टिहरी हाउस ने आज भी संजोकर रखा हुआ है 15वीं सदी का राजा अजयपाल का धर्मपाथा!
टिहरी हाउस ने आज भी संजोकर रखा हुआ है 15वीं सदी का राजा अजयपाल का धर्मपाथा!
(मनोज इष्टवाल)
यूँ तो सभी इतिहास विद्ध यह भले से जानते हैं कि राजा कनकपाल की 36वीं पीढ़ी के राजा अजयपाल चांदपुर गढ़ में सत्तासीन होने वाले अंतिम राजा थे! जिन्होंने अपने पराक्रम पर गढ़ राज्य की छोटी बड़ी सभी रियासतें अपनी बुद्धि, चातुर्य, राजनीतिक सूझ-बूझ व कूटनीतिज्ञ पैंतरों से जीतकर बावन गढ़ का गढ़पति कहलाने का गौराव हासिल किया! सन 1500 ई. में महाराजा आनंदपाल की मृत्यु के बाद गद्दी में बैठे राजा अजयपाल का अभी राजतिलक भी नहीं निबटा था कि परस्पर बैर दुश्मनी पाले वाले ठाकुराइयों ने चंद वंशी राजा चम्पावत से मिलकर चाँदपुर गढ़ पर धावा बोल दिया! सेना इसके लिए तैयार नहीं थी और राजा अजयपाल को अपनी प्राण रक्षा के लिए मैदान छोड़कर भागना पड़ा! कहते हैं आदिदेव महादेव के इस अनन्य भक्त को महादेव ने सत्यनाथ भैरव के रूप में दर्शन दिया जिन्होंने इन्हें कन्धों में उठाकर दूर हिमालय से लेकर उत्तर पश्चिम के जितने भी क्षेत्र पर पड़ी उसे सत्यनाथ ने कहा जा तेरा राज विस्तार वहां तक बढेगा!
(महाराजा अजयपाल के धर्मपाथा के साथ ठा. भवानी सिंह)
कालांतर में हुआ भी वही! राजा अजयपाल पहले अपनी राजधानी देवलगढ़ लाये जहाँ उन्होंने सत्यनाथ की गुफा बनायी! यहीं से अपने दुश्मनों पर आक्रमण कर उन्हें बुरी तरह से परास्त कर वापस कुमाऊं भगाया और सन 1517 में गढ़वाल श्रीनगर में 61 ज्युला भूमि समतल करवाकर राजमहल की स्थापना कर यहीं से राजकाज देखना प्रारम्भ किया! और सत्यनाथ के कहे अनुसार एक एक करके सब गढ़पतियों को परास्त कर बावन गढ़ों के गढ़पति कहलाने का गौरव प्राप्त किया!
(सदियों पुरानी शाही तलवारें)
इन्हें सबसे अधिक धैर्य व कूटनीति से तब काम लेना पडा जब कई गढ़ों के गढ़पति रणपाल असवाल को अपने अधीन मिलाने की जुगत करनी पड़ी! इनके काल में गोरखपंथी नाथों का बड़ा बोलबाला था जिनमें सत्यनाथ, मछेन्द्रनाथ, चौरंगीनाथ, हनुमंतनाथ, पिंगलनाथ, गरीब नाथ और कबीरनाथ जैसे महान सिद्ध पुरुष थे! सिद्ध पुरुषों में जितने सिद्ध सत्यनाथ माने जाते थे उतने ही सिद्ध गरीबनाथ भी थे जो अस्वालों के धर्मगुरु कहे गए! एक ओर राजा अजयपाल गढ़ी दर गढ़ी जीतता हुआ आगे बढ़ रहा था वहीँ नगर गाँव का गढ़पति रणपाल असवाल भी अपने धर्मगुरु गरीब नाथ की कृपा से कई गढ़ियों का अधिपति कहलाने लगा! और कहावत दी जाने लगी “अधौ असवाल- अधौ गढ़वाल”!
बुद्धि-चातुर्य के धनि राजा अजयपाल को जब गुप्तचरों से पता लगा कि नजीबाबाद के स्यालबूंगा किले पर असवाल थोकदार ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा है और वहां उसकी व्यवस्थाएं बेहद चरमाई हुई हैं ! नजीबाबाद-बिजनौर क्षेत्र से मुस्लिम आक्रान्ता व चोर आकर कोटद्वार भावर तक लूटपाट कर ले जाते हैं ऐसे में राजा ने प्रस्ताव रखा कि उनकी सेना असवाल गढ़पति के गढ़ों को सुरक्षित रखने के लिए अपनी सेना भेजेगी! युक्ति काम आई और धीरे धीरे हर गढ़ पर राजा अजयपाल के सैन्य बल की टुकड़ियां तैनात हो गई फिर वह समय भी आया कि राजा अजयपाल के ही शासनकाल में असवाल थोकदार के नीचे छोटी बड़ी रियासत व गढ़ों के गढ़पतियों ने महाराजा अजयपाल की ब्यवस्था का कायल होकर उनकी अधीनता स्वीकार कर दी! जबकि एक समय ऐसा था कि 84 छोटे बड़े गढ़ का गढ़पति रणपाल असवाल व सौ से अधिक छोटे बड़े गढ़ों के गढ़पति महाराजा अजयपाल हुए! अंत में असवाल जाति के गढ़पतियों ने रणपाल असवाल की मृत्यु के पश्चात सहृदय राजा अजयपाल के ध्वज को स्वीकार कर लिया! और दो गरुड़ ध्वज एकाकार हो गये!
(गढ़ सेनापतियों की सदियों पुरानी तलवारें जिनमें सेनापति गढ़ चाणक्य पुरिया नैथानी की तलवार एक दम सीधी है।)
कहते हैं कि पूर्व में महाराजा अजयपाल के ध्वज पर सिर्फ एक गरुड़ निशान अंकित था जबकि दूसरा गरुड़ निशान अस्वालों के पास हुआ करता था जो अपने को अग्निवंशी मानते थे ! और ये नागों को अपने क्षेत्र में पनाह नहीं देते थे! राजा जयकीर्तिशाह तक चाँदपुर गढ़ के ध्वज पर शेर अंकित हुआ करता था जबकि गरुड़ध्वज भगवान् बिष्णु का माना जाता था! जो आज भी बदरीनाथ में राजघराना चढ़ाता आया है! असवाल जाति का गरुड़ ध्वज पंवार वंशी राजा से क्या मिला उनके ध्वज पर एक की जगह दो गरुड़ विराजमान हुए और वे सर्वेसर्वा गढ़नरेश कहलाये! यह विलक्षण उपलब्धि राजा अजयपाल के हिस्से में आई!
वहीँ अस्वालों ने अपने ध्वज पर हनुमंत निशान लगाना शुरू किया जबकि जब तक वे नागपुर गढ़ के गढ़पति थे तब तक उनके निशाण (ध्वजपताका) में बिष्णु शंक व घोड़ा होना बताया जाता है! ध्वज पताकाओं पर अभी भी विस्तृत शोध की आवश्यकता है ऐसा मेरा मानना है!
52 गढ़ों पर राज करने के बाद अब समस्या सबसे बड़ी यह थी कि किस तरह राजव्यवस्था को सुचारू रखने के लिए अन्न धन का हिसाब रखें! किस तरह से भू-व्यवस्था का संचालन करें! आखिर महाराजा अजयपाल ने ध्युली पाथा (जिसे देवलगढ़ी पाथा) कहते हैं के माप में ज़रा सा माप अंतर का एक दूसरा पाथा इजाद करवाया! जिस पर कई साल काम हुआ! आखिर एक बीघा के बराबर अन्न छिडकाव का एक पाथा तैयार हुआ जो पीतल धातु से बनाया गया और उसे ध्यूल पाथा की जगह “महाराजा अजैपाल को धर्मपाथो” नाम दिया गया जिसपर एक कुंडल लगाया गया और उसका नाम भंडारी कर “क” की संज्ञा दी गयी! जिससे भंडारे में जमा कर का अन्न, भंडारे से निकाला जाने वाला अन्न नापा व मापा जाता था!
(ठा. भवानी सिंह से महाराजा अजयपाल के पाथे पर चर्चा)
जबकि ध्यूलपाथो नामक लकड़ी का बना पाथा जौ भरकर पूजा स्थल में दीप-धूप चढाने के लिए प्रयुक्त हुआ!
माना जाता है कि इस पाथे को डिजाईन करने वाले कनफड़े गोरख़पंथी गोसाईं की भूमिका अहम रही! तब से लेकर वर्तमान तक यह पाथा निरंतर गाँवों में अन्न मापने नापने का मापक है और आज भी कार्यों में सरोला पंडित इसी मापक से मापकर रसोई बनाते हैं! इस मापक पर एक कहावत भी चरितार्थ थी कि माराजा अजै पाल को धर्मपाथो/महाराजा की आन पड़े!
(ठा. भवानी सिंह के साथ गढ़ चाणक्य पुरिया नैथानी के सन्तति निर्मल नैथानी)
यह सौभाग्य की बात है कि आज भी यह पाथा महाराजा जयकृति शाह के परपौत्र ठाकुर भवानी सिंह के संग्रहालय में मौजूद है जहाँ राजघराने की तलवारों के अलावा कई महत्वपूर्ण दस्तावेज बख्तरबंद तक मौजूद हैं! ठाकुर भवानी सिंह का कहना है कि सरकार को इमानदारी से एक ऐसा संग्रहालय बनाना चाहिए जहाँ राजघराने की आन-बान-शान के साथ गढ़ देश की लोक परम्पराएं जीवित रखी जा सकें! वे पूरी कोशिश पर लगे हैं कि किसी भी तरह ऐसा कुछ हो जाय ताकि राजवंशजों का स्वाभिमान ज़िंदा रह सके!
आपका लेख पढकर बहुत अच्छा लगा. आपके लिखे ये लेख आने वाले समय में हमारी प्राचीन सभ्यता व लोक संस्कृति को सहेज कर रखने में अहम भूमिका निभाएगे, अपने शोध व लेख जारी रखे.
मजा आ गया पढ़ कर में कई दिनो से ये जानकारी खोज रहा था
शुक्रिया।