चक्रब्यूह संरचना और वीर गाथाओं का प्रतीक है जौनसार-बावर क्षेत्र का जूडा नृत्य…!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 2 दिसम्बर 2014)

जौनसार बावर के मेले और त्यौहारों का मुख्य आकर्षण जूडा नृत्य यों तो वीरगाथा काल का सजीव वर्णन दिखाई देता है लेकिन अपने को पांडवों के वंशज मानने वाले इस क्षेत्र के निवासी इस नृत्य को चक्रब्यूह संरचना से भी जोड़कर देखते हैं।

विशेषत: बिस्सू मेले या फिर पुरानी दीवाली के अवसर पर इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है जिसमें सफ़ेद पोशाकों में तलवार, खुन्खरी, फरसे हाथ में लहराते ग्रामीण रण-बांकुरों के भेष में अपने करतबों का सामूहिक प्रदर्शन करते नजर आते हैं। दरअसल इस पोशाक को वीरता और वीरों का प्रतीक मानते हुए यहाँ के बुद्धिजीवी इस पर अलग-अलग राय प्रस्तुत करते हैं। साहित्यकार रतन सिंह जौनसारी अपने को पांडवों का वंशज मानने के स्थान पर उन्हें ही खुद जौनसार-बावर क्षेत्र का अनुशरणकर्त्ता मानते हैं, वहीँ ठाणा गॉव के वयोवृद्ध साहित्यकार समाजसेवी कृपा राम जोशी इस युद्ध कला को पांडवों के काल से जोड़ते हुए कहते हैं कि यह युद्ध कला कालान्तर से अब तक ज्यों की त्यों जीवित है।

कांडोई भरम के ठाकुर जवाहर सिंह चौहान व चिल्हाड गॉव के माधो राम बिजल्वाण (अब जीवित नहीं हैं) अपने को पांडवों के वंशज से सम्बन्ध करते हुए कहते है कि जूडा नृत्य चक्रब्यूह संरचना से जुडी वह युद्ध कला है जो सिर्फ ढोल के बोल और सीटियों की आवाज में क़दमों की चपलता पर किया जाने वाला बेहद लोकप्रिय नृत्य है।

वहीँ संस्कृतिकर्मी अर्जुनदेव बिजल्वाण इसी नृत्य का एक पहलु थोउडा नृत्य भी मानते हैं जिसमें वे आखेट कला को जोड़कर देखते हैं और थोउडा/थाउडा को पांडव धनुर्धर अर्जुन की आखेट कला से जोड़कर देखते हैं।

बहरहाल इसके कितने प्रारूप हैं उन पर चर्चा करने का मतलब लेख को विस्तृत करना हुआ इसलिए संक्षेप में मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि मेरे द्वारा अभी तक इन 18 सालों में जौनसार बावर क्षेत्र के कई गॉवों के तीज त्यौहार में जाकर शोध करने की कोशिश की गई है। जहाँ तक जूडा नृत्य का प्रश्न हैं तो इसका आनंद सर्वप्रथम सन 1995 में मैंने कांडोई भरम के कांडई गांव के बिस्सू में लिया उसके बाद ठाणा गॉव की दीवाली, हाजा-दसेऊ, खन्नाड गॉव की दीवाली, जाड़ी सहित जाने जौनसार भावर के कितने अन्य गॉव की दीवाली में यह नृत्य कला सजीव होती देखी लेकिन मेरा आंकलन है कि जितना अच्छा प्रदर्शन इसका लोहारी गॉव में होता है वह अन्य कहीं नहीं है। इस बार की दीवाली में लोहारी गॉव के ग्रामीण विशेषकर नवयुवकों ने मुझे हतप्रभ कर दिया। ये सिर्फ ढोल के बोल और सीटियों की गूँज में कभी गोलघेरा बनाते तो कभी अर्द्ध-वृत्त । कभी कई घेरे एक साथ बन जाते। यह सचमुच अद्भुत था। आप अन्दर घुसे और कब घेरे में कैद हो गए पता भी नहीं लगता । आप कैसे बाहर निकले यह कह पाना समभा नहीं है। सचमुच यह किसी चक्रब्यूह संरचना से कम नहीं था।

यहाँ के संस्कृतिकर्मी कुंदन सिंह चौहान से मैंने इसे पूछा तो उन्होंने भी यही जवाब दिया कि यह चक्रब्यूह संरचना का ही एक हिस्सा है, क्योंकि अभिमन्यु का चक्रब्यूह में वध किये जाने के बाद से पांडवों द्वारा इस भूल को सुधारा गया था और फिर सभी सैनिकों को इस कला का ज्ञान दिया गया था।
बहरहाल तर्क जो भी हों मैंने भी इस बार कंडोई भरम की बिरुड़ी दीवाली में इस नृत्य पोशाक में हाथ आजमाए,और अनुभव किया कि वास्तव मेंं इस पोशाक को पहनते ही शरीर जोश से लबालब भर जाता है। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के उप निदेशक के एस चौहान जी का हृदय से आभार जिन्होंने मुंह इस बार की पुरानी दिवाली लोहारी गांव में मनाने की सलाह दी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *