जौनसार बावर के तीन माह के तीन पर्व! मुन्नी व रानी के लिए आपस में लड़ते हैं गागली युद्ध..!

(मनोज इष्टवाल)

  • लोकसंस्कृति के पकवान असके, पिनवे व ओलुवे की रहती है धूम!
  • उतरते हैं देवताओं के रथ, जनमानस जमीन,जायदाद, गाड़ी-घोड़े खरीदने के लिए मांगते हैं इजाजत!
  • ढोल की थाप पर हारुल, झैंता, रासो,तांदी नृत्य बांधती हैं शमां!

अगस्त अंत में महासू का जागड़ा, सितम्बर अक्टूबर में पाइंता व परशुराम की ग्यास जहाँ जौनसार बावर जनजातीय जनमानस की रगों में बसे ऐसे त्यौहार हैं जो इन्हें सम्पूर्ण गढ़वाल मंडल से बेहद ख़ास बनाते हैं वहीँ दशहरे पर रावण दहन के स्थान पर साहिया क्षेत्र के दो गाँव कुरोली व उत्पाल्टा पश्चाताप की आग में जलकर आपस में गागली युद्ध करते हैं!

(गागली युद्ध में देवधार में जुटे कुरोली/उत्पाल्टा के लोग)
क्षेत्र के ईष्ट महासू देवता  के जागडे से जहाँ इन पौराणिक धार्मिक उत्सवों का प्रारम्भ होता है वहीँ परशुराम की ग्यास अक्सर इसकी समापन मानी जाती है! हर लोक उत्सव पर तरह तरह के पकवान इन्हें उस लोक समाज से बांधे रखते हैं जो इन्हें विरासत में सदियों पूर्व इनके पूर्वज सौंप गए थे. और यही विभिन्नता तमसा व यमुना से घिरे जौनसार बावर क्षेत्र को सबसे अलग व ख़ास बनाए रखे हुए है. जब तक ये लोक त्यौहार व लोक संस्कृति इस क्षेत्र के क्षेत्रवासियों के रगों में बसी रहेगी तब तब यह क्षेत्र आम से ख़ास ही गिना जाएगा ताकि उत्तराखंडी लोक समाज इन्हें जनजातीय पुकारकर अपने सम्मान की बात रख सके.

(17वीं सदी का सिमोग मन्दिर में पाइंता)
इस माह यों तो ज्यादातर उत्सव दशहरे तक समाप्त माने जाते हैं लेकिन यदाकदा पाइंता दो चार दिन हर गाँव में आगे पीछे होता है. यह इस क्षेत्र के देवताओं पर निर्भर करता है कि वे अपने लोकउत्सव की घोषणा कब करें.  पाइंता नामक लोक त्यौहार सिलगुर, वीजट, चूडू, चालदा, महासू इत्यादि का मनाया जाता है लेकिन हिमाचल रवाई व पर्वत क्षेत्र में भी कहीं कहीं अन्य देवताओं के पाइंता त्यौहार मनाया जाना बताते हैं जिनमे वासिक, पवासिक महासू देवता के भाई प्रमुख हैं.

लखवाड, सिमोग व थैना का पाइंता जहाँ पूरे जौनसार बावर में प्रसिद्ध है वहीँ कुरोली व उत्पाल्टा का गागली युद्ध अपने आप में निराला है. गागली अर्थात अरबी के डंडों से लड़ा जाने वाला यह युद्ध दोनों गाँवों की सीमा पर स्थित देवधार नामक स्थान पर होता है जहाँ दोनों ओर से कुरोली व उत्पाल्टा गाँव के लोग गागली के डंडों से एक दूसरे पर प्रहार करते हैं!
किंवदन्ती हैं कि कुरोली गाँव की दो बहनें रानी व मुन्नी क्याणी नामक स्थान में निर्मित कुँवें से पानी लेने जाती हैं अचानक रानी असंतुलित होकर कुंवे में गिर जाती है. मुन्नी घर आकर सारी घटना विस्तार से समझाती है ! पंचायत बुलाई जाती है तब उत्पाल्टा के लोग मुन्नी को आरोपित करते हैं कि उसने रानी को जबरदस्ती कुँवें में धक्का दिया. एक किंवदंती यह भी है कि रानी कुरोली की व मुन्नी उत्पाल्टा की थी ! सच भूतकाल के गर्भ में छिपा है लेकिन ऐन दशहरे के दिन पाइंते के रोज हुई यह घटना और घटना में अपने को आरोपित होते देख मुन्नी ग्लानी से भर जाती है व क्याणी कुँवें में छलांग लगा देती है. फिर क्या था कुरोली व उत्पाल्टा गाँव के जनमानस में आपस में युद्ध छिड जाता है और पास ही खेतों में उगी गागली (अरबी) के डंठलों को उखाड़कर वे एक दूसरे पर वार करना प्रारम्भ कर देते हैं. सैकड़ों बर्ष  पहले हुई यह घटना कई बर्षों तक कुरोली व उत्पाल्टा के ग्रामीणों में रंजिश का कारण भी रही लेकिन स्वस्थ समाज ने इसे पश्चाताप से जोड़कर रानी व मुन्नी के लिए भाई चारे के गागली युद्ध में तब्दील कर दिया जिसके फलस्वरूप आज भी यहाँ का जनमानस इन दोनों बहनों की याद में सांकेतिक गागली युद्ध के लिए जुटते हैं और अंत में बिना किसी एक पक्ष के हार जीत के एक-दूसरे के गले मिलते हैं!
पाइंते के रोज देव डोलियाँ मंदिर से बाहर निकलती हैं व मंदिर प्रांगण में नृत्य करती हैं !  वहीँ यहाँ का सरल जनमानस जमीन जायदाद, गाड़ी-घोड़ा, भेड़ बकरियां  खरीदने बेचने के लिए देवता से आज्ञा मांगते हैं. चालदा, सिलगुर, बीजट, चूडू सहित अन्य देवता उन्हें आशीर्वाद देते हैं.  इस दिन बलि देने की परम्परा भी रही है. कई स्थानों पर अष्टमी में बलि दी जाती है तो कई गाँवों में नवमी व दशमी को बकरे की बलि देने की परम्परा है. कहीं कहीं रानी व मुन्नी को देवी रूप में पूजा जाता है व उन्हें इस रोज पकवानों के साथ मांस चढाने की परम्परा भी है. कहते हैं ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि वे इस त्यौहार के दिन ही कुँवें में मरी थी. वे अपना हिस्सा पाकर खुश होती हैं व क्षेत्र व परिवार को अनिष्ट से बचाती हैं.
इन त्यौहारों पर बिशेषकर पाइंता पर्व पर यहाँ का जनमानस असके, पिनवे, ओलवे बनाते हैं जिन्हें घी व बूरे के साथ बड़े चाव से खाया व मेहमानों को परोसा जाता है. शाम को हर गाँव के आँगन में खुशियों के तांदी, हारुल, झैंता, रासो गीत व नृत्य प्रस्तुत किया जाते हैं! खत बिशायल, शिलगाँव-बाना से देवता की छड़ी हर 12 बर्ष में स्नान के लिए हरिद्वार व हिमाचल स्थित चूड़धार जाती हैं. यूँ तो यहाँ बारह मॉस के बाढ़ त्यौहार है लेकिन ये तीन माह के तीन लोकउत्सव इस क्षेत्र की संस्कृति के परिचायक हैं जिन्हें  तीन माह के तीन त्यौहार के अनाम से जाना जाता है.

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