चौंफला गीत की उत्पत्ति है गुजरात का गरवा नृत्य! आज भी खुद के कृष्णवंशी मानते हैं सौराष्ट्र की कई जातियां!
चौंफला गीत की उत्पत्ति है गुजरात का गरवा नृत्य! आज भी खुद के कृष्णवंशी मानते हैं सौराष्ट्र की कई जातियां!
(मनोज इष्टवाल)
आपको लग रहा होगा कि कहाँ गरवा और कहाँ उत्तराखंड के एक छोटे से क्षेत्र गढ़वाल का चौंफला! तर्क ही ऐसे की जो अकहीं से भी अतर्क संगत न लगे! और तो और आप ये भी सोचेंगे कि ये उल्टी गंगा बहाने की कोशिश कर रहा है! लेकिन सत्य यह है कि गंगा कभी उलटी नहीं बही हमेशा पहाड़ों से मैदानों की ओर ही इसका रुख हुआ!
चौंफला का सृजन इस काल का नहीं बल्कि द्वापर के महाभारत काल का माना जाता है जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व में मिलता है! वनपर्व के अनुसार गढ़वाल में तब तंगण, किरात और पुलिंद जातियों का अधिपत्य था जिनमें सबसे अधिक शक्ति सम्पन्न राजा सुबाहु माना गया जिनकी राजधानी श्रीपुर अर्थात श्रीनगर थी! दूसरी शक्ति के रूप में महाराजा विराट हुए जिनकी राजधानी के अवशेष आज भी जौनसार-बावर के नागथात नामक स्थान से ५ किमी व चकराता से २५ किमी. की दूरी पर अवस्थित हैं! तीसरी बड़ी शक्ति के रूप में बलिपुत्र बाणासुर हुए जिनकी राजधानी जोतिषपुर यानि वर्तमान जोशीमठ हुई! भगवत कथा में इनकी पुत्री उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम विवाह के रूप में माना गया है जिनका मंडप उखीमठ में सजा था!
कहा जाता है कि उषा ने उखीमठ में ही माँ पार्वती से वेद शास्त्र और नृत्य कला का अध्ययन प्राप्त किया! और उषा ने ही चौंफला नृत्य को जन्म दिया जिसका प्रचार प्रसार करने वह यदुवंशियों के सौराष्ट्र भी गयी जिसका रूपान्तर वहां गरवा के रूप में माना गया है! ये सभी नृत्य उन्हें विरासत में कृष्ण भगवान की योगमाया से प्राप्त बताये जाते हैं ! ऊषा जिसे डॉ. शिब प्रसाद डबराल चारण खास कन्या मानते हैं उसने गुजरात में उत्तराखंड के बिशेष प्रकार के नृत्यों का प्रचार किया था ( उत्तराखंड के पशु चारक-डॉ. शिब प्रसाद डबराल, पृष्ठ ५९) वहीँ डॉ. शिब प्रसाद नौत्याल अपनी पुस्तक गढ़वाल के लोकनृत्य के पृष्ठ संख्या ११५ में लिखते हैं कि “ गुजरात का गरवा या गरवी नृत्य हमारे चौंफला नृत्य के अति निकट है!
कहते हैं कि बाणासुर के मंत्री के लड़के चन्द्रचूड गढ़वाल से सौराष्ट्र में जाकर कई अन्य प्रथा चलाई जिनमें वहां के लोक आभूषण व वस्त्राभूषण प्रमुख हैं! और सच मानिए आज भी इनमें काफी साम्यभाव मिलता है! सौराष्ट्र की अहीर महिलायें जहाँ नागपुरी पौशाकनुमा काला लवा आज भी पहनती हैं वहीँ वहां के पुरुष भी ठेठ हमारे पौराणिक पोषक पहनते हैं! सच कहें तो अगर हमें अपना पौराणिक काल जानना है तो हमें अहीर जाति के पुरुष महिलाओं के वस्त्राभूषण देखने होंगे! सौराष्ट्र जैसे गरम देश में काले ऊनि वस्त्र पहनना महिलाओं में आज भी चलन है. वे कहती हैं कि वे कृष्ण वंशज हैं जो बदरीवन बिहारी बिशाला में निवास करते थे! अगर ऐसा है तो यह प्रमाणिक सत्य है क्योंकि इस बात की पुष्टि पंडित गोबिंद प्रसाद नौटियाल की पुस्तक “ तपोभूमि बद्रिकाश्रम के पृष्ठ संख्या २० पर लिखी गयी है जिसमें उनका मानना है कि कृष्ण ने स्वयं श्रीकृष्ण जन्मखंड के उत्तरार्ध में कहा है कि वे ही बदरीनाथ बिहारी बिशाला में निवास करते थे!
यह सार्वभौमिक सत्य है कि जागरों में कुसुमा कोलिन की हल्दवाड़ी बाड़ी व गंगू रमोला से जुड़े प्रसंग खूब आते हैं जो बद्रिकाश्रम क्षेत्र में ही पड़ते हैं!
यहाँ के लोक समाज में बर्णित कई ऐतिहासिक तत्वों में लोक तत्व यानि तन्त्र मन्त्र बहुत प्रचलित रहे जिनमें कई ऐसी विद्याएँ रही हैं जिसमें आदमी कोई भी भेष धारण कर लेता था ऐसे लोक तत्व सावर की विद्या, बुक्साड़ी विद्या, पंजाबी चुंगटी, खुरासानी चीरा, खैरवा की झोली, तेजमाली सोटा, बगमारी आसण, हैंसदा ज्यूँदाल, काली को ज्वाप, अमरित की तुम्बी, आंछरियों को रास, नौपुरी को बांस, सतरंगीपांसा जैसी अनेकोनेक विद्याएँ प्रचलित थी! उन्हीं विद्याओं में एक नृत्य कला थी जिससे कई रोग ब्याधियाँ दूर भागती थी! नृत्यकला में चौंफला नृत्य बिशेष रूप से योग-भोग का रक्षक व रोग नाशक माना जाता है क्योंकि इसमें बदन के हर हिस्से को बेहद मिजान के साथ तीन दिशाओं में अदलना बदलना पड़ता है! कहा जाता है कि यह नृत्य ऊषा द्वारा बद्रिकाश्रम आये सौराष्ट्र की महिलाओं को ठण्ड से बचने के लिए सिखाया था जो बाद में वहां गरवा के रूप में प्रचलित हुआ! कुछ विद्वानों का मानना है कि यह नृत्य उषा ने अपने सौराष्ट्र प्रवास के दौरान सिखाया था!
बहरहाल इस बिषय में आज भी पर्याप्त शोध की आवश्यकता नजर आती है! जिसके लिए सौराष्ट्रीय संस्कृति व उत्तराखंडी संस्कृति में ब्याप्त कई संज्ञकों की समानता को भी दृष्टिगत रखना होगा क्योंकि आज भी वहां खान पान व वस्त्र आभूषण व नृत्य कला का काफी मिश्रण देखने को मिलता है लेकिन यह तय हमें करना होगा कि क्या धार नगरी (मालवा) के राजा कनकपाल के बाद यह सब पहनावा वहां से आया या फिर कृष्ण पुत्र अनिरुद्ध व बाणासुर पुत्री ऊषा के काल में यह सब कलाएं सौराष्ट्र गयी!