जब सावन की डरावनी रात में हवा की सांय-सांय और देवदारों की ओट से झींगरों की टिर्र-टिर्र के साथ सुनाई दिए अनसुने गीत..!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 15-08-2016 )


समय रात के लगभग 11:45 के आस-पास रहा होगा. सत्य लिखने में झिझक कैसी ! मित्र दिनेश कंडवाल जी की स्कॉच की बोतल पिछले ही दिन समाप्त हो गये थी आज के लिए जुगाड़ से हम एक व्हिस्की की व्यवस्था जैसे-तैसे कर आये थे!
स्याह रात न बंगले में कोई बिजली की व्यवस्था न अभी तक नलों में पानी! वही 1868 की व्यवस्था 148 साल बाद भी ! हाँ इतना अंतर आया जरुर है कि सन 2008 में बुधेर बंगले की पुन: मरम्मत हुई! मरम्मत का अभिप्राय ही अभी मर मत हुआ वही कुछ यहाँ भी हुआ है. 2008 में प्रमुख वन संरक्षक के.एल.आर्य, मुख्य वन संरक्षक गढ़वाल के.एल दत्त, वन संरक्षक वी.पी. गुप्ता (यमुना वृत्त) 
व प्रभागीय वनाधिकारी एम.एस.पाल (वन प्रभाग चकराता), द्वारा 27 फरवरी 2008 में इस भवन का जीर्णोद्वार किया गया था तब शायद यहाँ लगे पाइप नल पर पानी आता रहा होगा!

सौर ऊर्जा बंगले के बाहर भीतर चकाचक रही होगी लेकिन आज वह स्थिति नहीं है. क्योंकि नल भी अपनी जगह हैं लेकिन उनसे पानी नहीं बहता, चौकीदार को ड्रम भर भरकर पानी रखने की व्यवस्था करनी पड़ती है. सौर ऊर्जा भी है लेकिन चकाचौन्ध इसलिए नहीं कि बादलों के घने आवरण से सूर्य रौशनी कैसी पड़े. बाहर लगे पोल से न सिर्फ बैटरी बल्कि सौर ऊर्जा प्लेट व ऊपर 
लगी बल्ब सहित थूथनी भी गायब थी. इसमें कोई दोराय नहीं कि सर्दियों में वे सब बर्फ़ के साथ पिघल गए होंगे और पोल रह गया होगा. आप समझ ही रहे होंगे कि उसे चोरी करना कितना आसान काम होगा, क्योंकि सर्दी में जब यहाँ 7 फिट बर्फ़ रहती है तब मानव आवाजाही का मतलब ही नहीं बनता! खैर हम कैंडल की रौशनी में गम गलत कर रहे मित्रों की शह में पलायन एक चिंतन की कार्यशाला की चर्चाओं पर मशगूल थे और साथ ही यह प्लान भी कर रहे थे कि कल यहीं से बटर फेस्टिवल के लिए उत्तरकाशी निकला जाय!

अचानक झींगरों की वह मदहोश तान बंद हुई जिसे सेवेनस्टार होटल्स में आर्टिफिशियल तौर पर प्लान किया जाता है ताकि वह माहौल बना रहे. हवा में तैरते गीतों की आवाजें आनी शुरू हुई. सुन तो मैंने भी लिया था और शायद सभी ने लेकिन सब नजरअंदाज कर गए! फिर दुबारा आई तो नवीन बोला- सर सुनिए, गूजर लोग गीत गा रहे हैं. सब चुप ..! सबने सुना भी! मैंने हामी भरते कहा यही तो उनके जीवन के सबसे अनमोल क्षण होते हैं, दिनभर मेहनत और रात को हंसी ठिठोली के साथ कुछ पल की सुखद नींद ..! क्योंकि फिर सुबह 4 बजे जो उठना है उन्हें. हमने फिर बिषय बदला और बतियाने लगे! कुछ देर शान्ति के बाद फिर वही गीतों की हवा में तैरती आवाज..! नवीन ने फिर कहा – देखो सर….. गूजरों के डेरे की ओर से ही आवाज आ रही है! मैं उठकर बंगले के दांयी छोर गया जहाँ से किचन पास ही था जिसमें चौकीदार श्याम सिंह खाना बना रहा था और वही से लगभग दो फर्लांग आगे जंगल के बीच बन गूजरों के तीन चार डेरे थे. मैंने कान लगाकर फिर से सुनना चाहा लेकिन निशब्द ! 

कौतुहल जगा तो श्याम को आवाज दी कि क्या ये लोग गीत गा रहे हैं. वह खाना ट्रे में सजाकर ला ही रहा था बोला – नहीं सर मैंने तो नहीं सुना..! हो सकता है उनके छोटे बच्चे हों. आवाज तो छोटे बच्चों की नहीं थी और सुर भी बेतरतीबा नहीं. खैर मैं श्याम के साथ ही लौटा और उसे बोला अंदर डायनिंग टेबल पर खाना लगाओ. ड्रिंक आखिरी दौर में था और हम भी चाह रहे थे कि अभी सोया जाय क्योंकि आज ठण्ड बहुत थी. मेरे शरीर में हरारत थी, इसलिए मैं बरामदे में ही चहलकदमी कर रहा था तब भी बदन की झुर्र-झुर्री शांत होने का नाम नहीं ले रही थी. फिर वही तैरते स्वर सुनाई 
दिए साथ ही जैसे गिटार या सारंगी से निकलती झंकार हो. मैं फिर उधर ही लपका जिधर गूजरों के खेमे थे लेकिन फिर निशब्द..!

बन गूजर जो बुधेर गुफा क्षेत्र में रहते हैं!

अब झींगर फिर टिर्र-टिर्र शुरू हो गये थे. मैंने रात के अँधेरे में ही सभी दिशाओं को घूमकर प्रणाम किया व बरामदे में बैठे मित्रों की टेबल के आखिरी चरण में शहीद हो रही मोमबत्ती से नवीन को दूसरी मोमबत्ती जलाकर डायनिंग टेबल पर रखवाई. खाना खाया लेकिन मुझे अब तेज बुखार होना शुरू हो गया था. रजाई ओड़ी और गर्माहट महसूस करनी शुरू कर दी. अभी आँख लगे आधा घंटा भी न गुजरा था कि पूरा डबलबेड ऐसा हिलता महसूस हुआ मानों भूकम्प आया हो. मेरे दांत बज रहे थे और पूरा बदन थर्र-थर्र कांप रहा था. बगल में लेटे दिनेश कंडवाल जी के खर्राटे कभी तेज होते 
तो कभी बंद. मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं रजाई हटाकर बैग से बुखार की गोली निकाल सकूँ. तेज बुखार के बीच मुझे फिर वही गीतों के सुर याद आने लगे. सब देवताओं का स्मरण किया वन में विचरण करने वाली मात्री/आंछरी(परियों) का स्मरण कर मन ही मन नमन किया लेकिन बुखार भला ऐसे कैसे उतरता. थक हारकर उठा गोली निकाली पानी ढूंढा जो दिनेश कंडवाल जी के तकिये के पास था तब तक उनकी नींद भी खुल गयी उन्होंने पानी की बोतल पकड़ाई. मैंने गोली खाई समय देखा तो सुबह के 3:46 बज रहे थे. गोली के असर से पसीना पसीना हुआ जब तर्र-बतर हुआ तब नींद आई.

सुबह खटर-पटर सुनकर आँख खुली तो पाया सब अपना सामान गाड़ी में डाल रहे हैं . घड़ी पर नजर पडी तो देखा 7 बज चुके हैं ! शिब प्रसाद सती ने बाहर से देखा कि मैं उठ गया हूँ श्याम को चाय देने को बोला फिर मुझसे पूछा – तबियत कैसी है इष्टवाल जी, कंडवाल जी बता रहे थे रात को बहुत बुखार था. मैंने कहा अब ठीक महसूस कर रहा हूँ. चाय आई चुस्की ली और मुश्किल से 15 
मिनट में तैयार होकर बंगले से कूच कर गए. बादलों की धुंध से गुजरती कार में यही सोचता 
रहा कि कहीं वह वही तो नहीं जिन्हें हम परियां कहते हैं? परियों के देश में जो ठहरे…! जो आपको तब तक नुक्सान नहीं पहुंचाती जब तक आप उनके कार्यों में व्यवधान न डालो. दूध बेचने चकराता जा रहे गूर्जर रसूक अहमद से मैंने पूछ ही लिया- अरे यार गूर्जर कल इतने सुंदर गीत लग रहे थे डेरे में हमें भी बुला लिया होता! गूर्जर बोला- कब ? फिर बोला- साब, यो गीत वीत का टाइम नहीं होता मारे पास..! दिन भर काम में सब थके रहते हैं ! हम सब तो आठ बजे ही सो जाएँ!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *