जरा पड़ोस से "आग" तो ले आ…!
जरा पड़ोस से ‘आग’ तो ले आ… !
(पत्रकार विनोद मुसान की कलम से)
किसी से कहो कि ‘जा जरा पड़ोस के घर से आग मांग ला’ तो वह आश्चर्य में पड़ जाएगा। लेकिन उत्तराखंड के पुराने लोगों के लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। एक समय में पर्वतीय जिलों के सुदूर गांवों में राशन के नाम लोग सिर्फ इसलिए बाजार जाते थे कि महीने भर का नमक ला सकें। तब आग जलाने के लिए हर घर में माचिस तक नहीं होती थी।
गांव के किसी न किसी एक घर में आग को पूरे दिन ‘जिंदा’ रखा जाता था। सूरज ढलने के साथ ही एक घर से दूसरे घर आग मांगने का सिलसिला शुरू हो जाता था। तब कोई मां अपने सबसे निठल्ले बेटे-बेटी को आवाज लगाती, अरे छोरा… जा जरा पड़ोस से आग तो ले आ…। फिर मां का वह निठल्ला सा छोरा जल्दी से एक केड़ा (भिमल की लकड़ी) उठता और दौड़ कर पड़ोस के घर से आग ले आता।
आप सोच रहे होंगे, ‘मंगल’ के इस युग में अचानक ये ‘भिमल’ कहां से आ गया। कहां आज हम चांद से आगे मंगल पर जा पहुंचे हैं और ये भाई अब भी भिमल की बात कर रहा है। ..तो इतना चौंकिए मत! बात इतनी भी पुरानी नहीं है। मेरी उम्र मात्र 36 साल है और मैंने ये दौर देखा है।
दफ्तर में एक साथी के सिर पर डेंड्रफ देख भिमल का जिक्र आ गया। बोला, भाई मैंने कई तरह के शैंपू अजमा कर देख लिए…, कोई फर्क नहीं पड़ा। यूपी से ताल्लुक रखने वाले साथी को मैंने तुरंत देसी नुस्खा बता डाला।
भिमल की छाल लो और दो-तीन दिन उससे नहा लो, डेंड्रफ गायब हो जाएगी। आसान सा तरीका था। लेकिन बात भिमल पर आकर अटक गई। चर्चा में शामिल हुए दो-तीन साथी भिमल के बारे में और ज्यादा जानना चाहते थे। बोले, हम तो वर्षों से उत्तराखंड में रह रहे हैं। लेकिन हमने भिमल के बारे में कभी नहीं सुना। कैसा होता है ये भिमल? कहां पाया जाता है ये भिमल? …और इससे डेंड्रफ कैसे गायब हो जाती है। बात निकल पड़ी तो, मुझे जितनी जानकारी थी, मैंने उन्हें बता डाली।
भिमल एक जंगली पौधा है, जो आमतौर पर उच्च हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। वैसे 02 डिग्री से 38 डिग्री सेंटीग्रेट के तापमान तक में यह खुद को पाले रख सकता है। इंटरनेट पर इसके बारे में बहुत बारिक जानकारियां पाना चाहोगे तो इसका वानस्पतिक नाम ग्रिविया ऑप्टिवा (Grewia Optiva) है। धमन, ब्यूंग, ब्यूल, ब्हीयूल, विवाल, विहेल इसके दूसरे स्थानीय नाम हैं। 15-25 फीट ऊंचाई तक जाने वाला यह पौधा कई गुणों को अपने में समाए हुए है। अपने इन्हीं गुणों की वजह से एक समय में यह पौधा पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जिंदगी में तीज-त्योहारों की तरह रचा-बसा था।
इसकी छाल का इस्तेमाल नहाने के लिए किया जाता है। कहते हैं, इसकी छाल से नहाने वाले व्यक्ति के शरीर में कभी कोई चर्म रोग नहीं होता। बालों में लगाते ही शैंपू की तरह झाग बन जाता है। बुढ़ापे तक बाल काले-घने और लंबे रहते हैं।
इसकी पत्तियां दुधारू पशुओं को चारे के रूप में दी जाती हैं। ये दूध बढ़ाने में मदद करती हैं। इसकी छड़ियों (डंडियां) को काटकर गट्ठर बनाकर छाले (चलते पानी के गदेरे) में डाल दिया जाता है। एक माह बाद जब छाल सड़ जाती है, तो उसे डंडियों से अलग कर दिया जाता है। फिर इसी छाल से मजबूत रस्सी, कपड़े, चटाई, घरेलू कामकाज में इस्तेमाल होने वाली और सजाने वाली कई चीजें बनाई जाती हैं। छड़ियां जब छाल छोड़ देती हैं तो ‘केड़ा’ बन जाती हैं। पकने के बाद इसके काले रंग के फल चिड़ियों का विशेष आहार बनते हैं।
यही केड़ा तब एक घर से दूसरे घर आग पहुंचाने का माध्यम बनता था। एक बार जलने पर तभी बूझता है, जब उस पर पानी डालो। तब घरों में उजाला करने और आग जलाने के लिए केड़े का खूब इस्तेमाल किया जाता था।
..इसके अलावा अगर आपके पास भी भिमल से संबंधित दूसरी जानकारी हों तो जरूर शेयर करें… जिन्होंने कभी भिमल नहीं देखा, पहाड़ों की ओर जाएं तो स्थानीय लोगाें से इसके बारे में जरूर पूछें। वैसे सुनने में आया कि इसकी सूखी छाल इन दिनों आयुर्वेदिक दवाइयों की दुकान और पनसारी के यहां भी मिलने लगी है।