जखोल-देवक्यार ट्रेक ऑफ़ द इयर-2018 घोषित होने पर बिशेष!

जखोल-देवक्यार ट्रेक ऑफ़ द इयर-2018 घोषित होने पर बिशेष!

 
(मनोज इष्टवाल)

(यह मेरे लिए सौभाग्य कि बात है कि इससे पूर्व किसी भी पत्र-पत्रिका में इस रूट पर किसी व्यक्ति का कोई लेख नहीं था! यह पहला लेख है जो विगत एक बर्ष पूर्व छपा था और विगत 19 अप्रैल 2018 को इन्हीं सन्दर्भों की जानकारी प्राप्त करते हुए उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज द्वारा बिस्सू मेले के अवसर पर जखोल में उमड़ी 44 गाँवों की हजारों की भीड़ के सामने “जखोल-देवक्यार ट्रेक को उन्होंने ट्रेक ऑफ़ द इयर-2018” घोषित कर दिया! यह लगातार तीसरा अवसर है जब हिमालयन डिस्कवर व देहरादून डिस्कवर सहित तमाम मैग्जीन व पात्र-पत्रिकाओं में छपे मेरे लेखों पर ट्रेक ऑफ़ द इयर घोषित हुए ! ज्ञात हो कि इससे पूर्व आराकोट बंगाण उत्तरकाशी का चाईशिल व चमोली जनपद के नीति घाटी में स्थित द्रोणागिरी ट्रेक ऑफ़ द इयर घोषित हुए हैं!)


विगत बर्ष 7 जून 2017  को पर्वत क्षेत्र के जखोल गाँव से निकली सोमेश्वर की डोली लगभग 74 किमी. की हिमालयी क्षेत्र की पैदल यात्रा कर आज लगभग 11बजे प्रात: जखोल वापस लौटी! लगभग 500 से भी अधिक लोगों के बिशाल जनसमुदाय की यह यात्रा बेहद खुशनुमा रही.  ज्ञात हो कि 37 किमी. की जखोल गाँव से देवक्यार की यह डोली जात्रा एक तरफ़ा पैदल यात्रा है जिसका ट्रेक रूट  जखोल, धारा गाँव, देहकी होते  हुए लगभग 12 किमी दूरी तय कर पहले दिन ओड़ा-डोका पहुंचता है,  जहाँ आप रात्री बिश्राम के लिए खूबसूरत बुग्यालों की शरण में होते हैं! यहाँ आपके लिए टेंट लगाने के लिए पर्याप्त जगह होती है और पेयजल की भी भरपूर व्यवस्था आपको मिल जायेगी!
अगली सुबह सोमेश्वर महाराज के जयकारों के साथ बनदेवियों के जैयकारे लगाते यात्री ओडा-डोका पहुँचते हैं, जहाँ से प्रकृति आप पर अपना बेपनाह नूर लुटाती नजर आती है! यहाँ शायद प्रकृति का यह रूप मैंने पहली बार देखा है जबकि अपनी यात्राओं में मैंने जाने कितने हिमालयी ट्रेक पिंडारी से लेकर चाईशिल तक या ये कहो कि अस्कोट से आराकोट तक नाप लिए हैं लेकिन यहाँ जो बिषमता दिखने को मिली वह यह थी कि डोका के बुग्यालों में हर क्यारी पर अलग अलग किस्म के फूल थे अर्थात यदि अभी आप को पीले फूल दिख रहे हैं तो थोड़ी देर में आपको सफेद फूल खिले मिलेंगे! इन फूलों के बीच सबसे बड़ी बात यह थी कि ये अपनी अपनी जगह खिलने पर अनुशासित थे! ये फूल जाने क्यों आपस में मिक्स नहीं हो रहे थे! सबका जैसे अपना अपना अधिकार क्षेत्र हो और जैसे इन्हें विधिवत तरीके से लगाया या रोपा गया हो! श्रद्धालु इन्हें अपने कानों पर लगाते या फिर अपनी टोपी पर स्थान देते! लगाते वक्त या तोड़ते वक्त ये कुछ बडबडाते नजर आये जो स्पष्ट समझ नहीं आ रहा था. सोचा फुर्सत से इसकी जानकारी लूँगा! इन फूलों की किस्म को मैंने सर-बडियार से ऊपर कालिया नाग के जन्म स्थल सरूताल जाते हुए देखा,  या फिर इसी हिमालयी क्षेत्र के केदारकांठा, हर की दून, भराडसर ताल से लेकर चाईशील के बुग्यालों में मैंने ऐसे अनमने भाँती के पुष्प देखे हैं! यहाँ के निवासी इन्हें जयांण या जयाणी के पुष्पों की संज्ञा देते हैं जिनसे खुशबु महकती है! केदारपाती और जयाणी के पुष्प यहाँ देवपूजा में ज्यादा इस्तेमाल होते हैं जिनकी खुशबु की महक मदहोश बना देती है! यहाँ की बनदेवियाँ जब किसी पर अवतरित होती हैं तो उन्हें मैंने केदारपाती का भक्षण करते हुए देखा है! डोडा की मात्रियाँ कहलाने वाली ये मात्रियाँ डोडाक्वार बुग्याल या उसके आस-पास के क्षेत्र में पाई जाती हैं. इन्हें प्यासी मात्रियाँ माना गया है जो प्यास बुझाने के लिए बस केदार पाती ही चबाती रहती हैं. क्षेत्रीय लोग इनके ऊपर जल या दूध छिडककर इन्हें शांत करते हैं.

ज्ञात हो कि यहाँ एड़ी/आछरी/ मात्रियाँ/ दांगुडि/ पीड़ी/भराड़ी नामक परियां हैं! एड़ी आछरी परियों की जानकारी जुटाने के लिए मेरे द्वारा विभिन्न ग्रन्थों का अध्ययन किया गया!मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण, शिब पुराण सहित कई अन्य धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर जो प्राप्त किया उसका छोटा सा अंश आप लोगों के बीच बाँट रहा हूँ।
 दैत्य अंधकासुर के अत्याचार से परेशान देवताओं ने शिब स्तुति कर अंधकासुर जिसे रक्तबीज भी कहा गया है उसका वध करने की प्रार्थना की आदिदेव महादेव ने ज्यूँ ही अंधकासुर का वध किया उसके रक्त की हर बूँद से हजारों अंधकासुर पैदा हुए जिसको मारते उसे कई पैदा हो जाते। थक हारकर तब शिब और भद्रकाली के ओज तेज से योगिनियां रण पिचासनियां पैदा हुई। जिनमे माहेश्वरी से ज्वालामुखी तक अनेकों अनेक मातृकाएं जन्मी और वे सभी रक्तबीजों का खून पीने लगी। (मत्स्य पुराण 179/9-32)
 फिर भी अंधकासुर का रक्त कहीं न कहीं गिर जाता और उस से और रक्त बीज पैदा हो जाते। तब महादेव बिष्णु शरण गए और रक्त बीज को मारने की युक्ति पर विचार किया। भगवान् बिष्णु द्वारा शुष्करेवती नामक देवी की उत्पत्ति हुई जिसने क्षण भर में सभी असुरों का रक्त पी लिया । फिर भी रक्त पिपासा पूरी न होने के कारण उसने अब देव मनुष्यों के रक्त से अपनी रक्त पिपासा शांत करना शुरू कर दिया। उसने देवताओं की एक न सुनी। अंत में शिब ने बिष्णु के नरसिंह अवतार का ध्यान किया जिन्होंने अपनी योग माया से 36 मातृकाएं का निर्माण किया। (मत्स्य पुराण 197/66-74)

 इन्ही योगनियों में एक कृत्या नामक योगिनी हुई । कहते है जब दैत्यं राज जालंधर भगवान् शिब से युद्ध करने गया तब शिब गण जिस भी दैत्यं का वध करते दैत्यं गुरु शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से उन्हें जीवित कर देते। ऐसे में आदिदेव महादेव के मुख से एक योगिनी पैदा हुई जो कृत्या नाम से प्रसिद्ध हुई। जो दैत्यं गुरु शुक्राचार्य को अपनी योनि में छुपाकर आकाश में अंतर्ध्यान हो गयी और युद्ध में उसने अनेको राक्षसों का भक्षण किया। (शिव् महापुराण द्वितीय संहिता पंचम युद्ध खण्ड 20/52-55)
वहीँ प्रसिद्ध विद्धवान भगवती प्रसाद पुरोहित अपनी पुस्तक रुद्रहिमालय गोपेश्वर के पृष्ठ संख्या 186-87 में लिखते हैं कि ये ऐड़ी आंछरी बणघौ में वे रण पिचासनियां थी जो कनखल में यक्ष का यज्ञ ध्वस्त कर कैलाश लौटने की जगह कुछ यहीं उच्च बुग्यालों पर्वत श्रृंखलाओं पर रुक गयी। भैरव रूप में शिवगण भी यहीं प्रतिष्ठित ही गये।
इन तथ्यों को अगर प्रमाणिकता स्वरुप माना जाय तो लगता है कि वास्तव में जो 36 मातृकाएं पैदा हुई थी उन्हीं में से कुछ इसी क्षेत्र में रुक गई. उच्च हिमालयी बुग्यालों के इस पर्वत क्षेत्र में सबसे ज्यादा आश्रय लेने वाली ये मातृकाएं, देविया, परियाँ आज भी निवास करती हैं फिर यह कहना कि सोमेश्वर सतयुग कालीन देवता है तब गलत नहीं होगा लेकिन त्रेता और द्वापर के दौर में इस क्षेत्र में त्रेता के राम का इतिहास नहीं मिलता बल्कि द्वापर युग के कौरव पांडवों का इतिहास यत्र तत्र सर्वत्र बिखरा हुआ है, इसलिए अभी भी इस सब पर शोध की आवश्यकता को बल मिलता है!

खैर सोमेश्वर डोली जात्रा जोकि इससे पूर्व अप्रैल 2006 में देवक्यार पहुंची थी और पूरे 12 बर्ष बाद अब पुनः देवक्यार के लिए निकली है , के साथ हम ओड़ा-डोका से होते हुए चरोटा, क्यारकोटि बुग्याल की यात्रा तय कर आप  15 किमी. दूरी पर स्थित  रहकाताल (रौका ताल) पहुँचते हैं जहाँ दूर से बेहद छोटे-छोटे दिखने वाले ताल जब नजदीक पहुँचते हैं तो अपनी खूबसूरती व भव्यता का अहसास कराते हैं! यहाँ के इन तीन तालों के किनारे ब्रह्मकमल खिले होते  हैं ! यहाँ रात्री विश्राम करना किसी स्वर्गलोक की अनुभूति से कम नहीं है क्योंकि यहाँ आप हिमालय की शिखरों की तलहटी में ऐसे बर्फ के साथ आँख-मिचौली करते हैं जो हर दम पहाड़ियों पर रंग बदलता नजर आता है! यहाँ की प्राकृतिक छटा के दिव्य दर्शन मात्र ही आपको किसी देवलोक का वासी होना महसूस कराते हैं! कहा तो यह भी जाता है कि इन तालों की रक्षा हेतु बनदेवियाँ हमेशा यहाँ मौजूद रहती हैं व उन्हें इस क्षेत्र में गंदगी फैलाने से सख्त नफरत है! आखिर हो भी क्यों नहीं ऐसे देवलोक में भिन्न भिन्न फूलों से सजी क्यारियाँ व स्वच्छ बर्फीला निर्मल जल नसीबवालों को ही मिलता है! इसलिए पर्यटकों से अनुरोध है कि जब भी यहाँ आप ठहरें जल-थल का इस्तेमाल करें तब प्रकृति की रक्षक इन बनदेवियों को जरुर प्रणाम कर उनसे हर वस्तु लेने से पहले अनुनय के साथ मांग लें ऐसे में ये देवियाँ आप पर प्रसन्न होती हैं और आपकी पूरी यात्रा बेहद निष्कंटक रूप से आगे बढती है! ये बनदेवियाँ आपकी बर्फीले तूफ़ान, सर्द हवा व खराब मौसम में आपका साथ देती हैं! वैसे भी यह यात्रा आपको जखोल से प्रारम्भ करनी होती है जहाँ इस क्षेत्र का राजा कहलाने वाला सोमेश्वर देवता का मंदिर है! अत: मंदिर में स्तुति-वन्दन के बाद ही आप अपनी यात्रा पर निकलें ताकि यह आपके पूरे रूट को सुगम बनाए रखने में आपके सहायक सिद्ध हों! यहाँ आप चाहें तो थकान मिटाने के लिए एक या दो दिन का कैम्प कर सकते हैं ताकि आप इन तीन तालों पर शोध कर सकें व आस-पास की प्रकृति में ब्याप्त खूबसूरती को अपनी आँखों में भर सकें! फिलहाल हमारी टीम यहाँ मात्र 8 जून की रात्री ठहरी और थकान से चूर हम जब अपने अपने स्लीपिंग बैग में दुबके तो अगली सुबह चमकती बर्फीली चोटियों पर खिली सूरज की तेज किरणों ने मानों कहा हो- उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लाई मुंह हाथ धोलो!

सुबह पोर्टर की चाय कि चुस्कियों के साथ ही  9 जून को हमने रहकाताल (रौका ताल) से जयराई (जहराई), रंगलाण, छोटा देवक्यार की यात्रा प्रारम्भ की जो कहीं चढ़ाई तो कहीं उतराई उतरती अब हमें काले पहाड़ों के पार स्थित देवक्यार के दर्शन करवाने वाली थी! सचमुच कुछ अच्छा पाने के लिए पहले कुछ बुरा देखना भी जरुरी है! यह अंतिम 10 किमी. की यात्रा बेहद थकान देने वाली होती है क्योंकि अब वनस्पति आपके साथ कम नजर आती है और काले नीले पहाड़ों के साथ दुर्गम रास्ते आपको ऑक्सीजन की कमी महसूस कराते नजर आते हैं! यहाँ मैंने एक बड़ी अलग बात देखी! पोर्टर व सोमेश्वर देवता की डोली जात्रा के साथ चले क्षेत्रीय निवासी बर्फ के ढेलों को हाथ में लेकर आइसक्रीम की तरह चूसते नजर आ रहे थे! शायद सूखते होंठों को नम करने का इससे अच्छा कोई तरीका नहीं है! यह तरीका यहाँ बेहद पुरातन है क्योंकि यहाँ भेड़- बकरियां चुगाने वाले भेडाल या फिर कस्तूरा सहित विभिन्न जंतुओं का शिकार करने वाले शिकारी ऐसे ही प्रयोग करते आये हैं! आखिर आप मीलों फैले एक ऐसे बुग्याल के दर्शन करते हैं जिसके चारों और बर्फ के बड़े-बड़े पहाड़ और उनके बीचों-बीच बहने वाली नदी मानों आपके स्पर्श को बेताब हो!  यहाँ के लोगों का मानना है कि सोमेश्वर देवता का जन्म यहीं हुआ है जिनका राज यहाँ से लेकर पूरे उपरी हिमालयी भू-भाग में कुरु-कश्मीर तक फैला था! यहाँ डोली एक गुफा में रखी गयी और फिर सोमेश्वर देवता ने भी अपने जन्म स्थान पहुंचकर खूब खुशियाँ मनाई! उनकी डोली ख़ुशी से नाचती दौड़ लगाती ऐसे लग रही थी मानों अपनी खुद मिटा रही हो!

बताया जाता है कि सोमेश्वर की बड़ी मूर्ती जिसका निर्माण काल का तो किसी को जानकारी नहीं है लेकिन पर्वत क्षेत्र के इन 22 गाँव के सयाणा जिनका घर मंदिर प्रांगण से लगा हुआ है से प्राप्त पांडुलिपि दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि इस मूर्ती का निर्माण हरकनाथ या हरी लामा द्वारा देवक्यार नामक हिमालयी क्षेत्र में किया गया था!
यहाँ के जनमानस का मत है कि हरि लामा द्वारा जो पहली मूर्ती बनाई गयी थी उसकी आँखें बड़ी बड़ी हो जाने से उसे उन्होंने देवक्यार से निकलने वाली सुपिन नदी में फैंक दिया, जो बहती हुई कोटगाँव अडोर पट्टी के दुवाई तोक में निकली जिसकी पूजा कोटगांव के उनियाल पंडित कुश देवता के रूप में करते हैं. पर्वत क्षेत्र के पट्टी अडोर, पंचगाई व बडासु के गाँवों में जहाँ सोमेश्वर की पूजा होती है वहीँ सिर्फ जखोल ही एक मात्र ऐसा गाँव है जहाँ पांडव पूजा या पांडव नृत्य नहीं होता. आज भी यह शोध का बिषय है जिस पर व्यापक शोध होना चाहिए.

बहरहाल 10 जून को डोली स्नान के बाद देवक्यार से जयराई का 10 किमी. सफ़र तय करती है. जबकि 11 जून की सुबह डोली अपने पुराने ट्रेक रूट के स्थान पर छोटे ट्रेक रूट पर चलकर किमडार, रातिका होकर 12 किमी की दूरी तय कर ओबरागाड़ पहुंची जहाँ रात्री बिश्राम के बाद डोली ओबरागाड, धारा गाँव होती हुई आज सोमवार 12 जून को लगभग 11:30 बजे सोमेश्वर मंदिर प्रांगण जखोल पहुंची! यह भी बड़ी आश्चर्यजनक बात हुई कि 7 जून को 11:30 बजे मंदिर प्रांगण से निकली यह जात्रा ठीक उसी समय में मंदिर में दाखिल हुई.
इस देवजात्रा में पट्टी गोडर, पंचगाई व बडासु के लगभग 44 गाँव के लोग हजारों की संख्या में सोमेश्वर के दर्शन को जखोल गाँव में उमड़े! ट्रेकिंग के लिहाज से अगर इसे देखा जाय तो यह पूरे एक हफ्ते का ऐसा अभिभूत कर देने वाला हिमालयी सफ़र है जिसे पूरा करके लौटने के बाद आप जिस आनन्द की अनुभूति करते हैं वह आपकी आत्मा को तृप्त कर देता है! मात्र एक हफ्ता आपके तन बदन में ऐसी ऊर्जा का संचार कर देता है कि आप 6 माह तक वर्कलोड की थकन महसूस नहीं करते ऐसा मेरा मानना है!
 

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