जौनसार बावर के माघ त्यौहार की तैयारी जोरों पर! कहीं महिलायें डायन न बन जाय इसलिए बरतते हैं ये ऐतिहात!
जौनसार बावर के माघ त्यौहार की तैयारी जोरों पर! कहीं महिलायें डायन न बन जाय इसलिए बरतते हैं ये ऐतिहात!
(मनोज इष्टवाल)
जौनसार बावर ही नहीं बल्कि तमसा व यमुना से लगा हिमाचल व गढ़वाल क्षेत्र के रवाई जौनपुर व पर्वत क्षेत्र में “माघ के मरोज” की धूम आगामी 11-12 जनवरी से शुरू हो जायेगी! यह त्यौहार पूरे महीने भर यूँहीं चलता रहेगा!
हिन्दू धर्म के अनुसार यह आश्चर्यजनक परम्परा है कि जहाँ एक ओर पूरे देश में माघ मॉस में मांस खाना लगभग बंद रहता है वहीँ जौनसार बावर व तमसा, यमुना क्षेत्र में इस दिन हजारों बकरे कटते हैं! कई लोगों का मानना है कि माँ काली की खून पीने की जिव्हा इसी दिन शांत होती है और वह शांत मन चित्त हो जाती है! और यही कारण भी है कि इस दिन काटा गया इस क्षेत्र में बकरा पूरे विधान के साथ काटा जाता है! जिसका मांस साल भर तक खाया जाता है लेकिन उस पर बदबू नहीं आती! मांस जितना पुराना होता जाएगा वह उतना ही और स्वादिष्ट होता है, यह इस क्षेत्र के लोगों की अवधारणा है!
जिस दिन बकरा काटा जाता है उस दिन गाँव के लोग रेला निकालते हैं! पूरे गाँव के लोग इस दिन गाँव के सयाना के घर से नृत्य शुरू करते हैं और फिर दिन भर हर परिवार के घर हुजूम में जाते हैं जहाँ उन्हें एक रोटी के साथ दो पीस मांस खाने को मिलता है! यह अनूठी परम्परा अब सिमट रही है लेकिन सचमुच में अनूठी है! छोटा सा छोटा गाँव भी अगर हो तो 20-25 परिवारों का होता है अब आप ही हिसाब लगा लीजिये कि एक आदमी जो भी इस रेले में शामिल होता है 20 से 25 रोटी खा जाता है और लगभग 40-50 टुकड़े मांस! लेकिन यह सब खाते समय उसे पता भी नहीं चलता कि वह कितना कहा गया है! मेरे व्यक्तिगत अनुभव में जब मैंने खुद यह हिसाब लगाया तो मैं दंग रह गया ! बर्ष 2005 में मैंने फटेऊ गाँव के रेले में यह सब किया था! लेकिन ध्यान आते ही मुझे अपच होने लगा तब चतरसिंह चौहान जी के परिवार के एक भाई ने मुझे सलाह दी थी कि मैं गाँव की इस दवा का सेवन करूँ! दवा कांसे के कटोरे में सुराई से परोसी गयी जो पीते वक्त हलकी खट्टी हुई! लेकिन सुंदर नींद दे गयी! सुबह उठा तो पता चला उसे स्थानीय भाषा में “घेंगटी” कहते हैं! जो स्थानीय बीयर होती है व सालों बाद निकाली जाती है! यहाँ से जिन्दगी की शुरुआत हुई और अब पता नहीं कितनी तरह की घेंगटी का स्वाद मन मस्तिष्क में घुसा हुआ है!
रेला समाप्ति के बाद सब अपने अपने घरों में शाम की दावत का इंतजाम करते हैं और फिर चलते हैं भीतराके गीत, आंड़ा-पांडा गीत, छुमका इत्यादि! बस पूरी रात गीत और नृत्य की बहार के साथ मांस और मदिरा का सेवन! इसी को तो कहते हैं जनजातीय संस्कृति ! जिसका कहीं तोड़ नहीं है! मैंने कभी भी ऐसे मौकों पर पूर्व में मदिरापान के बाद इस क्षेत्र के किसी व्यक्ति को आपस में झगड़ते नहीं देखा ! महिला प्रदान इस समाज में महिलाओं को सबसे अधिक इज्जत दी जाती है और यही यहाँ के संगठित परिवारों का मूल मन्त्र भी होता है!
आठवें दिन अठखोड़ा या खोड़ा मनाया जाता है जिसमें बकरे की सीरी यानि सर पकाया जाता है! सिर के हिस्से को यहाँ के लोग बेहद सम्भलकर बांटते हैं! यहाँ के पुरुष को बकरे का मगज (गुद्दी) नहीं दी जाती! कारण यह माना जाता है कि उस से मर्द का सर घूमता है इसलिए इसकी हकदार महिलायें होती हैं और वही मगज खा सकती हैं! जीब को पुरुष खाते हैं व भूल से भी किसी बेटी या महिला को उसे खाने की इजाजत नहीं देते! लोगों का मानना है कि जनजातीय समाज का मानना है कि जो महिला बकरे की जिव्हा खा लेती है वह डायन बन जाती है!
रवाई क्षेत्र में मामा के लिए एक कहावत है “पितर सारी देवता नाइ, मामासरी पौणु नाइ” (पितृ से बड़ा देवता नहीं और मामा से बड़ा मेहमान नही)! बकरे की जिकुड़ी यानि दिल मामा के लिए संभालकर रखा जाता है! और यह सिर्फ मामा ही खायेगा ऐसी इस जनजातीय क्षेत्र की परम्परा है ! यहाँ के जनमानस का मानना है कि दिल ही वह वस्तु है जो सबसे अमूल्य है इसलिए वह मामा को दिया जाता है!
जौनसार बावर के संस्कृतिकर्मी नन्दलाल भारती कहते हैं कि जीब की तरह दिल भी किसी महिला को खाने नहीं दिया जाता चाहे वह मामी ही क्यों न हो! इसके बारे में भी वही कहावत सदियों से प्रचलन में है कि औरत अगर दिल खा जाए तो वह डाग यानि डायन बन जाती है या डर बना रहता है कि कहीं डायन न बन जाय!
माघ के मरोज की इस जनजातीय क्षेत्र में महीनों तक धूम रहती है! कभी गुजरेंडी बनती है तो कभी ध्यानौज! पूरे माघ माह सिर्फ और सिर्फ दावतें चलती हैं यानि पूरी ठंड का पूरा लुत्फ़! लेकिन बकरा वही जो मरोज के रोज कटा हो! अब परम्पराओं में विखराव यहाँ भी आना शुरू हो गया है! राज्य बनने के बाद इन 17 बर्षों में इस क्षेत्र की कई ऐसी परम्पराएं मिटने को तैयार बैठी हैं जो अद्भुत हैं लेकिन इन्हें बचायेगा कौन? यह सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है! और अगर बचेंगी नहीं तो उत्तराखंड की एक अमूल्य संस्कृति का ह्रास आने वाली पीढियां ठेठ वैसे ही भुगतेंगी जैसे आज कठमाली बन चुके गढ़वाली कुमाउनी समाज के लोग! जिनका न लोक समाज है न लोक संस्कृति!