से ठाकुर रतन असवाल ने जरुरी सामान खरीदा जबकि देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल देहरादून से ही अपना रुक्सेक पिट्ठू टनाटन करके चले थे!

ढलती शाम के साथ हमारी गाडी जैसे ही बांघाट पहुंची! चुहल करते हुए रतन असवाल बोले- उतरो साब…! डरेबर ने गाड़ी पहुंचा दी! अभी मैं कुछ जबाब देने के लिए मुस्कराया ही था कि आगे गाडी का दरवाजा खुला नजर गयी तो बाहर वही अपने दुर्भाषा ऋषि दिखाई दिए! शब्द भी वही गालियों भरे! जिन्हें लिखना ठीक नहीं है! सार यह कि- उतर बे! क्या तुझे उतारने के लिए भी कोई दरवान बुलाना पडेगा? देखा पीछे अजय रावत जी खड़े हैं! शायद ये लोग भी घंडियाल से कुछ देर पहले ही पहुंचे थे! हंसी ठिठोली में आपसे अदाकद हुआ और पास की दुकान से गोरखा चाय ले आया! चाय की चुस्कियों के साथ कैंप तक की दूरी तय करते करते समय ने अँधेरे का अलार्म बजा दिया था!

यहाँ जन्मदिन की तैयारी में वेज ननवेज व देहरादून की बेहतरीन बैकरी के बिस्कुट थे! हरे केक के रूप में फ्रूट्स टेबल में सजाये गए! यह अनूठा तरीका है इस कैंप का! मुझे ठाकुर रतन असवाल का जन्मदिन याद हो आया क्योंकि उस दिन हमें हरे केक के रूप में यहाँ तरबूज काटा था! इसके पीछे शायद गोल्डन महाशीर कैंप व पलायन एक चिंतन का वह बैनर है जिसमें लिखा है पर्वतीय आजीविका उन्नयन शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र! जिसका मुख्य लक्ष्य है बंजर भूमि में हरित क्रान्ति पैदा करना!

रेस्तरां के बाहर कैंप फायर की लकडियाँ सजी थी! जो संकेत दे रही थी कि पाले में इधर उधर घूमने से जुखाम हो सकता है! सबने पुनः जन्मदिन की मुबारक बात दी व गमगलत करने व ख़ुशी मनाने के लिए कैंप फायर की अंगीठी के चारों ओर लगे मोड़ों में पसरकर बैठ गए! फिर क्या था वार्तालाप में एक ही काम ..! और वह काम था मनोज इष्टवाल की टांग खिंचाई! अनिल बहुगुणा जिन्हें हम मुनि, दुर्भाषा इत्यादि कई नामों का संवोधन देते हैं लगे खिंचाई करने शुरू! बोले- अरे बेटे इष्टवाल! पांच पांच सौ रूपये देकर सम्मान अर्जित करने में तुझे क्या मजा आता है! मैंने उनके ठीक दिल पर चोट की..! भाई बौगुना ..ये बता तुझे आजतक कितने मंचों ने सम्मान दिया!

इस तरह की क्लिष्ठ भाषा शैली का अगर मैं इस्तेमाल करने लगा होउंगा तो आप ही बताओ कि मेरे को अब तक अगला कितना टॉर्चर कर चुका रहा होगा! करैला कडुवा जरुर होता है लेकिन वह मधुमेह जैसे रोग भी तो मिटाने का काम करता है! शायद मेरे लिए अनिल बहुगुणा जी कडुवे करैले की तरह ही थे! वह आदमी भी यह नहीं जानता होगा कि वह अपनी गालियों में कब कौन सी जीवन जीने की टिप्स दे देता है! ठीक उसी तरह जैसे श्रीनगर के युवा बर्षों पूर्व लाटरी का नम्बर जानने के लिए शमशान घाट पर पीपल पेड़ के नीचे रह रहे औघड़ पर पत्थर बरसाया करते थे व औघड़ उन्हें गिनती में गालियाँ दिया करता था जिसका हिसाब लगाकर ये युवा लाटरी का टिकट खरीदते थे व उनकी लाटरी लगती भी थी! मेरे लिए भी इनके कहे शब्द कभी कभी उसी लाटरी के समान हुआ करते हैं!

जीवन दर्शन समझने के लिए इस गळद्यवा पत्रकार की गालियाँ भी कभी-कभी अमृत सी लगती हैं! सच पूछिए तो कैंप के खेतों में उगी हरी सब्जी डिनर में इतनी पसंद आई कि हम अंगुलियाँ चाटने लगे! शुकून भरी शाम कब रात्रि के गहरे अन्धकार में समाई पता भी नहीं चला!

कैंप के बिस्तर में करवट बदलते हुए मेरी सोच स्मृति के पिछले आठ-दस सालों पर लौट गयी! एक भी साल मुझे ऐसा नजर नहीं आया कि मैं कह सकूँ मैंने इन बर्षों में स्वयं अपना जन्मदिन मनाया है! याद की धुंधली परत में कुम्मी घिल्डियाल का अक्स सामने आया तो कुम्मी की सिल्बटे में रिची वह उड़द की दाल याद आ आ गयी जो एक बार उसने लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के जन्मदिन पर व एक बार मेरे जन्मदिन पर पकोड़े बनाकर अपने प्रेम के उदगारों से उद्वेलित किया था! जिस प्रेम से यह टीचडीसी का अफसर मुझे जीजा शब्द से पुकारता है उसका कहीं कोई तोड़ नजर नहीं आता! इसका आत्मीय प्रेम झकझोर कर रख देता है जब कभी भी ब्यस्तता के बीच उसका अक्स सामने होता है! फिर बगल में लेटे ठाकुर रतन सिंह असवाल का चेहरे उभरा जिन्होंने अटलांटिक क्लब में मेरे जन्मदिन के जश्न को ब्यापकता दी! आज उनके खर्राटों में वह शकून की नींद उस आत्मीयता का अमृत लग रहा था! अचानक समाजसेवी उदित घिल्डियाल याद हो आये जिन्होंने मेरे दो या तीन जन्मदिन जश्न धूमधाम से मनाये! वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी हों या फिर हिन्दुस्तान के स्थानीय सम्पादक रह चुके अविकल थपलियाल…! इन सब के अमृत स्पर्श की गंगा में जाने कितने मित्रों ने मेरे जन्मदिन की हर शाम यादगार बनाई! ठाकुर रतन असवाल द्वारा अब तक चार बार मेरे जन्मदिन की पार्टी आयोजित कर मुझे किंकर्तब्यविमूढ़ कर दिया! अहा…ऐसे दोस्तों का सानिध्य पाकर भला माँ याद न आये ऐसा कैसे हो सकता है!

पिताजी ने हर जन्मदिन पर मेरा बर्षफल अभावों के बीच भी पुजवाया! माँ मेरे जन्मदिन पर ठंडी रात में सुबह स्नान ध्यान कर घर में दिया बाती कर जब दाल के पकोड़े बनाती थी तो उसकी खुशबु से उठ जाया करता था मैं! ग्रामीण अभाव में भला कहाँ बड़ा जश्न आयोजन हो! सच कहें तो हिन्दू संस्कृति में केक का जन्म अब अब होना शुरू हुआ है! इन सब मित्रों के इस अप्रितम प्यार की बीच स्वर्गीय माँ-बाबा याद जो आये तो स्वाभविक था तकिये का एक कोना गीला होता ही होता!

बोझ अब ज्यादा लग रहा था क्योंकि मित्रता के इस आँचल में इतने लोगों का विश्वास जो मुझ पर कम मेरी लेखनी पर ज्यादा रहा है उस पर आगे खरा उतर भी पाऊंगा या नहीं? यह सोच कभी कभी विचलित भी करती है। पिछले दिन जितने मित्र शाम को मेरा जन्मदिन मनाने में शरीक थे सभी का कहना था कि अब बहुत हुआ अपने लेखन को किताब फॉर्मेट में लाओ। दिनेश कंडवाल जी बोले- मैं तो कई बर्षों से पीछे पड़ा हूँ कि प्रकाशन पर जो भी खर्च होगा उसकी जिम्मेदारी मेरी! लेकिन शुरुआत तो करो। रतन असवाल बोले- पिछले पांच बर्षों से तो मैं भी लगा हूँ कि एक लाख रुपये दूंगा मेरे पिताजी यानि डॉ अबदयाल सिंह असवाल की बायोग्राफी लिखो क्योंकि तुमसे अच्छा कोई नहीं लिख पायेगा।

सचमुच यहां जबाब देने में वैसे ही असहज हो जाता हूँ जैसे हर बार सोचता हूँ कि इस बार अपना जन्मदिन अपने आप ही खूब ढंग से मनाकर सभी दोस्तों को ट्रीट दूंगा लेकिन आज कब किसकी पूरी हुई जिसे उसका इंतजार रहता है। सरस्वती व लक्ष्मी का कभी साथ नहीं हुआ यह मैं भले से जानता हूँ। उन अप्रत्यक्ष मित्रों को धन्यवाद जिन्होंने मुझे मेरे जन्मदिन पर उपहार नवाजे व केक काटे।
क्रमशः……..!

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