जौनसार की दीवाली के मनोरंजन के बेहद रोचक संसाधन होते हैं खेलुटे!
(मनोज इष्टवाल)
खेलुटे यानि ऐसे नाट्य कर्मी जो अपनी अभिनय कला से आपका भरपूर मनोरंजन कर सकें।जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में इन नाट्य कर्मियों को “खेलुटे” नाम से जाना जाता है।
खेलुटे यानि नाट्य कर्मी कौन बने यह तय नहीं है क्योंकि जिसमें कला है वही कलाकार। उनसे कोई भी बीच में कूदकर संवाद कर सकता है। जौनसार बावर में खेलुटे मैंने जाने कितने गॉव में दीवाली पर अपनी कला का प्रदर्शन करते देखे हैं लेकिन हाजा-दसेउ व चिल्हाड़ के अर्जुनदेव एंड पार्टी का कोई तोड़ नहीं। हाजा दसेउ के एक बुजुर्ग जो मुखौटा भी लगाते थे का वास्तव में इस कला में कोई सानी नहीं हो सकता।
ठाणा गॉव के खेलुटे भी हंसने हंसाने में बेहद माहिर हैं वहीँ कोरुवा गॉव में बने खेलुटे शब्दों में भले ही पीछे रहे हों लेकिन अपने कृत्यों से लोगों को केंद्रित करने में सक्षम रहते हैं। खेलूटे कब क्या कर जायं इसका पता नहींहोता, खेलूटे यानि रंगकर्मियों के मुंह से कब कौन सा अभद्र शब्द निकल जाए कोई नहीं जानता। इनके कहे शब्दों से न कोई ग्रामीण ही नाराज होता है और न ही मातृशक्ति! इन्हें हर माँ बहन बहु रंगमंचीय कला का प्रतीक समझ हृदय से माफ़ कर देती हैं । टीवी शो कपिल की अगर बात कर दें तो यह तय है क़ि इन खेळूटों के आगे उस शो के सभी आर्टिस्ट आकर खड़े कर दो तो ये लोग इनके आगे ज्यादा देर नहीं टिक पाएंगे क्योंकि खेलुटे कब किसकी कहाँ पैंट उतार दें पता नहीं चलता। ये चाहें तो किसी को भी बिच्छु घास लगा दें! किसी पर भी राख उड़ेल दें. इसके बाद निकलने वाला मौण तो सचमुच दीवानगी की हद तक बेशर्मी पैदा कर देता है! इसमें ज्यादात्तर बदन नंग धडंग होकर बेहद अनर्गल नृत्य के साथ शब्दों के ऐसे बाण होते हैं जिन्हें हर कोई सुनना या कहना आम जिंदगी में पसंद नहीं करता! वाईसा.. एक ऐसा शब्द है जिस से आगे क्या क्या बोला जा सकता है वह अकल्पनीय है. लेकिन यकीन मानिए यही तो एक जनजातीय लोक संस्कृति की अद्भुत छटा है जिसका जीवन उतना ही पाक साफ प्रदूषण मुक्त जितनी इस क्षेत्र की प्रवृत्ति व प्रकृति होती है!
खेलुटे तब अपनी कला कौशल का प्रदर्शन करने उतरते हैं जब रात्रि को नृत्य करते करते ग्रामीण थोड़ा सा थकान महसूस करें या फिर हाथी या हिरण नृत्य करवाने वाले काँधे तक जाएँ। हाजा-दसेऊ के खेलूटे के रंग में ब्रिटिश काळ का वह जनजीवन झलकता दिखाई देता है जिसे अंग्रेजों ने अपने शिकारगाह के रूप में विकसित किया था जबकि कोरुवा में इसकी बानगी पुरातन काल के राजा और नए युगीय राजा की हार जीत को दर्शाते हुए यह सन्देश देने की परिकल्पना होती है कि किस तरह पहाड़ का ह्रदय पहाड़ की तरह बिशाल होता है और पुरातन राजा नए राजा को युद्ध में हराकर भी उसे अपने राज्य का बड़ा हिस्सा उपहार दे देता है.
खेलुटे क्यों बनाये जाते रहे हैं इस पर मेरा मत है कि यह खेलुटे तब ही मनोरंजन करने आँगन में उतरते हैं जब रात्रि प्रहऱ का अंतिम चरण हो और लोगों की आँखों में नींद की खुमारी तैरने लगती है। ऐसे में जब गले में दमाऊ टाँगे खेलुटे अपने मनोरंजन को लेकर आते है तब नींद स्वत्: ही खुल जाती है। ये लोग कुछ भी बोल देते हैं भले ही बावर में मैंने एक परंपरा देखी है क़ि सुबह यही खेलुटे अपने बदन पर राख़ मलकर घर घर जाकर सबसे क्षमा याचना करते हैं क़ि अगर भूल से कोई अपशब्द माँ बहनों बहुओं की शान में गलत निकल गया हो तो वे उन्हें माफ़ करें। माँ बहने बहुएं सहृदयी बन अखरोट फैंककर इन्हें माफ़ भी कर देती है। लोभ संस्कृति का यह अनूठा रूप कालान्तर से चलता आ रहा है जिसे आज हम खुद को हंसाने के लिए कपिल शो जैसे शो टीवी पर देखते हैं।