जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण ने रखे कई अनछुए पहलू।

वो एक समय था जब लोकगायक प्रीतम भरतवाण अपने जागरी पिता के साथ जगह जगह रातों में पंवाडे और जागरों के गीत सुना करते होंगे, पिता से पहाडी संस्कृति की धरोहर माने जाने वाले गीतों को प्रीतम ने केवल सुना ही नहीं बल्कि इसमें समरस हो गए। इस तरह कि वह इस दौर में इस परंपरा के प्रतीक नायक के तौर पर माने जाते हैं। एक तरफ जागरों को फिर से संस्कृति की मुख्यधारा में लाना और ढोल को पूज्य रूप दिलाने में प्रीतमजी का अतुल्य योगदान है।

आज के दौर की व्यस्तता और कुछ नया परिेवेश हमको केशव अनुरागी के गीतों तक नहीं पहुंचाती। पहाड़ का सौंदर्य यहां की नदी झीलों हिमशिखरों से ही नहीं केशव अनुरागी के गाए गीतों से भी है। पर दुर्भाग्य, इनका संवाद उत्तराखंड की युवा पीढी तक नहीं हो पाता। रेडियो में केशव अनुरागी को सुनने वाली पीढी धीरे धीरे विदा हो रही है। राहीजी की चर्चाओं में हम बेहद लोकप्रिय हो रहे आछरी के रिमिक्स तक सिमट जाते हैं। और इस गीत के बहाने राहीजी की भरपूर प्रशंसा कर देते हैं। राहीजी की पहचान महज यह गीत नही, वह तो मूल पहाडी लोकसंगीत के प्रतीक थे। इन पुराधाओं की कडी में प्रीतम भर्तवाण भी खडे हैं जिनके पास कम से कम केशव अनुरागी और राहीजी जैसे पूर्वजों की तुलना में खुला आकाश है, गीत संगीत को देश दुनिया तक पहुंचाने का माध्यम है। और वर्षों की साधना और परिश्रम से अर्जित किए लोक संगीत की विरासत को उन्होंने अपने यज्ञ मे कही कमी नही आने दी। घोर गरीबी से जूझते हुए पहाडी साजों की पूजा करते रहे। वाचन परंपरा में पिता की वाणी को मंत्रों की तरह याद रखा।
इस बात को कहा जा सकता है कि उत्तराखंड के लोकजीवन में नरेंद्र सिंह नेगीजी का आना बेहद मह्तव रखता है। अगर अस्सी के दशक मे नरेंद्र सिंह नेगीजी के गीत जनमानस में नहीं पहुंचते तो शायद उत्तराखंड में उस समय गीत संगीत की परंपरा हल्के स्वरूप की ओर चली जाती। उसमें साहित्य संस्कार नही होते। क्योंकि सृजन के लिए आसपास कम संभावनाएं दिख रही थी। उस दौर में फिल्म संगीत भी बहक गया था और देश के आंचलिक संगीत भी पटरी से बाहर आ गया था। ऐसे समय में नेगीजी के गीतों ने उत्तराखंड के लोकसंगीत को समृद्ध किया। ठीक इसी तरह नई सदी में प्रीतम भर्तवाण का लोकमंचो पर आना, विरासत के छुपे सिमटे गीत संगीत के लिए एक ताजे हवा की झोंके की तरह आया। लोगों ने जागरों को सुनना शुरू किया। ढोल दमो डौंर थाली में फिर सृष्टि के अनमोल संगीत की झलक देखी। यह मेले में किसी दशकों से बिछुडे को फिर से मिलने जैसा था।
प्रीतम ने उत्तराखंड के युवाओं की उस हीन भावना को जड़ से दूर कर दिया कि जागर- पावंडे बीते समय की चीजें हैं। प्रीतम ने जागर ही नहीं गाए उन्होंने समाज से ढोलियों को भी सम्मान कराना सिखाया। प्रीतम भर्तवाण का उपस्थिति सामान्य नहीं है बल्कि एक दिशा देने वाली है। उत्तराखंड के लोकसगीत को देश विदेश में प्रतिष्ठा देने वाली है।
प्रीतम भर्तवाण को समाज ने भी पर्याप्त आदर दिया है। उनसे अपेक्षाएं भी बहुत है। इतनी अपेक्षा जरूर करते हैं कि जिस समाज ने उन्हें इतना मान दिया, उसके प्रति वह अपनी कला के साथ उन जैसे कलाकार हमेशा व्यवसायिक न रहें। कभी -कभी किसी स्थिति में लचीलापन भी जरूरी है। लोकसंगीत और नम्रता न उन्हें आकाश दिया, यह नम्रता बनी रहे। अब प्रसिद्धी और लोकप्रियता का चरम उन्होंने छू लिया, अब उनके पास समय है कि वह नए प्रतिभावान युवाओं का मार्गदर्शन करें , अपने गीत संगीत के साथ भी बने रहे। 17 सितंबर की शाम फिर प्रीतम जी के गीतों को सुनना है। उत्तराखंड का समाज उनके जन्मदिन की शुभकामना देता है।

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