जो आज भी रहस्यमय दुनिया में जीते है-पालसी
जो आज भी रहस्यमय दुनिया में जीते है-पालसी
(खोजी पत्रकार संदीप गुसाईं की कलम से)
बकरी स्वयमंबर को लेकर त्रिवेन्द्र सरकार के दो मंत्री भले ही आमने सामने हो लेकिन क्या आप जानते है कि उत्तराखंड में सालों से चली आ रही बकरी पालन की परम्परा क्या है।उच्च हिमालयी के रहस्यमय इलाकोंं जैसे कि जंगलों,बुग्यालों और घाटियों में बकरी पालक कैसे 6 महीनों तक अपना जीवन जीते है। बकरी पालक जिन्हे पालसी कहा जाता है जानिए कैसा है पालसियों की रहस्यमय दुनिया…………!
सितम्बर महीने में जब हम चमोली जिले के अति दुर्गम क्षेत्र नंदी कुंड के ट्रैक पर थे तो हमें बकरी पालकों की जीवन और दिनचर्या को नजदीक से देखने का मौका मिला।पंचकेदार में से एक कल्पेश्वर की भूमि उर्गम घाटी से बंशीनारायण पहुचे।बंशीनारायण बुग्याल में बकरियों का बहुत बडा झुंड था और पालसी एक एक करके बकरियों के शरीर से ऊन निकाल रहे थे।पहाडों में आज भी इस कार्य को त्यौहार के रुप में बनाया जाता है।कलगोट गांव के कुलदीप सिंह ने बताया कि बकरियों से ऊन काटने के बाद वे गांव में इसे बेचते है लेकिन मामूली दाम ही मिलता है।नंदीकुंड में आगे बढे तो एक और बुग्याल में श्रीराम भंडारी जो पिछले 28 सालों से चमोली गढ़वाल के नंदीकुड ट्रैक पर बकरी पालन कर रहे है।श्रीराम भंडारी कहते है कि पहले प्रत्येक परिवार के पास सैकडों बकरियां होती थी और कई पालसी होते है लेकिन अब 4 गांव की बकरियां केवल मैं भी देखता है।श्रीराम कहते है किी 1200 बकरियों को उच्च हिमालयी बुग्यालों में 6 महीने तक रहते है।सोचिए जहां आपको दस दिन रहना मुश्किल हो वहा पालसी अपनी बकरियों और भेडों के साथ जीवन जीते है।वे कहते है जब वे गांवों से बुग्यालों के लिए बढते है तो बकरियों के पीठ पर फन्चों में राशन और अन्य सामान रख देते है।आपको जानकर हैरानी होगी कि जब पालसी बकारियों को लेकर 6 महीनों के लिए दुर्गम इलाकों में जाते है तो उन्हे देवताओं की तरह विदा किया जाता है।ग्रामीण उन्हें कई तरह के सामान और अनाज देते है।ग्रामीणों का विश्वास है कि पालसी प्रकृति और देवी देवताओं के काफी करीब होते है।ऊर्गम घाटी के सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण नेगी बताते है कि पालसियों को आज भी बहुत सम्मान किया जाता है।
उत्तराखंड में उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ,बबागेश्वर, रुद्रप्रयाग और पौड़ी सहित कई जिलों में बकरी पालन होता है।सालों पहले एक एक गांव में हजारों बकरियां ग्रामीणों के पास होती थी लेकिन धीरे धीरे बकरी पालन का व्यवसास भी कम होता गया।श्रीराम भंडारी बताते है कि उच्च हिमालय क्षेत्रों में उन्होने कभी दवाई नही ली जो भी बीमारी होती है स्थानीय जड़ी बूटियों से ईलाज होता है।
उत्तराखंड में बकरी पालन का व्यवसाय अब बदलता जा रहा है।बुग्यालों की रहस्यमय दुनिया में पालसी 6 महीनों केवल अपने बकरियों के साथ रहते है।भालू,स्नो लेपर्ड, सहित जंगली जानवरों से रक्षा के लिए हर पालसी अपने साथ भोटिया कुत्ते रखते है जो रात भर बकरियों की रक्षा करते है।अगर एक भी बकरी कम हुई तो भोटिया कुत्तों की जबावदेही होती है।अपने मामा के साथ पिछले तीन सालों से बकरी पालन व्यवसाय में जुटे महावीर कहते है कि वे गोपश्वर पीजी कालेज से बीए कर चुके है और अपने मामा के साथ पासली का काम देख रहे है।वे कहते है कि कोई भी बीमारी हो इसका इलाज यहां की जड़ी बूटियों में है।बुग्यालों में अतीस,हत्थाजडी,बालझजी,ब्रम्ही जैसी अनेकों बेशकीमती जडी बूटियां है।
ग्रीन पीपुल संस्था के संस्थापक रुपेश राय बताते है कि उत्तराखंड में अभी तक केवल मांस के लिए बकरियों को इस्तेमाल होता है जबकि बकरी किसानों के लिए एटीएम कार्ड है।वे कहते है बकरियों के दूध,दही और घी की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में काफी डिमांड है।यही नही बकरियों के सिंग,खुर,हड्डियों और खाल से भी कई उत्पाद और दवाईयां तैयार की जाती है।रुपेश राय बताते है जब तक बकरियों की नस्ल में सुधार नही होगा किसानों को फायदा नही पहुच सकता।
उत्तराखंड भेड एवं ऊन विकास परिषद के अधिकारी डा अविनाश आनंद भी बताते है कि पहाडों में करीब 18 लाख से ज्यादा भेड बकरियां पाई जाती है और प्रदेश के 22 लाख परिवारों में से 2 लाख परिवार आज भी बकरी और भेड पालन पर निर्भर है।वे कहते है कि थोडा प्रचार प्रसार और तकनीक के इस्तेमाल से बकरियों की नस्ल सुधार किया जा सकता है और उसके लिए बकरी स्वयम्बर जैसे बडे आयोजन मील का पत्थर साबित हो सकते है।केदारनाथ के विधायक मनोज रावत कहते है कि पहाडों में बकरी पालन बेशक कम हो रहा है लेकिन बकरी पालन से ना सिर्फ पलायन को रोका जा सकता है।