जब सात तालों में बंद रखा गया मुंडनेश्वर (खैरालिंग) की काली माँ को..! फिर भी रातों रात सैकड़ों मील का सफर तय कर पहुँच गयी मेला स्थल.

जब सात तालों में बंद रखा गया मुंडनेश्वर (खैरालिंग) की काली माँ को..! फिर भी रातों रात सैकड़ों मील का सफर तय कर पहुँच गयी मेला स्थल.


(मनोज इष्टवाल)
सभ्य समाज की अंधी दौड़ ने धन बल और ऐश्वर्य पर भले ही लंकापति रावण जैसा अहंकार पाल लिया हो लेकिन वर्तमान में भी ऐसे कई प्रमाण हैं जिन्हें घटित होते देख हम आँखें यूँही नहीं मूँद सकते. उन्हीं में एक लोमहर्षक कहानी पौड़ी गढ़वाल के विकास खंड कल्जीखाल स्थित ग्राम मिर्चौडा के असवाल थोकदार की पुत्री मुक्ता की भी है.
मुक्ता….! यानि जतो नाम ततो गुण. सचमुच मुक्ताहार सी. बेहद लज्जावान, सौम्य, सुशील और गुणवान! दूर-दूर तक उसके व्यवहार में ठाकुरों का अहंकार नहीं था. मुक्ता एक साधारण सी असाधारण लड़की थी. साधारण इसलिए कि वह आम लड़कियों की तरह थी और असाधारण इसलिए कि उसकी प्रसिद्धी का डंका सम्पूर्ण क्षेत्र में था. वह पेशे से अध्यापिका थी लेकिन अध्यापिका होना जरुरी नहीं की प्रसिद्धी का कारण हो.

मुक्ता इसलिए प्रसिद्ध थी क्योंकि उसके ऊपर माँ काली का पश्वा उतरता था.
खैरालिंग की काली माँ की चर्चा से पहले यह जरूरी है कि उसके मैती (मायके वाले) अस्वालों की चर्चा होनी भी आवश्यक है. “अधौ असवाल, अधौ गढ़वाल” की कहावत से सुशोभित यह राजपूती वंश आज भी अपनी तुलना राजघराने से करता है.
भारद्वाज गौत्री यह इस जाति की उत्पत्ति ऋषियों द्वारा श्रृष्टि निर्माण से जुडी पौराणिक कथाओं से जुडी है. आबू पर्वत (माउंट आबू) में ऋषियों द्वारा यज्ञ किये जाने के समय जब भारद्वाज ऋषि द्वारा यज्ञ कुण्डी में ओम किया गया तब वहां से एक वीर उत्पन्न हुआ जिसके हाथ में तलवार और वह घोड़े में सवार था. इसे चव्हाण (अश्वपाल) के नाम से सुशोभित किया गया और उसे आदेश हुआ कि तुम वीरों में महावीर बन इस रेतीले समुद्र से लेकर बर्फीले पहाड़ों तक अपने राज्य का सीमा विस्तार करो.

कालांतर का इतिहास भी लम्बा है और किंवदंतियाँ भी ! लेकिन जब असलपाल चव्हाण अपने कुल वंशजों के साथ बद्री केदार यात्रा पर आये तब इस राजकुमार के चेहरे के ओज को देख सूर्यवंशी गढ़ नरेश भानुप्रताप ने अपने भ्राता की पुत्री का विवाह असलपाल चौहान से कर उसे चांदपुर गढ़ का आधा हिस्सा दान स्वरुप दे दिया. जहाँ आकर यह अग्नि वंशी चव्हाण नागपुर गढ़ का अधिपति कहलाया. और अनन्य शिब भक्त होने के कारण यह नागवंशी हो गया. किंवदंतियों में सिमटा गढ़वाल के इतिहास में भले ही यह सारे प्रमाण तथ्यपूर्ण न हों क्योंकि किस काल में किस इतिहासकार से कहाँ चूक हुई कहा नहीं जा सकता क्योंकि हमारा लिखित इतिहास था भी या नहीं यह काल की गर्त में है.क्योंकि सन 1801-02 के बिनाशकारी भूकम्प ने वैसे ही सब लील लिया जैसे विगत 2013 में केदारनाथ में आया प्रलय था. और वहां के सारे दस्तावेज नेस्तानाबुत हो गए.
लोकगाथाओं, लोककथाओं और ढ़ोल बादी समाज में प्रचलित जागर व वंशकीर्ति के आधार पर यही प्रमाण भी मिलते हैं कि भानुप्रताप के कनिष्क भाई सूर्यप्रताप की पुत्री से विवाह के पश्चात असलपाल आधे राज्य का अधिपति हुआ भले ही उसकी तैनाती राजा भानुप्रताप के यहाँ सेनापति जैसी थी लेकिन वह बिना मुकुट का राजा कहलाया. और उसी दिन से “अधौगढ़वाल, अधौ असवाल” की कहावत प्रचलन में भी आई. हम सभी जानते हैं कि ईश्वरीय कृपा से राजा भानु प्रताप की भी एक ही पुत्री थी जिसका विवाह धार के चन्द्रवंशी राजकुमार कनकपाल से कर राजा भानुप्रताप ने गढ़वाल का सम्पूर्ण राज चन्द्रवंशियों को हस्तगत कर दिया और यहीं से गढ़वाल में सूर्यवंशी ध्वज हटकर चन्द्रवंशी पताका लहराई. बंटवारे में बाबा केदार नागवंशी असलपाल के पास आये जबकि बदरीनाथ चन्द्रवंशी कनकपाल के पास.

लेकिन दोनों ही में तनाव व ध्वंश परम्परा चलती रही जिसके कारण छोटे छोटे गढ़पति राजविद्रोह में उतरे और गढ़वाल 52 गढ़ों में विभक्त हुआ. उधर कत्युरी वंशज राजाओं ने नेपाल से लेकर कुमाऊं तक विजय पताका लहराई. अब बारी गढ़वाल की थी लेकिन उसे जल्दी फतह न कर पाने के कारण उन्होंने रूहेला, कुमैय्या और मराठा सेना को संगठित कर जोशीमठ तक कब्ज़ा कर लिया और जोशीमठ को राजधानी घोषित कर दिया. उधर चम्पावत चंद वंशियों के हाथ में देकर कत्युरी हिमालयी क्षेत्र के अधिपति के रूप में अपने को सुशोभित किये हुए रहा लेकिन एक काल के बाद कत्युरी राजा को यह क्षेत्र गंवाना पड़ा लेकिन इस रोज रोज की लड़ाई से परेशान चाँदपुर के चन्द्रवंशी राजा ने सन 1500 ई. जहाँ श्रीनगर राजधानी ले जाना उचित समझा वहीँ मुंह की खाए असलपाल चव्हाण के वंशज चाँदपुर गढ़ी के अधिपति रणपाल असवाल ने भी 1500 ई. में 84 गॉव को कब्जे में लेकर नगरकोट गढ़ बसाया जिसे ब्रिटिश काल की पैमाइश के बाद असवालस्यु नगर के नाम से जाना गया.
असवाल राजपूत चव्हाण कुलीन उच्च श्रेणी के ठाकुर थे लेकिन असलपाल का नाम अपभ्रंश होकर असवाल हुआ और वही इनकी जाति सूचक भी हुआ. कई इतिहासकारों ने असवाल को अश्वपालक कहकर इनके कद में गिरावट दर्ज करने की कोशिश भी की है. हाँ यह सत्य है कि सिर्फ असवाल जाति के पास ही कालांतर में सवारी के सबसे उम्दा घोड़े हुआ करते थे जिनके बलबूते पर उन्होंने कई युद्ध फतह भी किये और अजेय कहलाये.लेकिन वे घोड़े चुगाने वाले अश्वपालक थे यह बात सत्य नहीं है. अगर सत्य होता तो”अधौ गढ़वाल, अधौ असवाल’ कहावत उस युग में कभी चरितार्थ नहीं होती जब अहम से बढ़कर राजसी हुंकार हुआ करती थी.
श्री= मुकुट और श्री=स्त्री के फलस्वरूप श्रीनगर के राजघराने वाले राजा कहलाये जबकि नगर के असवाल बिना मुकुट के राजा. इनके वंशजों में कई वीर भड पैदा हुए जिनमें भंधौ असवाल व खडक सिंह असवाल प्रसिद्ध हुए. जिन्हें आदिदेव महादेव का वरदान था और इन्हें साक्षात महादेव का स्वरूप भी प्राप्त समझा जाता था.
विस्तृत लेख लिखने से हमेशा मुख्य विषय गौण हो जाता है यहाँ भी वैसा ही कुछ हो रहा है अत: इसे संक्षेप कर नगरकोट के अधिपति रणपाल असवाल ने अपने कुलपुरोहित व नाथ सम्प्रदाय के गुरु गरीबनाथ से मिलकर पीपलचौंरी में माँ काली की स्थापना की. वह महादेव के अनुनय भक्त थे इसलिए हर रोज हर हर महादेव का जाप करते थे. भले ही वह नयार नदी के बेहद पास थे और नित नियम के अनुसार क्षीर गाड़ व नयार के संगम में स्नान करने के बाद पूजा पाठ किया करते थे लेकिन उन्हें लगता था कि उन्हें गंगा माँ का स्मरण कर माँ को बुलाना चाहिए. कुलपुरोहित नैल-चामी नामक स्थान से ही उनके साथ यहाँ आकर नैल गॉव में बसे. कहते है पंडित नरोत्तम ने एक दिन माँ गंगा का आवाहन किया और रात्री काल में गंगा चलकर एक धार के रूप में प्रकट हुई लेकिन तब तक रात खुल गयी और उसे वापस लौटना पड़ा आज भी खैरालिंग महादेव की जड़ से बहने वाली नदी गंगद्वार (गंगधारा) कही जाती है.
कालांतर में महादेव माडू थैरवाल नामक 84 बर्ष के वृद्ध थैर गॉव निवासी के नमक के भारे के साथ मुंडनेश्वर नामक स्थान पर अवस्थित हुए और खैरालिंग कहलाये. जिसके पुजारी सकनौली गॉव के कहलाये. माँ काली ने भी नगरकोट छोड़कर खैरालिंग महादेव के पास जाना उचित समझा वह रोज रात्री सभी असवाल वंशजों को आवाज देकर चेताती रही कि मेरे ध्वज पताका के साथ मेरी स्थापना भी वहीँ करो जहाँ महादेव हैं. आखिर जेष्ट माह की नियत तिथि को नगर से माँ की विदाई हुई जिसने आकर मिर्चौडा थान में विश्राम किया. वहां से सांगुडा गॉव के ऊपर स्थित घने जंगल में उन्हें प्यास लगी जहाँ एक मनमोहन बुग्याल है. कहते हैं वहां एक छोया (जलधारा) प्रकट हुई काली माँ ने यहाँ पानी पीया और ध्वज पताका के साथ मुंडनेश्वर पहुँच गयी जहाँ पहुँचते पहुँचते सभी थककर चूर हो गए इस पीड़ा को खैरी का नाम देकर महादेव को यहाँ खैरालिंग पुकारा जाने लगा.
जनश्रुतियों की अगर बात की जाय तो यह कहा जाता है कि मुक्ता पर जब माँ काली प्रकट होती है तब वह अपनी सुध-बुध खो देती हैं. जिस दिन से यहाँ मेले के मंडाण शुरू होते हैं ध्वजा काटकर लायी जाती है वह तभी से अपना होश गंवा देती हैं. कई बार घर वालों ने उसे ताले में बंद करके भी रखा ताकि वह मेला स्थल तक न पहुँच पाए लेकिन ताले स्वयम खुल जाते थे और मुक्ता मीलों पैदल चलकर सुबह सबेरे माँ ज्वाल्पा धाम से नहा-धोकर 4 बजे प्रातः वापस भी लौट आती थी. लेकिन इस सारे प्रकरण मुक्ता के भाई सिरे से खारिज करते हैं वे कहते हैं कि ऐसा कभी नहीं हुआ जबकि आस-पास गाँव के लोगों का मत है कि  मेले से एक माह पूर्व देहरादून भेज दिया ताकि उसे वहां तक कौथीग के गाजे-बाजे न सुनाई दें और न ही माँ काली की जागर के शब्द! लेकिन मेले का समय निकट आते ही मुक्ता के चेहरे के भाव बदलने लगे वह विकराल दिखने लगी. देहरादून में उसे तालों में इसलिए बंद कर रखा गया ताकि वह ऐसी स्थिति में बाहर न निकल पाए. लेकिन विधि के विधान को भला कौन टाल सकता है. मेले के पहले दिन जिस दिन ध्वजा भैंसा चक्र पर चढ़ाया जाता है उसी दिन मुक्ता रातों-रात जाने कैसे देहरादून से सैकड़ों मील दूर खैरालिंग आ पहुंची.
मेला समाप्त होने के बाद वह एक हफ्ते तक ऐसी ही अचेतन स्थिति में रहती थी. और फिर दुखी होती थी कि आखिर माँ काली का यह पश्वा सिर्फ मेरे उपर ही क्यों विकराल रूप धारण करता है. वर्तमान में स्थिति बदल गयी हैं क्योंकि अब मुक्ता को माँ काली ने अपने बंधन से मुक्त कर दिया है व गॉव की ही एक बहु श्रीमती अंजू असवाल पर अपना रूप धर दिया है. अब भी काली अपने इसी रूप में है या नहीं कह नहीं सकता लेकिन डेढ़ दो दशक पूर्व माँ काली के इस रूप की चर्चा खूब हुआ करती थी जो मुक्ता के उपर खेलती थी.
(नोट- मुक्ता के भाई की आपत्ति के पश्चात मुझे कुछ अन्य किंवदंतियाँ हटानी पड़ी ताकि इस पर कोई अंतर्विरोध ना हो).

6 thoughts on “जब सात तालों में बंद रखा गया मुंडनेश्वर (खैरालिंग) की काली माँ को..! फिर भी रातों रात सैकड़ों मील का सफर तय कर पहुँच गयी मेला स्थल.

  • May 11, 2017 at 3:49 am
    Permalink

    True story about Khairling Mahadev…

    Reply
  • May 31, 2017 at 1:22 am
    Permalink

    ये कहानी पूरी काल्पनिक है । इसमें कुछ भी सच्चाई नहीं है। इनके जैसे पत्रकार लोगों को भ्रमित कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं । मुक्ता मेरी बहन है । मैं मनोज भाई को काफी समय से ढूंढ रहा हूं ।

    Reply
    • June 3, 2017 at 6:59 pm
      Permalink

      जे बी असवाल जी! यह पूरी कहानी काल्पनिक नहीं है इसमें कुछ किंवदन्तियों को शामिल किया गया है. मुक्ता बहन पर काली माँ का पश्वा उतरता था या किसी अन्य बहन पर …! यह मैं नहीं जानता लेकिन पूरा जनमानस इसी बात को दोहराता है कि जिस बहन पर भी माँ काली का पश्वा उतरता था वह बेहद शक्तिशाली हो जाया करती थी. और यह बात सिर्फ मैं नहीं कोई भी बूढ़ा बुजुर्ग बता सकता है. रही विरोध करने वाली बात तो वो आपकी अपनी बात है. मुक्ता नाम अगर गलत लिख दिया गया है व भूल से यह बहन आपकी बहन है तो उसके लिए माफ़ी! मुक्ता आपकी ही बहन नहीं मेरी भी बहन ही होगी क्योंकि मैं भी आप ही के गाँव का पडोसी हूँ.

      Reply
      • June 4, 2017 at 7:08 am
        Permalink

        भाई जी । जब हमारी बहन पर देबी की झलक आती थी तो मन्दिर के अन्दर मैं ही उनके साथ बैठा रहता था । लेकिन आपका लिखना कि सात तालों में बन्द रहती थी । ज्वाल्पा से नहा कर आती थी । रातों रात देहरादून से आ गयी । मन्दिर के आले में बैठी रहती थी । जीभ एक फीट लम्बी हो जाती थी ……..।
        आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि वह अभी भी यहीं नौकरी कर रही है व मिरचोडा रहती है, अभी भी उन पर देबी आती है।
        आप यह शुक्र मानिये कि मैंने आपके लेख के बारे में उनको व किसी अन्य को नहीं बताया। नहीं तो हो सकता था कि आपके खिलाफ अफवाह फैलाने के कारण कानूनी कार्यवाही कर दी जाती।

        Reply
        • June 4, 2017 at 3:38 pm
          Permalink

          मैंने स्टोरी संपादित कर दी है. दरअसल यह बात जाने कितने लोगों के मुंह सुन चुका हूँ मैं ! वही सोचकर कहानी उठाई थी लेकिन मुंडनेश्वर मेले में उन्हें खुद नाचते देखा था इस बात से आप इनकार नहीं आकर सकते.

          Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *