"जखोल से देवक्यार" ट्रैक ऑफ़ द ईयर-2019 घोषित! 26 सितम्बर को जखोल से होगी शुरुआत~!
यह मेरे लिए शुकून भरा होगा क्योंकि यह लगातार मेरी तीसरी स्टोरी है जो ट्रैक ऑफ़ द ईयर घोषित हुई है! अबी इसे अपना न कहूँ तो किसका कहूँ क्योंकि इस से पहले इस ट्रैक के बारे में देश दुनिया के लोग अनजान थे! सिर्फ अगर इस ट्रैक को कोई जानता था तो पर्वत क्षेत्र के कुछ रैबासी या फिर वे चुनिन्दा ट्रैकर्स जिन्हें यहाँ के लोग हिमालयी क्षेत्र के इन खूबसूरत बुग्यालों के दर्शन करवाने ले जाते थे! यह मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि जखोल गाँव के मालदार गंगा सिंह रावत द्वारा मुझे जखोल से देवक्यार सोमेश्वर जातरा पर आने का न्यौता दिया और मुझे सोमेश्वर की कृपा से उसके जन्मस्थान पर लिखने का सुनहरा अवसर मिला! यों तो विगत बर्ष पर्यटन एवं धर्मस्व मंत्री सतपाल महाराज द्वारा इस क्षेत्र को ट्रैक ऑफ़ द इयर घोषित किया गया था लेकिन एक के बाद एक चुनाव और इस बर्ष भी दो तीन बार इस ट्रैक ऑफ़ द इयर-2019 के शुभारम्भ की तिथियाँ बदल चुकी हैं लेकिन अब पूरी उम्मीद है कि 26सितम्बर तक मौसम ठीक हो जाएगा और इस ट्रैक का बेसब्री से हो रहा इन्तजार खत्म होगा! बर्ष 2017 में मेरे द्वारा सर्वप्रथम इस ट्रैक पर निम्नवत लेख लिखा गया था! उम्मीद है पर्यटन विभाग इस लेख का संज्ञान लेते हुए अपनी वृहद तैयारी के साथ इसे सफलता की सीढ़ी तक ले जाएगा! इस लेख को मैंने विस्तार इस लिए दिया था ताकि देवक्यार ट्रैक को सिर्फ ट्रैक के रूप में न देखा जाय बल्कि सोमेश्वर की जन्मस्थली के रूप में भी इसका प्रसार-प्रचार हो!
12 बर्ष बाद जखोल के सोमेश्वर पहुंचे देवक्यार जातरा पर! हजारों की भीड़ ने दी विदाई! क्या दुर्योधन है सोमेश्वर देवता?
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 7-12 जून 2017)

आखिर दुर्योधन क्यों कहा जाता है जखोल के सोमेश्वर देवता को? क्यों नहीं होती एक मात्र गाँव जखोल में पांडवों की पूजा व पांडव नृत्य! क्या रहस्य है जींदा लखवाड़ी की लाई 7मूर्तियों का! देवक्यार में पुन: क्यों बनाई गयी सोमेश्वर देवता की मूर्ती! सचमुच पहाड़ और भगवान का आपसी सम्बन्ध नहीं होता तो यहाँ का जनमानस ऐसी विकट परिस्थितियों के बावजूद भी इस हिमालयी क्षेत्र को अपने पुरुषत्व से कैसे बचा पाता. सनातन और वैदिक प्रवृत्तियों से लवरेज पहाड़ी जन मानस कैसे देवता को भी अपनी जिद और जनून के आगे झुकाता है यह उत्तरकाशी जनपद के रुपिन-सुपिन घाटी के पर्वत क्षेत्र के जखोल गाँव में विगत दिनों दिखने को मिला जब 7 जून से 12 जून तक 12 बर्ष बाद जखोल ही नहीं बल्कि 22 गाँव पर्वत के स्थानीय देवता सोमेश्वर की पालकी मंदिर से बाहर निकली और कैलाश के लिए निकल पड़ी. यह वह कैलाश हुआ जहाँ सोमेश्वर का उत्पत्ति स्थल बताया जाता रहा है.

जखोल से 37 किमी. दूर हिमालयी क्षेत्र देवक्यार बुग्याल की जात्रा पर निकले सोमेश्वर देवता की पालकी के साथ लगभग 1500 लोग चले. जिनमें बूढ़े बच्चे और बुजुर्ग शामिल थे अगर कोई शामिल नहीं था तो वे थी गाँव की महिलायें!जखोल के सोमेश्वर देवता को कुछ बर्ष पूर्व तक दुर्योधन मानने वाले ग्रामीणों द्वारा वर्तमान में जो तथ्य उनके सोमेश्वर अर्थात सोम रस पीने वाले ईश्वर (महादेव) होने के बारे में वर्तमान में पेश किये गए हैं वह वास्तव में अकाट्य तब लगते हैं जब आप मंदिर व उसके आस-पास फैले विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करते हैं. कई ग्रन्थों व लेखकों द्वारा जखोल के इस मंदिर को दुर्योधन का मंदिर कहा गया है लेकिन उसके वर्तमान में न कहीं काष्ठ निर्मित चित्रों में झलक दिखती है और न ही मंदिर में मौजूद मूर्तियों में इसका कोई स्वरूप ही दिखाई देता है. हाँ इतना जरुर लगता है कि जींदा लखवाड़ी नामक पंडित/पुरोहित वाली मूर्ती में कहीं न कहीं पांडव काल के अंश दिखाई देते हैं भले ही उसे भी यहाँ का पढ़ा-लिखा समाज शिब की ही मूर्ती मानता है लेकिन सोमेश्वर की बड़ी मूर्ती जिसका निर्माण काल का तो किसी को जानकारी नहीं है लेकिन पर्वत क्षेत्र के इन 22 गाँव के सयाणा जिनका घर मंदिर प्रांगण से लगा हुआ है से प्राप्त पांडुलिपि दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि इस मूर्ती का निर्माण हरकनाथ या हरी लामा द्वारा देवक्यार नामक हिमालयी क्षेत्र में किया गया था!यहाँ के जनमानस का मत है कि हरि लामा द्वारा जो पहली मूर्ती बनाई गयी थी उसकी आँखें बड़ी बड़ी हो जाने से उसे उन्होंने देवक्यार से निकलने वाली सुपिन नदी में फैंक दिया, जो बहती हुई कोटगाँव अडोर पट्टी के दुवाई तोक में निकली जिसकी पूजा कोटगांव के उनियाल पंडित कुश देवता के रूप में करते हैं. पर्वत क्षेत्र के पट्टी अडोर, पंचगाई व बडासु के गाँवों में जहाँ सोमेश्वर की पूजा होती है वहीँ सिर्फ जखोल ही एक मात्र ऐसा गाँव है जहाँ पांडव पूजा या पांडव नृत्य नहीं होता. आज भी यह शोध का बिषय है जिस पर व्यापक शोध होना चाहिए.

बहरहाल हरिलामा आया हरकनाथ द्वारा दूसरी मूर्ती तैयार हुई जो देवक्यार बुग्याल में बनाई गयी वह सबको बेहद पसंद आई. क्षेत्र के लोगों द्वारा प्रशंसा किये जाने पर हरकनाथ/ हरिलामा बोले कि मैं इस से भी खूबसूरत मूर्ती बना सकता हूँ. यह सुनकर उस क्षेत्र के लोगों ने उसकी ह्त्या कर दी कि कहीं हो न हो सचमुच ही यह मूर्तिकार इस से सुंदर मूर्ती किसी लोभ में आकर किसी अन्य क्षेत्र के लिए न बना दे. आज भी हरिलामा/हरकनाथ का पश्वा उतरता है जिसकी गाँव वालों को पूजा देनी होती है.सोमेश्वर की इस मूर्ती को जींदा लखवाडी द्वारा लाई गयी मूर्ती से नया माना गया है लेकिन दोनों के निर्माण काल का अभी तक कोई जानकारी नहीं मिल पाई है. कहते हैं कि जींदा लखवाडी वाली 7 मूर्तियाँ कुल्लू कश्मीर से यहाँ स्थापित हुई थी जैसे हनोल के चार महासू कुल्लू कश्मीर से यहाँ लाये गए थे. लेकिन ये 7 मूर्तियाँ किस किसकी थी इसका पता नहीं लग पाया है.

सोमेश्वर देवता की यह मूर्ती प्रथम दृष्टा ही शिब की मूर्ती लगती है क्योंकि इसके मस्तक पर त्रिनेत्र व गले में मुंडमाला दिखाई देती है. व मूर्ती का मिजान भी महादेव के मिजाज से मेल खाता दिखाई देता है. मूर्ती का निर्माण वास्तव में बेहद खूबसूरती से किया गया है. यह किस धातु से निर्मित है इसका भी पता करना संभव नहीं है.गाँव के लोग इसे सतयुग से चला आ रहा शिब स्वरूप मानते हैं. उसके प्रमाण स्वरूप सोमेश्वर देवता के साथ अवतरित एड़ी/आछरी/ मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी नामक परियां हैं! एड़ी आछरी परियों की जानकारी जुटाने के लिए मेरे द्वारा विभिन्न ग्रन्थों का अध्ययन किया गया!मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण, शिब पुराण सहित कई अन्य धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर जो प्राप्त किया उसका छोटा सा अंश आप लोगों के बीच बाँट रहा हूँ।

दैत्य अंधकासुर के अत्याचार से परेशान देवताओं ने शिब स्तुति कर अंधकासुर जिसे रक्तबीज भी कहा गया है उसका वध करने की प्रार्थना की आदिदेव महादेव ने ज्यूँ ही अंधकासुर का वध किया उसके रक्त की हर बूँद से हजारों अंधकासुर पैदा हुए जिसको मारते उसे कई पैदा हो जाते। थक हारकर तब शिब और भद्रकाली के ओज तेज से योगिनियां रण पिचासनियां पैदा हुई। जिनमे माहेश्वरी से ज्वालामुखी तक अनेकों अनेक मातृकाएं जन्मी और वे सभी रक्तबीजों का खून पीने लगी। (मत्स्य पुराण 179/9-32) फिर भी अंधकासुर का रक्त कहीं न कहीं गिर जाता और उस से और रक्त बीज पैदा हो जाते। तब महादेव बिष्णु शरण गए और रक्त बीज को मारने की युक्ति पर विचार किया। भगवान् बिष्णु द्वारा शुष्करेवती नामक देवी की उत्पत्ति हुई जिसने क्षण भर में सभी असुरों का रक्त पी लिया । फिर भी रक्त पिपासा पूरी न होने के कारण उसने अब देव मनुष्यों के रक्त से अपनी रक्त पिपासा शांत करना शुरू कर दिया। उसने देवताओं की एक न सुनी। अंत में शिब ने बिष्णु के नरसिंह अवतार का ध्यान किया जिन्होंने अपनी योग माया से 36 मातृकाएं का निर्माण किया। (मत्स्य पुराण 197/66-74)इन्ही योगनियों में एक कृत्या नामक योगिनी हुई । कहते है जब दैत्यं राज जालंधर भगवान् शिब से युद्ध करने गया तब शिब गण जिस भी दैत्यं का वध करते दैत्यं गुरु शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से उन्हें जीवित कर देते। ऐसे में आदिदेव महादेव के मुख से एक योगिनी पैदा हुई जो कृत्या नाम से प्रसिद्ध हुई। जो दैत्यं गुरु शुक्राचार्य को अपनी योनि में छुपाकर आकाश में अंतर्ध्यान हो गयी और युद्ध में उसने अनेको राक्षसों का भक्षण किया। (शिव् महापुराण द्वितीय संहिता पंचम युद्ध खण्ड 20/52-55)वहीँ प्रसिद्ध विद्धवान भगवती प्रसाद पुरोहित अपनी पुस्तक रुद्रहिमालय गोपेश्वर के पृष्ठ संख्या 186-87 में लिखते हैं कि ये ऐड़ी आंछरी बणघौ में वे रण पिचासनियां थी जो कनखल में यक्ष का यज्ञ ध्वस्त कर कैलाश लौटने की जगह कुछ यहीं उच्च बुग्यालों पर्वत श्रृंखलाओं पर रुक गयी। भैरव रूप में शिवगण भी यहीं प्रतिष्ठित ही गये।इन तथ्यों को अगर प्रमाणिकता स्वरुप माना जाय तो लगता है कि वास्तव में जो 36 मातृकाएं पैदा हुई थी उन्हीं में से कुछ इसी क्षेत्र में रुक गई. उच्च हिमालयी बुग्यालों के इस पर्वत क्षेत्र में सबसे ज्यादा आश्रय लेने वाली ये मातृकाएं, देविया, परियाँ आज भी निवास करती हैं फिर यह कहना कि सोमेश्वर सतयुग कालीन देवता है तब गलत नहीं होगा लेकिन त्रेता और द्वापर के दौर में इस क्षेत्र में त्रेता के राम का इतिहास नहीं मिलता बल्कि द्वापर युग के कौरव पांडवों का इतिहास यत्र तत्र सर्वत्र बिखरा हुआ है, इसलिए अभी भी इस सब पर शोध की आवश्यकता को बल मिलता है!
पूर्वकाल में जखोल में हुई त्रासदी से जहाँ पूरा गाँव अकाल मौत की चपेट में था वहीँ चेचक व हैजे से हुई मौतों में जींदा लखवाडी ही सिर्फ जीवित बचा क्योंकि वह एकमात्र पुजारी था जो मंदिर की देखरेख करता था तब इस मंदिर में 7 मूर्तियाँ हुआ करती थी. जींदा लखवाडी के 6 भाई व उसका समस्त परिवार चेचक व हैजे से मर चुका था. कहीं इन्हें जींदा लखवाडी का भाई माना गया है तो कहीं इन्हें उनका पुत्र माना गया है. आखिर थक हारक्र जब जींदा की आमदनी का कोई स्रोत नहीं रहा तब उन्होंने सातों मूर्तियाँ घिल्टे में रखी व उन्हें बेचकर अपनी प्राण रक्षा के लिए धन जुटाने गाँव से निकल पड़ा.गाँव के समाजसेवी गंगा सिंह रावत बताते हैं कि जखोल से कुछ ही दुरीपर स्थित पाँव गाँव के भागटुका तोक में भेकल के पेड़ के नीचे जींदा लखवाडी ने थकने के कारण घेल्टा कंधे से उतारा व पास ही स्रोत से पानी पीया व कुछ देर सुस्ताने के लिए आँखें बंद की. जींदा लखवाडी को नींद आ जाने के कारण वह जब एक आध घंटे बाद उठा और उसने घेल्टा उठाने की कोशिश की तो घेल्टा वहांसे टस से मस नहीं हुआ! थक हारकार जींदा वहां से प्राण रक्षा के लिए निकल पड़ा और जौनसार के लखवाड़ गाँव में आकर रहने लगा.कालान्तर में 12 बीसा पाँव गाँव के ग्वाले इस बात से हैरान थे कि आखिर उनकी लाल गाय का दूध गौ चारक पीता है या फिर कहीं उसे बेच देता है क्योंकि लाल गाय से उन्हें दूध कम प्राप्त होता था. एक दिन यही सोचकर गाय मालिक हाथ में दरांती लेकर चुपचाप गाय का पीछा करने लगा वह क्रोधित था कि अगर इसे गौ चारक पीता है तो मैं आज उसका गला काट दूंगा लेकिन जब उसने भेकल के पेड़ के नीचे खड़ी गाय के थनों से 7 मूर्तियों को दूध पीते देखा तब उसकी क्रोध की सीमा नहीं रही. उसने हाथ में पकड़ी दरांती से उन मूर्तियों पर वार कर दिया जिनमें से एकमूर्ति के चेहरे पर दरांती जा लगी बाकी 6 मूर्तियाँ गायब हो गयी.
वह मूर्ती तत्कालीन समय में पुन: बसागत हुए जखोल के बच्चों के हाथ लग गयी जिससे बच्चे खेलते थे. तब लिवाड़ी-राला के लोग निचले क्षेत्र में व्यापार के लिए आते थे उन्होंने मूर्ती देखकर बच्चों को बदले में कुछ धन दिया व मूर्ती अपने गाँव में स्थापित कर दी. इसी दौरान दूणीगाँव का कीणी भाट जब शिकार खेलने इस क्षेत्र में पहुंचा तो लिवाड़ी के लोगों ने उस से इस मूर्ती की प्राण प्रतिष्ठा करवा दी. क्योंकि लिवाड़ी के लोग जब भी इस मूर्ती की पूजा करते थे तभी यह मूर्ती पलटकर दूसरी ओर मुंह कर लेती थी. लेकिन जब कीणी भाट द्वारा इसकी प्राण प्रतिष्ठा की गयी तब यह मूर्ती सीधी रहने लगी लेकिन यहाँ कीणी भाट के लिए यह समस्या हो गयी कि वह जैसे ही शिकार खेलने के लिए जखोल की सीमा में दाखिल हुआ और शिकार करके वापस दूणी गाँव लौटने लगा जखोल की सरहद पार करते ही उसकी आँखें अंधी हो जाती उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता. थक हारकर जब उसने यह बात जखोल गाँव में बतायी तब जखोल गाँव वालों ने लिवाड़ी-राला के लोगों पर बच्चों को लालच देकर मूर्ती चुराने का आरोप लगाते हुए 22 गाँव् की पंचायत बुलाई! आखिर तय हुआ कि जिस तरफ देवता जाना चाहे यह देवता की मर्जी. देवता की मर्जी के अनुरूप देवता जखोल तो आये लेकिन उन्होंने अपनी पूजा लिवाड़ी-राला में भी जारी रखने को कहा.
विगत 7 जून को पर्वत क्षेत्र के जखोल गाँव से निकली सोमेश्वर की डोली लगभग 74 किमी. की हिमालयी क्षेत्र की पैदल यात्रा कर आज लगभग 11बजे प्रात: जखोल वापस लौटी! लगभग 1500 लोगों के बिशाल जनसमुदाय की यह यात्रा बेहद खुशनुमा रही.जखोल गाँव के सामजिक कार्यकर्ता गंगा सिंह रावत ने फोन पर जानकारी देते हुए बताया कि लगभग 10 से 12 हजार ग्रामीणों ने जखोल पहुंचकर यात्रा के समापन में अपनी सहभागिता निभाई ! सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह रहा कि विगत दो तीन दिनों से रवाई घाटी में लगातार बारिश हो रही है और जहाँ यह जात्रा जाती है वह मानसून के हिसाब से बेहद सेंसटिव जोन माना जाता है लेकिन जितने दिन भी जात्रा इस हिमालयी क्षेत्र के भ्रमण पर रही एक दिन भी बारिश नहीं हुई.
ज्ञात हो कि 37 किमी. की जखोल गाँव से देवक्यार की इस यात्रा का शुभारम्भ 7 जून को हुआ था जो जखोल, धारा गाँव, देहकी होती हुई लगभग 12 किमी दूरी तय कर पहले दिन ओड़ा-डोका पहुंची जहाँ रात्री बिश्राम किया गया! अगली सुबह ओड़ा-डोका से चरोटा, क्यारकोटि बुग्याल होती हुई जात्रा 15 किमी. दूरी रहका ताल में बिश्राम करती है जहाँ खूबसूरत दो तालाब हैं ! अगली सुबह यानि 9 जून को रहका ताल से जयराई (जहराई), रंगलाण, छोटा देवक्यार होती हुई जात्रा 10 किमी. की दूरी तय कर अपने मुकाम यानि देवक्यार बुग्याल पहुँचती है.
10 जून को डोली स्नान के बाद देवक्यार से जयराई का 10 किमी. सफ़र तय करती है. जबकि 11 जून की सुबह डोली अपने पुराने ट्रेक रूट के स्थान पर छोटे ट्रेक रूट पर चलकर किमडार, रातिका होकर 12 किमी की दूरी तय कर ओबरागाड़ पहुंची जहाँ रात्री बिश्राम के बाद डोली ओबरागाड, धारा गाँव होती हुई आज सोमवार 12 जून को लगभग 11:30 बजे सोमेश्वर मंदिर प्रांगण जखोल पहुंची! यह भी बड़ी आश्चर्यजनक बात हुई कि 7 जून को 11:30 बजे मंदिर प्रांगण से निकली यह जात्रा ठीक उसी समय में मंदिर में दाखिल हुई. पट्टी गोडर, पंचगाई व बडासु के लगभग 43 गाँव के लोग हजारों की संख्या में सोमेश्वर के दर्शन को जखोल गाँव में उमड़े!