जौंळ मुरली के सुर सुनने को बेताब हैं आज भी कान! नेगी-गिर्दा की जुगलबंदी कुमाऊ गढ़वाल को समझने को काफी थी!
जौंळ मुरली के सुर सुनने को बेताब हैं आज भी कान! नेगी-गिर्दा की जुगलबंदी कुमाऊ गढ़वाल को समझने को काफी थी!
(मनोज इष्टवाल)
राज्य निर्माण से पहले न गढ़वाल को कुमाऊ इतना जानता था न कुमाऊ गढ़वाल को! बस आपसी गलतफहमियों की शिकार ये दोनों सभ्यताएं एक दूसरे पर पीठ पीछे छीन्टाकशी करते व एक दूसरे की सभ्यताओं को अपनाने में बचा करते थे. यह उतना ही कडुवा सत्य है जितना करैला होता है.
लेकिन उस दौर में गढ़-कुमाऊ में सेतु कायम करने का काम करने वाले पौड़ी के राजू रावत व कुमाऊ के शेखर दा ने इन सभ्यताओं को साथ लाकर एक ऐसी नयी पहल शुरू की जिसका यह प्रदेश आज भी ऋणी है. वहीँ लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी द्वारा पिथौरागढ़ के एक कार्यक्रम में 1982 में यह कहकर कुमाऊ-गढ़वाल की दूरियों को और करीब कर दिया कि पौड़ी के उनके वंशज पूर्व में काली-कुमाऊ से आकर पौड़ी बसे हैं!
अब शुरुआत करते हैं उस युग कि जब दो संस्कृतियों का सांस्कृतिक मिलान शुरू हुआ. यह सब राज्य निर्माण से पहले की बात है. जब 1982 में गढ़कवि व गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने पहली बार पिथौरागढ़ में राजू रावत व पत्रकार स्व. उमेश डोभाल के साथ पहुंचकर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया. इसी दौरान उनकी मुलाक़ात गिर्दा से होनी बतायी जाति है. वैसे लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जब लखनऊ आकाशवाणी जाया करते थे तब कुमाऊ के कई मूर्धन्य लेखकों व गायकों को आकाशवाणी में पाते थे. लेकिन उनमें गिर्दा भी रहे हों यह कह पाना जरा कठिन है.
समय द्रुत गति से आगे बढ़ा 1974 से जिस व्यक्तित्व ने लिखना व 1977 से गाना शुरू किया वही व्यक्तित्व अपने पहाड़ की पीड़ा को उजागर करने के लिए आकाशवाणी के सबसे प्रसिद्ध उत्तराखन्डी गायक के रूप में गढ़-कुमाऊ में ठेठ वैसे ही लोकप्रियता हासिल कर थे जैसे कुमाऊ में गोपाल बाबू गोस्वामी! आकाशवाणी से जहाँ एक ओर रुकसा रमोती घुँघर न बजा छम्म-छम्मा बजता था तो दूसरी तरफ चम चमकी घाम डांडयूँ म, हिन्वली कांठी चांदी की बणी ग्येना! यह वह स्वर्णिम युग था जब दो संस्कृतियों का गुणगान रेडियो के माध्यम से हर कर्ण को कर्णप्रिय लगने लगा था. फिर वह दौर आया कि पौड़ी के राजू रावत ने गिर्दा और नेगी की जुगलबंदी का प्रयास किया. उस दौर में पौड़ी का हमारा गढ़-कला मंच जिसे गढ़ कला सांस्कृतिक संस्थान के नाम से भी जाना जाता रहा है सुर्खियों में था क्योंकि तब उसमें पौड़ी के चुनिन्दा संस्कृतिकर्मियों की एक टीम हुआ करती थी जिनमें अध्यक्ष त्रिभुवन उनियाल, पत्रकार गणेश खुगशाल गणी संरक्षक, गणेश वीरान, सांस्कृतिक सचिव अनिल बिष्ट, डॉ. बिन्तेश्वर बलोदी सचिव, सुभाष पांडे, सुबोध हटवाल, नबीन भट्ट, मनोज इष्टवाल सह-सचिव, जगत किशोर बडथ्वाल, बिमला भंडारी कोषाध्यक्ष, रजनी नेगी, रेखा बिष्ट, नीरू डोभाल, उर्मिला ढौंडियाल, नीलम थपलियाल, लक्ष्मी बिष्ट, मंजू नेगी, उर्मिला राणा, रूचि इत्यादि कई ऐसे नाम थे जिनमें से कई बाद में हट गये!
खैर जहाँ टीम जुड़ती है बिखरती भी है. कई मतभेद झंझावतों को झेलती गढ़कला मंच की टीम ने आखिर 1999 जन कवि गिरीश तिवारी “गिर्दा” और लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी की पौड़ी के संस्कृति प्रेक्षागृह में जुगलबंदी आयोजित करवाकर इतिहास रच ही दिया. तब हर दिन चर्चा होती थी यह गिर्दा है कौन ?
लेकिन जब एक फ़कीर से दिखने वाले लम्बे से व्यक्ति को लम्बे खादी कुरते व पैजामे व कंधे पर एक झोला लटकाये मैंने बीड़ी सुलगाते हुए देखा तो मेरे मुंह से अनायास ही निकला पड़ा- ये है जनकवि! ऐसे होते हैं जनकवि! तब गणेश खुगशाल गणि ने मेरे कान पर खुसुर-पुसुर करते हुए कहा – “बेटा तेरी यही कमी है,धड़ाम बोल देता है. मंच में देखना तुझे पता चल जाएगा कि यह रत्न कितना बहुमूल्य है”!
राजू रावत के इस प्रयास से पौड़ी इतिहास लिखने में कामयाब हो गया क्योंकि इस जुगलबंदी के बाद नेगी-गिर्दा की जोड़ी इतनी हिट हुई कि देश विदेश के कई मंचों पर उन्होंने अपनी प्रस्तुतियां दी. इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कार्यक्रम के लिए तत्कालीन जिलाधिकारी प्रभात कुमार सारंगी ने बड़े मन से गढ़कला मंच का सहयोग किया व मध्यस्ता की भूमिका में गणेश खुगशाल गणी बेहद अहम् रहे.
वास्तव में जब गिर्दा ने अपनी बुलंद आवाज संस्कृति प्रेक्षागृह में – जैंता कभी न कभी त आलो दिन यो दुनी में के साथ सुनाया! तो पूरे हाल में पिनड्राप साइलेंस था. लय सुर और बोली की मिठास का यह बुलंद सुर कानों में मिश्री की तरह घुल गया वहीँ जवाब में लोकगायक नेगी ने –“सुख उडी जांदा मुख मोड़ीकि दुःख बासा रै जांदा, हैन्सी खेली रैणु सैबो दिन बोड़ी नि आंदा” गाया तो तालियों से हाल गुन्ज्यामन हो गया.
इसके बाद यह दौर थमा नहीं और जब ये दो संस्कृतियों के सितारे एक साथ मंच पर होते तो भीड़ यूँ उमड़ जाती मानों कोई मेला हो. पहाड़ ने जुगलबंदी का दौर ज़िंदा रखने के लिए जब यह कार्यक्रम नैनीताल में करवाया तब पहाड़ के शेखर पाठक (पद्मश्री) ने इस जोड़ी को ही जौंल मुरली का नाम दे दिया. बस फिर क्या था यह जौंळ मुरली देश विदेश में बजती ही रही. इप्टा मसूरी ने देहरादून, चन्दन डांगी ने दिल्ली में, उत्तराखंड असोसियशन ऑफ़ नार्थ अमेरिका (उना) संस्था ने न्यूजर्सी, न्यूयार्क, इथाका-कार्नेल विश्वविद्यालय तथा न्यू हैम्पशायर इत्यादि में इस जुगळबंदी का कार्यक्रम आयोजित कर इसे एक दस्तावेज के रूप में संग्रहित किया.
लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी भावुक ह्रदय से कई बार जब गिर्दा को याद करते हैं तब वे कहते हैं कि उनका गायकी या कवि उत्कंठ से बहने वाले सुर पूरे सूफियाना अंदाज में जब बहते थे तब लगता था कि यह व्यक्तित्व दिखने में आम है लेकिन लिखने में ख़ास है. वे कहते हैं गिर्दा जब भी उनसे फोन पर बात करते थे तो उनका सम्बोधन बेहद अपनत्व भरा होता था वे कहते – नरेन या फिर भुलु! आज भी उनके ये शब्द उनके जेहन में तैरते हैं.
सचमुच गिर्दा एक ऐसी अविरल नदी है जिसने अपने उत्कंठ से बहने वाली धारा से दो संस्कृतियों के मिलान के लिए एक ऐसा सेतु बाँधा जिसने दो समाज बेहद पास ला दिए. अब गढ़-कुमाऊ न सिर्फ संस्कृति के मिलान में करीब आया बल्कि अब यहाँ रोटी बेटी के रिश्ते भी शुरू हो गए हैं.
लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं गिर्दा, शेखर और हमने यादों के एक संकलन की रिकॉर्डिंग के लिए हिमालयन फिल्म कम्पनी में 2010 में समय भी निश्चित कर लिया था लेकिन गिर्दा की आकस्मिक मौत से वह समय हमारे हाथ से फिसल गया. अब नहीं लगता कि इस माटी को जल्दी ही गिर्दा जैसा फक्कड़ मिजाज का वह व्यक्तित्व मिल पायेगा जिसकी रग रग में अपनी माटी का प्यार उनफ़कर शब्दों में बहता था. जिसके शब्दों में ज्वाला होती थी और उस ज्वाला में नवनिर्माण!
मुझे याद है कि उत्तराखंड वाणी मासिक पत्रिका में मैंने स्वयं गिर्दा के स्वर्ग सिधारने पर एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक कुछ योंही था- “ और टूट गई जौंळ मुरली!
बर्षो बाद जब गिर्दा कल सपने में आये और उन्होंने बीड़ी पीते हुए मुझे जगाया तो में भौंचक था! वे बोले- बेटे मनोज अभी तक सोया है. चल झोला उठा नरेन् का कार्यक्रम है? सच कहूँ मैं डर गया और वही डर यह लेख लेकर आया है. कुछ यादें संझोये हुए.
पहाड़ पत्रिका को मेरी ओर सरकाते समय साक्ष्य के प्रवीन भट्ट बोले दाजू जरा पढ़िए तो ! पहाड़ पत्रिका में साहित्यकार हरिशचंद पांडे की कलम से लिखे ये बोल मुझे गिर्दा के लिए सचमुच कीमती लगे-
गिर्दा की ओर से-
भुला
हुडके को अंगुलियाँ चाहिये थी
और हारमोनियम को भी
सो कभी हुड़का बजाया कभी हारमोनियम
रही होगी आत्मा दार्शनिको के लिए अदृश्य अजर-अमर जाने क्या-क्या
मेरे लिए तो वह हुडका हुई, हारमोनियम हुई
सो मैं आत्मा से आत्मा को बजाता रहा.