जखोल..! एक ऐसा गाँव ..जहाँ साल में 22 गाँव की प्रेतात्मा एक दिन मंदिर में देती हैं हाजिरी! अंतिम दिन जुड़ता है गेंद का मेला!

जखोल..! एक ऐसा गाँव ..जहाँ साल में 22 गाँव की प्रेतात्मा एक दिन मंदिर में देती हैं हाजिरी! अंतिम दिन जुड़ता है गेंद का मेला!

(मनोज इष्टवाल)

  • जखोल में जुड़ता है अदक्का मेला! जिसमें रिग्वी जैसी गेंद के लिए होती है जोर अजमाईश!
  • शाटी-पंशाई दो गुटों में बंटते हैं ग्रामीण!

आप कहेंगे अविश्वसनीय ! मुझे पता है कुछ ये भी कहेंगे अकल्पनीय ..! लेकिन यह आज भी सच है और अगर विश्वास नहीं तो आप किसी भी महानगर या छोटे बड़े शहर से उत्तराखंड की राजधानी देहरादून पहुँचिये! वहां से सुबह रोडवेज की बस पकडिये और 200 किलोमीटर की यात्रा तय कर जखोल गाँव जा पहुँचिये! जो अपने वाहनों से जाना चाहे वह देहरादून, मसूरी, कैम्पटी, नैनबाग, डामटा, नौगाँव, पुरोला, जर्मोलाधार, मोरी, नैटवाड़, सांकरी होते हुए तल्ला पाँव, मल्ला पाँव होता हुआ पर्वत क्षेत्र के इस खूबसूरत गाँव जा पहुंचे! लेकिन यहाँ पहुँचने के लिए भी एक नियत दिन तय है ! और वह दिन है माघ की अदक्का यानि 13 जनवरी (ग्रामीण इस दिन मकरसंक्रान्ति मनाते है) ! 

अदक्का नाम से जुटने वाला यह मेला यूँ तो मक्करसंक्रान्ति के पहले से जुटना शुरू हो जाता है लेकिन पौष माह के 14 गते से इसकी शुरुआत हो जाया करती है!  जिसे पौष माह की ब्याण नाम से भी स्थानीय नागरिक जानते हैं! 14 गते पौष माह से 14 दिन तक 17-18 ढोल लेकर बाजगी समाज के लोग रोज सुबह शाम ढोल बजाकर मंदिर की परिक्रमा करते हैं! 4 बजे प्रात: उठकर ये लोग प्रभात बजाते हुए मंदिर की परिक्रमा करते हैं और पुन: 10 बजे रात्री संदल बजाकर मंदिर की परिक्रमा करना इनका नित नियम होता है!
फिर वह दिन भी आता है जब पर्वत क्षेत्र के 22 गाँवों की प्रेतात्माएं मन्दिर में प्रवेश करती हैं! ग्रामीण बताते हैं कि अमावस्या के दिन हर साल 2 बजे प्रात:काल आत्माएं मंदिर में प्रवेश करती हैं! इसे स्थानीय भाषा में छाला-बेला करना कहते हैं! अदक्का त्यौहार के दिन 7-8 बजे ग्रामीण महिलायें व पुरुष मंदिर प्रांगण में तांदी नृत्य प्रस्तुत करते हैं फिर 9 बजे के लगभग एक सामूहिक दीया जलाया जाता है उसके बाद पूरा गाँव अपने अपने घरों में कैद हो जाता है ! 10 बजे रात्री के बाद किसी को भी बाहर जाने की इजाजत नहीं होती!

रात्री 10 बजे बाद मंदिर के  सबसे बाहर वाले कमरे में ढोल बजाने वाले बाजगी, दूसरे कमरे में जींदा खानदान के पुजारी पंडित शान्ति नौटियाल, जगदीश नौटियाल (जगत राम, इंदराम नौटियाल) सोया करते हैं! रात्री 2 बजे मंदिर के पुजारी मन्दिर के तीनों द्वार खोलकर 22 गाँव पर्वत की मृत आत्माओं का आवाह्न करने के लिए छाला बेला कर उन्हें प्रकट करते हैं तदोपरांत सभी मृत्य आत्माएं प्रकट होती हैं और मंदिर में प्रवेश करती हैं! यह बेहद रोचक और डरावने सपने से कम नहीं है कि मृत आत्माओं को प्रत्यक्ष देखने के एक साल बाद उस व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है जो उन्हें देख लेता है या उनमें खुद को शामिल कर लेता है! इसलिए बाजगी समाज के लोग डर के मारे जैसे ही प्रेतात्मों के प्रकट की उन्हें भनक लगती है रजाई के अंदर मुंह छुपाकर ढोल बजाकर उनका स्वागत करते हैं ताकि उन्हें यह महसूस न हो कि उनका आदर नहीं किया गया! इस दौरान पुजारी सोमेश्वर देवता की पूजा करता रहता है और एकचित्त होकर वह सोमेश्वर देवता पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये होता है! प्रेतात्माएं लगभग दो घंटे तक मंदिर प्रांगण में रहती हैं व सोमेश्वर देवता का अपने हिसाब से गुणगान करती हैं और अंत में अपने अपने क्षेत्र के लिए निकल जाती हैं ऐसा यहाँ के लोगों का मानना है!

इसी दिन क्यों प्रेतात्माओं को मंदिर आने का न्यौता दिया जाता है या सोमेश्वर देवता क्यों उन्हें बुलाता है इस रहस्य से आजतक पर्दा नहीं उठ पाया है! लेकिन लोगों का विश्वास है कि उस दिन सचमुच मंदिर में प्रेतात्माएं प्रवेश करती हैं और ऐसे कई किस्से पूर्व में हुए हैं जिन्हें देखने वाले कई लोग मरे हैं! इसलिए लोग अदक्का के दिन रात्री 10 बजे बाद अपने अपने घरों से  बाहर नहीं निकलते हैं!
फिर 4 बजे सुबह मंदिर के पुजारी ग्रामीणों को देव दर्शन की इजाजत देते हैं और लोग सुबह 4 बजे से ही मंदिर में प्रवेश करना प्रारम्भ कर देते हैं! दूसरे दिन फिर मेला जुटता है और वह मेला यूँ तो अदक्का के नाम से जाना जाता है लेकिन इसे गेंद का मेला कहा जाता है! ग्रामीण बताते हैं कि इस घाटी में दो ही जगह यह मेला लगता है जिसमें एक जखोल गाँव है तो दूसरा सिगतूर!

इस दिन लगभग 500 परिवारों के जखोल गाँव के वासी दो धड़ों में बंटते हैं जिनमें एक धड़े में जींदा लखवाड़ी के वंशज पुजारी, नौटियाल व कुछ राजपूत जिसे साटी नाम से जाना जाता है जबकि दूसरे में राजपूत, बाजगी, लोहार (दोह्टे) इत्यादि सभी होते हैं, जिसे पंशाई या पंशोई नाम से जाना जाता है!
चमड़े की पूर्व में गेंद ने अब अपना प्रारूप बदल दिया है लेकिन गेंद उछालने के बाद साटी व पंशोई धड़ों में जबर्दस्त प्रतियोगिता प्रारम्भ हो जाती है! छीना-झपटी में कई बार आपस में तू-तू मैं मैं व झगड़ा बढ़ जाता है! गाँव के मालदार गंगा सिंह बताते हैं कि जब झगड़ा ज्यादा बढ़ने पर एक युक्ति होती है की गेंद को मन्दिर प्रांगण से दूर खेतों में फैंक दो ताकि मामूली झगड़ा बड़ा रूप न ले ले व आपसी बैमनस्य न फैले! गेंद छीनकर अपनी ओर ले जाने वाला धडा विजयी कहलाता है और इस तरह पुन: ग्रामीण महिलाओं द्वारा लगाईं जाने वाली तांदी से मेले का समापन होता है!

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