जंगलों की आग में शहीद हुए इन शहीदों का मुआवजा किसके लिए?
जंगलों की आग में शहीद हुए इन शहीदों का मुआवजा किसके लिए?
(मनोज इष्टवाल)
अभी समाचार सुन रहा था कि मई माह में ही राजस्थान सहित देश के कई शहरों का तापमान 5 बर्ष का रिकॉर्ड तोड़कर 46 डिग्री पर पहुंच गया है। मैं अभी कुछ ही दिन पहले कुमाऊं की खूबसूरत वादियों में अपने अग्रज भाई निर्मल नैथानी के साथ किसी शोध कार्य के लिए यहां आया था।
द्वाराहाट से नौबाड़ा तक जितना बड़ा जंगल मैंने काफल का देखा शायद ही उत्तराखण्ड के किसी अन्य क्षेत्र में ऐसा सिर्फ काफल का ही जंगल दिखने को मिला। भले ही भीमताल से लेकर लोहाघाट तक निकलती वाली सड़क की टॉप रिज पर भी काफलों की भरमार है लेकिन यहां तो अति ही थी। भतरोजखान में काफल बेचते कई ग्रामीणों का वर्तमान में रोजीरोटी का जरिया बना काफल वहां 100 रुपये किलो पाकर मन खुश हो गया। रानीखेत में यही काफल 200 रुपये किलो और नैनीताल पहुंचते हुए भवाली नैनीताल में 200 से 300 रुपये किलो हो गया। फर्क इतना था कि भटरोजखान में काफल ग्रामीण बेच रहे थे वे अन्य स्थानों पर मैदानी भाग से आये ज्यादात्तर मुस्लिम व्यापारी।
इसी क्षेत्र के मेरे मित्र गिरीश चन्द्र जोशी को जब मैंने पूछा कि कमाल है यहां इतनी मात्रा में काफल कैसे हुआ। उन्होंने बताया कि काफलों के लिए मशहूर इस क्षेत्र के गांव का नाम ही कफलानी है। भासी-कफलानी में इनकी कुछ ज्यादा ही अधिकता है। यहाँ के लोग इन पेड़ों का विशेष ध्यान भी रखते हैं।
छककर काफल खाने के बाद वापसी में भवाली पहुंचा तो उसके आस पास के सारे जंगल चाहे वह नैनीताल क्षेत्र के रहे हों या फिर भीमताल सातताल कर्कोटक डांडा या फिर धानाचूली, ओखलकांडा इत्यादि क्षेत्र। सब जंगल एक साथ धधक रहे थे। आखिर वन विभाग जाए तो जाए कहाँ। बुझाए तो किसकी आग।
घोड़ाखाल पहुंचा तो देखा कविता जोशी के पिता जी ऋषिकेश से धड़कते दिल से हाल पूछ रहे थे कि सब ठीक तो है। टीवी में तुम्हारे क्षेत्रों में लगी आग दिखाई दे रही है। बिटिया का ध्यान रखना। सोशल साइट पर नजर डाली तो पौड़ी के मित्र नवीन भट्ट की दवाग्नि से जलते जंगलों की सारी फोटो। टीवी पर नजर डाली तो सब तरफ उत्तराखण्ड में आग ही आग। क्या सचमुच यह हमारा दुर्भाग्य है या हमारे भाग में वन माफिया व वनविभाग की मिलीभगत का भाग!
आज फिर दर्जनों फोटो उत्तराखण्ड के हर क्षेत्र से सोशल साइट पर अपडेट। मन व्याकुल हुआ तो गोलज्यू धाम जा पहुंचा। मन्दिर में बंदर न देख अचंभा हुआ। पूछा तो पता चला सब आजकल काफल खाने गये हैं शायद। अभी बात हो ही रही थी कि मन्दिर परिसर में एक अदझुलसा बंदर जाने कहाँ से झुलस कर आ पहुंचा। मन और दुखी हुए वापस लौटा तो यह दिल पसीज देने वाली फोटो सोशल साइट पर देखकर भावुक हो गया।
(फ़ाइल फोटो)
आप भी गौर से इन जानवरों को देखिए। सबसे मासूम दिखने वाले इन जानवरों के मल से खड़े हुए जंगलों में इन्ही के घर धू-धू कर जला दिए। चौतरफा आग से आखिर भागकर जाएं तो जाएं कहाँ। जाने कितनी चिड़ियाओं के घोंसले स्वाहा हुए। कितने बच्चे प्रजनन के बाद बिना पंख के यहीं भस्म हुए जाने कितनी ऐसी मौतें इन देवभूमि के बेकसूर जानवरों की हम जैसे राक्षसों ने की।
(फ़ाइल फोटो)
क्या सचमुच हम सबको यह नहीं दिखता कि जिस तरह दिन भर ध्याडी मजदूरी कर हम अपना व अपने बच्चों का परिवार पाल रहे हैं इनका भी परिवार रहा होगा। क्या ये धन दौलत के हवशी वहशी एक बार भी नहीं सोचते कि अपने इन कर्मों से जो धन वैभव सम्पन्नता ये कमाते हैं या कमाने की सोचते हैं उनके बच्चों के साथ भी अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा। क्या सचमुच हमारे अंदर की मानवता समाप्त हो गयी है।
हम सब सिर्फ कोसने के सिवाय कुछ कर भी तो नहीं सकते। फेसबुक में अपडेट आते हैं मंत्री ने लाखों पौध लगवाई सिर्फ खड्डे दिखाने के लिए आग लगवाई। वन माफिया की मिलीभगत से जंगलों में फैली आग?
क्या सिर्फ यही दो कारण हैं। सबसे बड़े कारण पहले हम और फिर यह करप्ट व्यवस्था है। आग मंत्री के इशारे पर लगाई! क्या इसके प्रमाण हैं हमारे पास। या फिर सोशल साइट पर मुंह के बाप का क्या जाता है वाली बात होती है। वह माफिया बेशक सक्रिय है और कुछ करप्ट विभागीय कर्मी भी लेकिन आग न ये लगाते हैं बल्कि इनकी जेब से निकले वे चन्द नोट जो हम जैसे तुच्छ की छोटी सी पूर्ति कर देते हैं और हम सोचते हैं कि हमें कोई नहीं देख रहा । बस एक तीली तो दिखानी है। आज पता चला मसूरी वन प्रभाग ने दो लोगों को आग लगाते पकड़ा। न वे वन कर्मी हैं न वन माफिया न मंत्री के लोग! वे हमारी तरह हम हैं। और हम ही इन दुष्कर्मों के लिए चिन्हित हो रहे हैं।
यदि खुदा ना खास्ता किसी का बच्चा या कोई महिला पुरुष आग में झुलस मात्र जाए तो उसके मुआवजे की मांग के लिए जिन्दाबाद मुर्दाबाद के नारे लगने शुरू हो जाते हैं। लेकिन यहाँ इन निरीह जानवरों की इस तरह भीभत्स मौत पर हम सब मौन क्यों। न ये नरभक्षी हुए न ये इंसानों को कोई हानि पहुंचाते। सिर्फ अपने जंगल व हिमालय के ऊंचे चाँठे-कांठों में अपनी दुनिया में मगन रहते हैं। आखिर ये दोनों जानवर जो उच्च हिमालयी क्षेत्र तक विचरण करते हैं इन जैसे जाने कितने यहां शहीद हुए होंगे। इन्हें कौन तमगा देगा। कौन मौत पर आंसू बहायेगा और कौन इन्हें कैसे मुआवजा दिलाएगा। और तो और कौन इनके लिए आंदोलन करेगा। अरे आंदोलन तो दूर एक पीआईएल ही लगा दीजिये। आइये मिलकर कुछ तो करें।